Monday 18 August 2014

राजस्थान के उच्चावच अर्थात् धरातल एवं धरातलीय प्रदेश

राजस्थान के उच्चावच अर्थात् धरातल एवं धरातलीय प्रदेश



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राजस्थान एक विशाल राज्य है अतः यहाँ धरातलीय विविधताओं का होना स्वाभाविक है। राज्य में पर्वतीय क्षेत्र, पठारी प्रदेश एवं मैदानी और मरूस्थली प्रदेशों का विस्तार है अर्थात् यहाँ उच्चावच सम्बन्धी विविधतायें हैं।

राजस्थान के उच्चावच के निम्न स्वरूप स्पष्ट होते है :
  1. उच्च शिखर   - इसके अन्तर्गत वे पर्वतीय शिखर सम्मिलित हैं जो समुद्रतल से 900 मीटर से अधिक ऊँचे हैं। ये राजस्थान के कुल एक प्रतिशत क्षेत्र से भी कम हैं। इसमें अरावली का सर्वोच्च शिखर गुरुशिखर है जिसकी ऊँचाई समुद्र तल से 1722 मीटर है। दक्षिणी अरावली के अन्य उच्च शिखर सेर, अचलगढ़, देलवाड़ा, आबू, जरगा, कुम्भलगढ़ हैं।







2. पर्वत शृंखला - इसमें 600 मीटर से 900 मीटर की ऊँचाई वाला क्षेत्र सम्मिलित है जो राज्य के लगभग 6 प्रतिशत भाग में विस्तृत है। सम्पूर्ण अरावली पर्वतमाला इसमें सम्मिलित है जो दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व तक अक्रमिक रूप में राजस्थान के मध्य भाग में विस्तृत है। इसका सर्वाधिक विस्तार सिरोही, उदयपुर, राजसमंद से अजमेर जिले तक है। इसके पश्चात् जयपुर और अलवर जिलों इन श्रेणियों का विस्तार अक्रमिक होता जाता है।

    3. उच्च भूमि एवं पठारी क्षेत्र- इनका विस्तार अरावली श्रेणी के दोनों ओर उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिणी-पूर्वी पठारी क्षेत्र में है। इस क्षेत्र की समुद्र तल से ऊँचाई 300 से 600 मीटर के मध्य है। यह राजस्थान के लगभग 31 प्रतिशत क्षेत्र पर विस्तृत है। इसका उत्तरी-पूर्वी भाग प्रायः समतल है जिसकी औसत ऊँचाई 400 मीटर है। जबकि दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र उच्च भूमि है, जहाँ ऊबड़-खाबड़ धरातल है तथा औसत ऊँचाई 500 मीटर है। राज्य के दक्षिण-पूर्व में हाड़ौती का पठारी क्षेत्र है। चित्तौड़गढ़ तथा प्रतापगढ़ जिले में भी पठारी क्षेत्र है।

    4. मैदानी क्षेत्र- इसका विस्तार राज्य के लगभग 51 प्रतिशत भू-भाग पर है जिसकी समुद्र तल से ऊँचाई 150 से 300 मीटर है। इसके दो वृहत क्षेत्र हैंरू प्रथम-पश्चिमी राजस्थान का रेतीला मरूस्थली क्षेत्र एवं द्वितीय- पूर्वी मैदानी क्षेत्र। पूर्वी मैदान में बनास बेसिन, चम्बल बेसिन तथा छप्पन मैदान (मध्य माही बेसिन) हैं जो नदियों द्वारा निर्मित मैदान है तथा कृशि के लिये सर्वाधिक उपयुक्त है।




धरातलीय प्रदेश

         धरातलीय विशिष्टताओं के आधार पर राजस्थान को निम्नलिखित प्रमुख एवं उप विभागों में विभक्त किया जाता है-
1. पश्चिमी मरूस्थली प्रदेश
2. अरावली पर्वतीय प्रदेश
3. पूर्वी मैदानी प्रदेश
4. दक्षिणी-पूर्वी पठार (हाडौती का पठार)

1. पश्चिमी मरूस्थली प्रदेश


राजस्थान का अरावली श्रेणियों के पश्चिम का क्षेत्र शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क मरूस्थली प्रदेश है। यह एक विशिष्ट भौगोलिक प्रदेश है, जिसे ‘भारत का विशाल मरूस्थल’ अथवा ‘थार मरूस्थल’ के नाम से जाना जाता है। इसका विस्तार बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, पाली, जालौर, नागौर, सीकर, चूरू, झुन्झुनू, हनुमानगढ़ एवं गंगानगर जिलों में है। यद्यपि गंगानगर, हनुमानगढ़ एवं बीकानेर जिलों में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार से क्षेत्रीय स्वरूप में परिवर्तन आ गया है।








सम्पूर्ण पश्चिमी मरूस्थली क्षेत्र समान उच्चावच नहीं रखता अपितु इसमें भिन्नता है। इसी भिन्नता के इसकों चार उप-प्रदेशों में विभिक्त किया जाता है, ये हैं-
(अ) शुष्क रेतीला अथवा मरूस्थली प्रदेश
(ब) लूनी-जवाई बेसिन
(स) शेखावाटी प्रदेश, एवं
(द) घग्घर का मैदान
          (अ) शुष्क रेतीला अथवा मरूस्थली प्रदेश- यह क्षेत्र शुष्क मरूस्थली क्षेत्र है जहाँ वार्षिक वर्षा को औसत 25 सेमी. से कम है। इसमें जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर जिले एवं जोधपुर और चूरू जिलों के पश्चिमी भाग सम्मलित है। इस प्रदेश में सर्वत्र बालुका-स्तूपों का विस्तार है। कुछ क्षेत्रों जैसे पोकर, जैसलमेर, रामगढ़ में चट्टानी संरचना दृष्टिगत होती है।

          (ब) लूनी-जवाई बेसिन- यह एक अर्द्ध-शुष्क प्रदेश है जिसमें लूनी एवं इसकी प्रमुख जवाई तथा अन्य सहायक नदियाँ प्रवाहित है। इसका विस्तार पाली, जालौर, जोधपुर जिलों एवं नागौर जिले के दक्षिणी भागांे मंे हैं। यह एक नदी निर्मित मैदान है जिसे ‘लूनी बेसिन’ के नाम से जाना जाता है।

          (स) शेखावटी प्रदेश- इसे ‘बांगर प्रदेश’ के नाम से भी जाना जाता है। षेखावटी प्रदेश का विस्तार झुन्झुनू, सीकर और चूरू जिले तथा नागौर जिले के उत्तरी भाग में है। यह प्रदेश भी रेतीला प्रदेश है जहाँ कम ऊँचाई के बालूका-स्तूपों का विस्तार हैं। इस प्रदेश में अनेक नमकीन पानी के गर्त (रन) हैं जिनमें डीडवाना, डेगाना, सुजानगढ़, तलछापर, परिहारा, कुचामन आदि प्रमुख हैं।

          (द) घग्घर का मैदान- गंगानगर, हनुमानगढ़ जिलों का मैदानी क्षेत्र का निर्माण घग्घर नदी के प्रवाह क्षेत्र की बाढ़ से हुआ है। वर्तमान में घग्घर नदी को ‘मृत नदी’ कहा जाता है क्योंकि इसका प्रवाह तल स्पष्ट नहीं है, किन्तु वर्षा काल में इसमें न केवल पानी प्रवाहित होता है, अपितु बाढ़ आ जाती है। घग्घर नदी प्राचीन वैदिक कालीन सरस्वती नदी है जो विलुप्त हो चुकी है। यह सम्पूर्ण मैदानी क्षेत्र है जो वर्तमान में कृषि क्षेत्र बन गया है।

2. अरावली पर्वतीय प्रदेश


अरावली पर्वत श्रेणियाँ राजस्थान का एक विशिश्ट भौगोलिक प्रदेश है। अरावली विश्व की प्राचीनतम पर्वत श्रेणी है जो राज्य में कर्णवत उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तक फैली है। ये पर्वत श्रेणियाँ उत्तर में देहली से प्रारम्भ होकर गुजरात में पालनपुर तक लगभग 692 किमी. की लम्बाई में विस्तृत है। अरावली पर्वतीय प्रदेश का विस्तार राज्य के सात जिलों- सिरोही, उदयपुर, राजसमंद, अजमेर, जयपुर, दौसा और अलवर में।

अरावली पर्वत प्रदेश को तीन प्रमुख उप-प्रदेशों में विभक्त किया जाता है, ये हैं-
(अ) दक्षिणी अरावली प्रदेश
(ब) मध्य अरावली प्रदेश
(स) उत्तरी अरावली प्रदेश
          (अ) दक्षिणी अरावली प्रदेश- इसमंे सिरोही, उदयपुर और राजसमंद जिले सम्मलित हैं। यह प्रदेश पूर्णतया पर्वतीय प्रदेश है, जहाँ अरावली की श्रेणियाँ अत्यधिक सघन एवं उच्चता लिये हुए हैं। इस प्रदेश में अरावली पर्वतमाला के अनेक उच्च शिखर स्थित हैं। इसमें गुरुशिखर पर्वत राजस्थान का सर्वोच्च पर्वत शिखर है जिसकी ऊँचाई 1722 मीटर है जो सिरोही जिले में माउन्ट आबू क्षेत्र में स्थित है। यहाँ की अन्य प्रमुख उच्च पर्वत चोटियाँ हैं- सेर (1597 मीटर), अचलगढ़ (1380मीटर), देलवाड़ा (1442मीटर), आबू (1295 मीटर) और ऋषिकेश (1017मीटर)। उदयपुर-राजसमंद क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर जरगा पर्वत है जिसकी ऊँचाई 1431 मीटर है, इस क्षेत्र की अन्य श्रेणियाँ कुम्भलगढ़ (1224मीटर) लीलागढ़ (874मीटर), कमलनाथ की पहाड़ियाँ (1001मीटर) तथा सज्जनगढ़ (938 मीटर) है। उदयपुर के उत्तर-पश्चिम में कुम्भलगढ़ और गोगुन्दा के बीच एक पठारी क्षत्रे हैं जिसे ‘भोराट का पठार’ के नाम से जाना जाता है।

          (ब) मध्य अरावली प्रदेश- यह मुख्यतः अजमेर जिले में फैला है। इस क्षेत्र में पर्वत श्रेणियों के साथ संकीर्ण घाटियाँ और समतल स्थल भी स्थित है। अजमेर के दक्षिण-पश्चिम भाग में तारागढ़ (870 मीटर) और पश्चिम मंे सर्पिलाकार पवर्त श्रेणियाँ नाग पहाड़ (795मीटर) कहलाती हैं। ब्यावर तहसील में अरावली श्रेणियों के चार दर्रे स्थित है जिनके नाम हैं :  बर, परवेरिया और शिवपुर घाट, सूरा घाट दर्रा और देबारी।

          (स) उत्तरी अरावली प्रदेश- इस क्षेत्र का विस्तार जयपुर, दौसा तथा अलवर जिलों में है। इस क्षेत्र में अरावली की श्रेणियाँ अनवरत न होकर दूर-दूर होती जाती हैं। इनमें शेखावाटी की पहाडियाँ, तोरावाटी की पहाड़ियों तथा जयपुर और अलवर की पहाड़ियाँ सम्मलित हैं। इस क्षेत्र में पहाड़ियों की सामान्य ऊँचाई 450 से 750 मीटर है। इस प्रदेश के प्रमुख उच्च शिखर सीकर जिल े मंे रघुनाथगढ़ (1055मीटर), अलवर में बैराठ (792 मीटर) तथा जयपुर में खो (920 मीटर) है। अन्य उच्च शिखर जयगढ़, नाहरगढ़, अलवर किला और बिलाली है।

3. पूर्वी मैदानी प्रदेश


 राजस्थान का पूर्वी  प्रदेश एक मैदानी क्षेत्र है जो अरावली के पूर्व में विस्तृत है। इसके अन्तर्गत भरतपुर, अलवर, धौलपुर, करौली, सवाई माधौपुर, जयपुर, दौसा, टोंक तथा भीलवाड़ा जिलों के मैदानी भाग सम्मलित है। यह प्रदेश ‘नदी बेसिन’ प्रदेश है अर्थात् नदियों द्वारा जमा की गई मिट्टी से इस प्रदेश का निर्माण हुआ है। इस मैदानी प्रदेश के तीन उप-प्रदेश हैं-
(अ) बनास-बाणगंगा बेसिन
(ब) चम्बल बेसिन और
(स) मध्य माही बेसिन अथवा छप्पन मैदान।
          (अ) बनास-बाणगंगा बेसिन- बनास और उसकी सहायक नदियों द्वारा निर्मित यह एक विस्तृत मैदान है। यह मैदान बनास और इसकी सहायक बाणगंगा, बेडच, कोठारी, डेन, सोहाद्रा, मानसी, धुन्ध, बांडी, मोरेल, बेड़च, वागन, गम्भीर आदि द्वारा निर्मित है। यह एक विस्तृत मैदान है, जिसकी समुद्रतल से ऊँचाई 150 से 300 मीटर के मध्य है तथा ढाल पूर्व की ओर है।

          (ब) चम्बल बेसिन- इसके अन्तर्गत कोटा, सवाई माधोपुर, करौली तथा धौलपुर जिलों का क्षेत्र सम्मलित है। कोटा का क्षेत्र हाडौती में सम्मलित है किन्तु यहाँ चम्बल का मैदानी क्षेत्र स्थित है। इस प्रदेश में सवाई माधोपुर, करौली एवं धौलपुर में चम्बल के बीहड़ स्थित है। यह अत्यधिक कटा-फटा क्षेत्र है, इनके मध्य समतल क्षेत्र स्थित है।

          (स) मध्य माही बेसिन अथवा छप्पन मैदान- इसका विस्तार उदयपुर के दक्षिण-पूर्व से, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ जिलों में है। यह माही नदी का प्रवाह क्षेत्र है जो मध्य प्रदेश से निकलकर इस प्रदेश से गुजरती हुई खंभात की खाड़ी में गिरती है। यह क्षेत्र असमतल है तथा सर्वत्र छोटी-छोटी पहाडियाँ है। यह क्षेत्र पहाड़ियों से युक्त तथा कटा-फटा होने के कारण इसे स्थानीय भाषा में ‘बांगड’ नाम से पुकारा जाता है। प्रतापगढ़ और बाँसवाड़ा के मध्य के भाग में छप्पन ग्राम समूह स्थित है अतः इसे ‘छप्पन का मैदान’ भी कहते है।

4. दक्षिणी-पूर्वी पठारी प्रदेश अथवा हाडौती


राजस्थान का दक्षिणी-पूर्वी भाग एक पठारी भाग है, जिसे ‘हाडौती के पठार’ के नाम से जाना जाता है। यह मालवा के पठार का विस्तार है तथा इसका विस्तार कोटा, बूंदी, झालावाड़ और बारां जिलों में है। इस क्षेत्र की औसत ऊँचाई 500 मीटर है तथा यहाँ अनेक छोटी पर्वत श्रेणियाँ हैं, जिनमें मुकन्दरा की पहाड़ियाँ और बूंदी की पहाड़ियाँ प्रमुख हैं। यहाँ चम्बल नदी और इसकी प्रमुख सहायक कालीसिंध, परवन और पार्वती नदियाँ प्रवाहित है, उनके द्वारा निर्मित मैदानी प्रदेश कृषि के लिये उपयुक्त है।


राजस्थान का भौतिक पर्यावरण - सामान्य परिचय

राजस्थान का भौतिक पर्यावरण - सामान्य परिचय




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राजस्थान राज्य जहाँ एक ओर इसके गौरवशाली इतिहास के लिये पहचाना जाता है, वहीं दूसरी ओर इसका भौतिक स्वरूप भी विशिष्टता लिये हुए है। राज्य के भौतिक पर्यावरण ने यहाँ के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक वातावरण को सदैव से प्रभावित किया है और वर्तमान में भी राज्य के विकास में महती भूमिका निभा रहा है।

स्थिति एवं विस्तार

राजस्थान भारत के पश्चिमी भाग में २३ डिग्री ३ उत्तरी अक्षांश से लेकर ३० डिग्री १२ उत्तरी अक्षांश के मध्य तथा ६९ डिग्री ३० पूर्वी देशांतर से ७८ डिग्री १७ पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित है।  कर्क रेखा अर्थात् 23 डिग्री अक्षांश राज्य के दक्षिण में बासँ वाड़ा-डूँगरपरु जिलों से गजुरती हैं। राज्य की पश्चिमी सीमा भारत-पाकिस्तान की अन्तर्राश्ट्रीय सीमा है, जो 11,070 किलोमीटर लम्बी है। राज्य की उत्तरी और उत्तरी-पूर्वी सीमा पंजाब तथा हरियाणा से, पूर्वी सीमा उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश से, दक्षिणी-पश्चिमी सीमा क्रमशः मध्य प्रदेश तथा गुजरात से संयुक्त है।







राजस्थान का क्षेत्रीय विस्तार 3,42,239 वर्ग किलोमीटर में है जो भारत के कुल क्षेत्र का 10.43 प्रतिशत है। अतः क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत का सबसे बड़ा राज्य है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह विश्व के अनेक देशों से बड़ा है, उदाहरण के लिये इजराइल से 17 गुना, श्रीलंका से पांच गुना, इंग्लैण्ड से दुगना तथा नार्वे, पोलैण्ड, इटली से भी अधिक विस्तार रखता है। राजस्थान की आकृति विषम कोण चतुर्भुज के समान है। राज्य की उत्तर से दक्षिण लम्बाई 826 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम चैड़ाई 869 किलोमीटर है।

प्रशासनिक इकाईयाँ

          स्वतत्रंता के पश्चात् 1956 में राजस्थान राज्य के गठन के प्रक्रिया पूर्ण हुई। वर्तमान में राज्य को प्रशासनिक दृष्टि से सात संभागों, 33 जिलों और 241 तहसीलों में विभक्त किया गया है।

राज्य के संभाग एवं उनमें सम्मलित जिलें निम्न प्रकार से है-


       1. जयपुर संभाग - जयपुर, दौसा, सीकर, अलवर एवं झुन्झुँनू जिले।
2. जोधपुर संभाग - जोधपुर, जालौर, पाली, बाड़मेर, सिरोही एवं जैसलमेर जिले।
3. भरतपुर संभाग - भरतपुर, धौलपुर, करौली एवं सवाई माधोपुर जिले।
4. अजमेर संभाग - अजमेर, भीलवाड़ा, टोंक एवं नागौर जिले।
5. कोटा संभाग - कोटा, बूंदी, बारां एवं झालावाड़ जिले।
6. बीकानेर संभाग - बीकानेर,, गंगानगर, हनुमानगढ़ एवं चूरू जिले।
7. उदयपुर संभाग - उदयपरु , राजसमंद, डगूं रपुर, बाँसवाड़ा, चित्तौड़गढ़ एवं प्रतापगढ़ जिले।




राजस्थान : लोक कलाएँ, लोक नाट्य, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक वाद्य एवं लोक चित्रकला

राजस्थान : लोक कलाएँ, लोक नाट्य, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक वाद्य एवं लोक चित्रकला



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लोक कलाएँ

          राजस्थान लोक कला के विविध आयामों का जनक रहा है। लोक कला के अन्तर्गत लोकगीत, लोकनाट्य, लोकनृत्य, लोकवाद्य और लोक चित्रकला आती है, इसका विकास मौखिक स्मरण और रूढ़ियों के आधार पर दीर्घ काल से चला आ रहा है। ये लोक कलाएँ हमारी संस्कृति के प्राण है। मनोंरजन का साधन है। लोक जीवन का सच्चा स्वरूप है।

लोक नाट्य

  
  मेवाड़, अलवर, भरतपुर, करौली और जयपुर में लोक कलाकारों द्वारा लोक भाषा में रामलीला तथा रासलीला बड़ी लोकप्रिय है। बीकानेर ओर जैसलमेर में लोक नाट्यों में ‘रम्मत’ प्रसिद्ध है। इसमें राजस्थान के सुविख्यात लोकनायकों एवं महापुरूषों की ऐतिहासिक एवं धार्मिक काव्य रचना का मंचन किया जाता है। इन रम्मतों के रचियता मनीराम व्यास, फागु महाराज, सुआ महाराज, तेज कवि आदि है। मारवाड़ में धर्म और वीर रस प्रधान कथानकों का मंचन ‘ख्याल’(खेलनाटक) परम्परागत चला आ रहा है, इनमें अमरसिंह का ख्याल, रूठिराणी रो ख्याल, राजा हरिशचन्द्र का ख्याल प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है। राजस्थान में ‘भवाईनाट्य’ अनूठा है जिसमें पात्र व्यंग वक्ता होते है। संवाद, गायन, हास्य और नृत्य इसकी प्रमुख विषेषताएँ है। मेवाड़ में प्रचलित ‘गवरी’ एक नृत्य नाटिका है जो रक्षाबन्धन से सवा माह तक खेली जाती है। गवरी वादन संवाद, प्रस्तुतिकरण आरै लोक-संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ की ‘गवरी’ निराली है। गवरी का उद्भव षिव-भस्मासुर की कथा से माना जाता है। इसका आयोजन रक्षाबन्धन के दूसरे दिन से शुरू होता है। गवरी सवा महिने तक खेली जाती है। इसमें भील संस्कृति की प्रमुखता रहती है। यह पर्व आदिवासी जाति वर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। गवरी में पुरूष पात्र होते है। इसके खेलों में गणपति कान-गुजरी, जोगी, लाखा, बणजारा इत्यादि के खेल होते है।

लोक नृत्य

          राजस्थान में लाके नृत्य की परम्परा सदा से उन्नत रही है। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में लोकनृत्यों का विकास हुआ जिससे जनजीवन में आनन्द, जीवट और शौर्य के भावों की अभिवृद्धि हुई है।

(अ) गैर नृत्य - आदिवासी क्षेत्रों में होली के अवसर पर ढोल, बांकिया तथा थाली की संगत में पुरूष अंगरखी, धोती, पगड़ी पहनें हाथ में छड़िया लेकर गोल घेरे में नृत्य में भीली संस्कृति के दर्षन होते हैं।

(ब) गीदड़ नृत्य - शेखावाटी क्षेत्र में लोग होली का डण्डा रोपने से सप्ताह भर तक नंगाडे की ताल पर पुरूष दो छोटे डंडे लके र गीतों के साथ सुन्दर परिधान पहन कर नृत्य करतें है जिसे ‘गीदड़नृत्य’ कहा जाता है।

(स) ढोल नृत्य - मरूस्थलीय प्रदेष जालारे में शादी के समय माली, ढ़ोली, सरगड़ा और भील जाति के लोग ‘थाकना’ शैली में ढोलनृत्य करते हैं।

(द) बम नृत्य - अलवर और भरतपुर में फागुन की मस्ती मंे बड़े नगाड़े को दो बड़े डण्डों से बजाया जाता है, जिसे ‘बम’ कहते है। इसी कारण इसे ‘बमनृत्य’ कहते हैं।

(य) घूमर नृत्य - यह राजस्थान का सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकनृत्य है, इसे मांगलिक पर्वों पर महिलाओं द्वारा हाथों के लचकदार संचालन से ढ़ोलनगाड़ा, शहनाई आदि संगत में किया जाता है।

(र) गरबा नृत्य - महिला नृत्य में गरबा भक्तिपूर्ण नृत्य कला का अच्छा उदाहरण है। यह नृत्य शक्ति की आराधना का दिव्य रूप है जिसे मुख्य रूप से गुजरात मंे देखा जाता है। राजस्थान में डूंगरपुर और बाँसवाड़ा में इसका व्यापक पच्र लन हैं।
इस तरह गजु रात आरै राजस्थान की संस्कृति के समन्वय का सुन्दर रूप हमें ‘गरबा’ नृत्य में देखने को मिलता है।

अन्य लोक नृत्य

          जसनाथी सिद्धों का अंगारा नृत्य, भीलों का ‘राईनृत्य’ गरासिया जाति का ‘वालरनृत्य’ कालबेलियाजाति का ‘कालबेलियानृत्य’ प्रमुख है। पेशेवर लोकनृत्यों में ‘भर्वाइ  नृत्य’ 'तेरह ताली नृत्य ' चमत्कारी कलाओं के लिए विख्यात है।

लोक गीत 

          राजस्थानी लाके गीत मौखिक परम्परा पर आधारित मानस पटल की उपज हैं जो शेडस संस्कारों, रीतिरिवाजों, संयोगवियोग के अवसरों पर लोक भाषा में सुन्दर अभिव्यक्ति करते है।  उदाहरणार्थ -‘खेलण दो गणगौर’, म्हारी घूमर छे नखराली एमाय, चिरमी आदि है।

लोक वाद्य 

          लोककला में राजस्थान के लाके वाद्यों का बड़ा महत्व है, इनके बिना नृत्य, संगीत भी अधूरा लगता है। यहाँ के प्रमुख लोक वाद्यों में ‘रावण हत्था’, तंदूरा, नंगाड़े, तीनतारा, जोगिया सारंगी, पूंगी और भपंग उल्लेखनीय हैं।

लोक चित्रकला

1. पथवारी - गांवो में पथरक्षक रूप में पूजा जाने वाला स्थल जिस पर विभिन्न प्रकार के चित्र बने होते हैं।
2. पाना - राजस्थान में कागज पर जो चित्र उकेरे जाते हैं, उन्हें पाना कहा जाता है।
3. मांडणा - राजस्थान में लोक चित्रकला की यह एक अनुठी परम्परा है। त्योहारों एवं मांगलिक अवसरों पर पूजास्थल चैक पर ज्यामितीयवतृ , वर्ग  या आडी़ तिरछी रेखाआंे के रूप में ‘मांडणा’ बनाये जाते हैं।
4. फड़ - कपड़ों पर किये जाने वाले चित्राकं न को ‘फड़’ कहा जाता है।
5. सांझी - यह गोबर के घर के आंगन, पूजास्थल अथवा चबुतरें पर बनाया जाता है।

लाके गीत, लाके नाटय् , लोकवाद्य, लाके चित्रकला राजस्थानी संस्कृति एवं सम्यता के प्रमुख अंग है। आदिकाल से लेकर आज तक इन कलाआंे का विविध रूपों में विकास हुआ है। इन विधाआंे के विकास में भक्ति, प्रेम, उल्लास और मनोरंजन का प्रमुख स्थान रहा है। इनके पल्लवन में लोक आस्था की प्रमुख भूमिका रही है। बिना आस्था और विष्वास के इन लोक कलाआंे के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज भी लोककला के मूल तत्त्व जन जीवन में विद्यमान हैं। त्योहार, नृत्य, संगीत, लोकवाद्य, लोक कलाआंे, विभिन्न बोलियों एवं परिणाम के कारण ही राजस्थान को ‘रंगीला राजस्थान’ की संज्ञा दी जाती है। राजस्थान की सांझी संस्कृति के दर्षन यहाँ के जन-जीवन के साथ साहित्य में भी देखे जा सकते हैं। धर्म समभाव एवं सुलह-कुल की नीति यहाँ के धार्मिक जीवन का इतिहास के काल से ही मूल मंत्र रहा है।

राजस्थान के प्रमुख त्यौंहार, उत्सव एवं मेले

राजस्थान के प्रमुख त्यौंहार, उत्सव एवं मेले




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त्यौंहार एवं उत्सव

यद्यपि राजस्थान की मरूभूमि शुष्क है फिर भी उत्सवों त्यौंहारों एवं पारस्परिक मेल-मिलाप से रगं -रसमय है। राजस्थान में हिन्दू-मुस्लिम और इसाइयों के सभी त्यौंहार उत्साह, उल्लासपूर्वक प्रेम भाई चारे के साथ सोहार्दपूर्ण वातावरण में मनाकर मानवीय एकता, सहिष्णुता का प्रदर्षन करते हैं। यहाँ के प्रमुख लोकोत्सव में गणगौर और तीज का महत्वपूर्ण स्थान है।
गणगौर का उत्सव होलिकात्सव से लेकर चैत्र षुक्ला तृतीया तक चलता है। सधवास्त्रियाँ आरै कुंवारियां सुहाग की अमरता एवं अच्छे वर की अभिलाषा में ईसर-ईसरी जी की पूजा करती है। यह उत्सव जयपुर, जोधपुर, उदयपुर आरै कोटा में गणगौर की सवारी निकालकर बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। तीज का त्यौंहार भाद्रपद कृश्णा तृतीया को बालिकाएँ एवं नवविवाहिताएँ प्रकृति के प्रांगण मंे गीतों का गायनकर, झूलों में झूलकर, नवीन पोषाक पहन कर, और मेहन्दी रचाकर मनाती हैं। जयपुर की तीज की सवारी प्रसिद्ध हैं। धामिर्क त्यौंहारों के अन्तगर्त हिन्दू दीपावली, हाली, दशहरा, अक्षयतृतीया, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, गणेष चतुर्थी, शरदपूर्णिमा, बसन्तपंचमी, नागपंचमी, रामनवमी, हनुमान जयन्ती, षिवरात्री, अन्नकूट महोत्सव और गोवर्धन पूजा आदि परम्परागत तरीके से हर्षोल्लासपूर्वक मनाते हैं। जैन समाज में महावीर जयन्ती तथा भाद्रपद मास में पर्युषण पर्व व्रत, तप और अर्चना के साथ मनाते है। मुस्लिम समाज के प्रमुख त्यौहार इदुलजुहा, इदुलफितर, शबेरात, मोहर्रम और बारावफात उत्साह एवं भाईचारापूर्वक मनाए जाते हैं। इन त्योहारों में सभी समाज के लोगों में पे्रम, उल्लास और आनन्द का संचार होता है सामाजिक समरसता का विकास होता है तथा धार्मिक श्रृद्धा का संचार होता है। राजस्थान के प्रमुख त्यौहार एवं उनकी तिथियाँ निम्न हैः
प्रमुख त्यौहार एवं उनकी तिथियाँ
क्र.स. त्यौंहार तिथि
1. गणगौर फाल्गुन शुक्ल 15 से चेत्र षुक्ला 3 तक
2. महाषिवरात्री फाल्गनु कृष्ण पक्ष-13 (त्रयोदषी)
3. दीपावली कार्तिक कृष्ण पक्ष-अमावस्या
4. रक्षाबन्धन श्रावणमास पूर्णिमा
5. होली फाल्गुनमास पूर्णिमा
6. जन्माष्टमी भाद्रपदश्कृष्णपक्ष अष्टमी
7. गणेष चतुर्थी भाद्रपद शुक्लपक्ष चैथ
8. रामनवमी चेत्र षुक्ल पक्ष नवमी
9. क्रिसमस डे 25 दिसम्बर
10. मुहर्रम मुहर्रम माह की दस तारीख
11. ईद-उलफितर शव्वाल की पहली तारीख
12. तीज भाद्रपद कृष्णपक्ष तृतीया
13. पर्युषण भाद्रपद मास
14. दषहरा आश्विन शुक्लपक्ष दषमी
15. ईदउलजुहा जित्कार की दसवीं तारीख

मेले

राजस्थान के मेलें यहाँ की संस्कृति के परिचायक है। राजस्थान मंे मेलांे का आयोजन धर्म, लोकदेवता, लोकसंत और लोक संस्कृति से जुड़ा हुआ है। मेलों में नृत्य, गायन, तमाषा, बाजार आदि से लोगों में प्रेम व्यवहार, मेल-मिलाप बढ़ता है। राजस्थान के प्रत्येक अंचल में मेले लगते है। इन मेलों का प्रचलन प्रमुखतः मध्य काल से हुआ जब यहाँ के शासकों ने मेलों को प्रारम्भ कराया। मेले धार्मिक स्थलों पर एवं उत्सवों पर लगने की यहाँ परम्परा रही है जो आज भी प्रचलित है। राजस्थान मंे जिन उत्सवों पर मेले लगते है उनमें विशेष हैं- गणेश चतुर्थी, नवरात्र, अष्टमी, तीज, गणगौर, शिवरात्री, जनमाष्टमी, दशहरा, कार्तिक पूर्णिमा आदि। इसी प्रकार धार्मिक स्थलों (मंदिरों) पर लगने वाले मेलों में तेजाजी, शीतलामाता, रामदेवजी, गोगाजी, जाम्बेष्वर जी, हनुमान जी, महादेव, आवरीमाता, केलादेवी, करणीमाता, अम्बामाता, जगदीष जी, महावीर जी आदि प्रमुख है। राजस्थान के धर्मप्रधान मेलों में जयपुर में बालाजी का, हिण्डोन के पास महावीर जी का, अन्नकूट पर नाथद्वारा का, गोठमांगलोद में दधिमती माता का, एकलिंग जी में षिवरात्री का, केसरिया में धुलेव का, अलवर के पास भर्तहरि जी का और अजमेर के पास पुष्कर जी का मेला गलता मेला प्रमुख है। इन मेलों में लोग भाक्तिभावना से स्नान एवं अराधना करते हैं।  लोकसंतो और लोकदेवों की स्मृति एवं श्रद्धा में भी यहाँ अनेक मेलों का आयोजन होता है। रूणेचा में रामदवे जी का, परबतसर में तेजाजी का, काले गढ़ में पाबूजी का, ददेरवा में गोगाजी का, देशनोक में करणीमाता का, नरेणा(जयपुर)-शाहपुरा (भीलवाड़ा) में फूलडोल का, मुकाम में जम्भेष्वरजी का, गुलाबपुरा में गुलाब बाबा का और अजमेर में ख्वाजा साहब का मेला लगता है। यह मेले जीवन धारा को गतिषीलता एवं आनंद प्रदान करते है शान्ति, सहयोग और साम्प्रदायिक एकता को बढ़ाते है। मेलों का सांस्कृतिक पक्ष कला प्रदर्षन तथा सद्भावनाआंे की अभिवृद्धि है। मेलों का महत्त्व देवों और देवियों की आराधनाआंे की सिद्धि के लिए मनुष्य देवालयों में जाते हैं। मेलों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सांस्कृतिक परिपाटी प्रवाहित होती है जो संस्कृति की निरन्तरता के लिए आवष्यक है। इसके अतिरिक्त मेले व्यापारिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, विषेषकर पशु मेले तथा इसका मनोंरजन के लिये भी महत्व है।

राजस्थान का स्थापत्य एवं चित्रकला


राजस्थान का स्थापत्य एवं चित्रकला





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स्थापत्य कला

मानव संस्कृति के इतिहास में स्थापत्य का अपना स्वतन्त्र स्थान है। मध्ययुगीन राजस्थान के स्थापत्य मंे राजप्रासाद, मन्दिरों और दुर्गों का निर्माण महत्वपूर्ण है। इस युग में स्थापत्य कला की एक विशेष शैली का विकास हुआ, जिसे हिन्दू स्थापत्य शैली कहा जाता है। इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ थी- शिल्प सौष्ठव, सुदृढ़ता, अलंकृत पद्धति, सुरक्षा, उपयोगिता, विशालता और विषयों की विविधता आदि। मुगलसत्ता के साथ समागम के पश्चात् राजस्थानी स्थापत्य में तुर्की और मुगल प्रभाव से नई शैली का विकास हुआ जिसे हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैली कहा गया है।

दुर्ग स्थापत्य 

राजस्थान राजाआंे का स्थान रहा है जहाँ राजा हो या सामंत दुर्ग निर्माण को आवश्यक मानते थे। दुर्गाे का निर्माण निवास, सुरक्षा, सामग्री संग्रहण के लिए और आक्रमण के समय जनता, पशु तथा सम्पत्ति के संरक्षण हेतु किया जाता था। अधिकांश दुर्गों का निर्माण सामरिक महत्व के स्थानों पर किया गया ताकि आक्रमणकारियों से प्रदेश की सुरक्षा हो, तथा व्यापारिक मार्ग सुरक्षित रह सकें। दुर्ग निर्माण उँची एवं चैड़ी पहाड़ियों पर किया जाता था, जहाँ कृषि एवं सिंचाई के साधन उपलब्ध रहते थे।
दुर्गों की प्रमुख विषेषताएँ थी -
1.    सुदृढ़ प्राचीरे
2.    विषाल परकोटा
3.    अभेद्य बुर्जे
4.    दुर्ग के चारों ओर गहरी नहर या खाई
5.    दुर्ग के भीतर शास्त्रागार की व्यवस्था
6.    जलाशय
7.    मन्दिर निर्माण
8.    पानी की टंकी की व्यवस्था
9.    अन्नभण्डार की स्थापना
10.  गुप्तप्रवेश द्वार रखा जाना
11.  सुरंग निर्माण
12.  राजप्रासाद एवं सैनिक विश्राम गृहों की व्यवस्था आदि।
चित्तौड का दुर्ग सबसे प्राचीन गिरी दुर्ग है, जिसे महाराणा कुम्भा ने द्वारों की शृंखला और बुर्जों के निर्माण से सुदृढ़ बनाया । इसके बारे में प्रसिद्ध है गढ़ तो चित्तौढ़, बाकी सब गढ़ैया। कुम्भा द्वारा ही कुम्भलगढ़ दुर्ग का निर्माण कराया गया जो विशाल और ऊँची पहाड़ी पर सुदृढ़ द्वारों तथा प्राचीरों से सुरक्षित है। परमारों का जालोर दुर्ग, चैहानों का अजमेर में तारागढ़ दुर्ग तथा रणथम्भौर दुर्ग, हाड़ाओं द्वारा निर्मित बून्दी का तारागढ़, राव जौधा का जोधपुर में मेहरानगढ़ दुर्ग, कछवाहों का जयपुर के पास आमेर दुर्ग नाहरगढ़ दुर्ग तथा जयगढ़ दुर्ग उत्कृष्ठ गिरी दुर्ग हैं। परमारों का झालावाड़ के निकट गागरोन दुर्ग जल दुर्ग की श्रेणी में आता है। महारावल जैसलदेव का जैसलमेर दुर्ग पीले पत्थरों से निर्मित मरूस्थलीय दुर्ग है। बीकानेर का जूनागढ़ दुर्ग, भरतपुर का दुर्ग समतल मैदान पर निर्मित चैड़ी खाई से घिरा हुआ है। राजस्थान के अन्य प्रसिद्ध दुर्गों में माण्डलगढ़ - भीलवाड़ा, अचलगढ़ - आबू, रणथम्बोर - सवाई माधोपुर, बयाना-भरतपुर, सिवाना-बाड़मेर, भटनेर-हनुमानगढ़ आदि है। 

राजप्रासाद (महल)

राजस्थान में राजपतू राज्यों की स्थापना के साथ ही राजप्रसादों का निर्माण होने लगा था। राजप्रासाद या महल दो भागों पुरूष कक्ष तथा अन्तपुर, (जनानाकक्ष), में विभाजित होते थे। महलों में आवास कक्ष, शस्त्रागार, धान्यभण्डार, रसोई घर और पूजागृह होते थे। सादगी, नीची छतें, पतली गेलेरियाँ, छोटे-छोटे कक्ष और ढालान महलों की प्रमुख विषेशताएँ होती थी। मुगल-राजपूत सम्बन्धों के प्रभाव से महलों में फव्वारे, छोटे बाग, गुम्बद, पतले खम्बे, मेहराब आदि नई विधाआंे का प्रयोग होने लगा। कुम्भलगढ़ और चित्तौड़ के महल सादगी के नमूने है। उदयपुर के अमरसिंह के महल, जगनिवास, जगमन्दिर, जोधपुर के फूल महल, आमेर के दिवाने-आम, दिवान ए खास, बीकानेर के रगं महल, कणर्म हल, शीषमहल, अनूपमहल तथा कोटा और जैसलमेर के महलों में मुगलस्थापत्य का प्रभाव दिखाई देता है। 

मन्दिर स्थापत्य 

राजस्थान में मन्दिर स्थापत्य का प्रारम्भ प्राचीनकाल से माना जाता है। तेहरवीं शताब्दी तक मन्दिर स्थापत्य में शक्ति एवं शौर्य का मन्दिर, रणकपुर के जैन मन्दिर में दुर्ग स्थापत्य का प्रभाव है। इसी काल के जैन धर्म के मन्दिर देलवाड़ा माउन्ट आबू में है। यहाँ पहला मन्दिर विमलशाह द्वारा बनवाया गया है, इस मन्दिर में आदिनाथ की मूर्ति है, जिनकी आँखों में हीरे लगे हुए है। दूसरा मन्दिर वस्तुपाल और तेजपाल द्वारा बनवाया गया है। जिसमें ‘नेमिनाथ’ की मूर्ति है, यह मन्दिर तक्षणकला की दृष्टि से अपूर्व है। चितौड़ का सूर्य मन्दिर एवं बाडौली(चित्तौड़गढ़) के षिव मंदिर भी बड़े महत्त्व के है। डुंगरपुर के श्री नाथजी के मन्दिर, उदयपुर के जगदीश मन्दिर में हिन्दू स्थापत्य की प्रधानता है, जबकि जोधपुर के घनश्याममन्दिर तथा आमेर के जगत शिरोमणि मन्दिर में मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देता है। 17वीं तथा 18वीं सदी में मुगल आक्रमणों के बचाव में श्री नाथजी(नाथद्वारा), द्वाराकाधीश (कांकरोली), मथुरेशजी (कोटा), गोविन्ददेव जी(जयपुर) के मन्दिरों का निर्माण राजपूत शासकों द्वारा करवाया गया था।

भवनस्थापत्य 

(अ) हवेलियाँ - राजस्थान में भवन स्थापत्य का विकास हवेलियों के निर्माण से हुआ है। राजस्थान के अनेक नगरों में सेठ और सामन्तों ने भव्य हवेलियों का निर्माण करवाया था। इनमें प्रमुख द्वार के अगल-बगल कलात्मक गवाक्ष, लम्बी पोल, चैड़ा चैक और चैक के अगल-बगल भव्य कमरे होते थे। जयपुर आरै शेखावाटी क्षेत्र में रामगढ़, नवलगढ़, फतहपुर , मुकुन्दगढ़, मण्डावा, पिलानी, सरदारशहर, रतनगढ़, सुजानगढ़ में बनी हवेलियाँ भवन स्थापत्य का उत्कृष्ठतम उदाहरण है। जैसलमेर में सालिमसिंह, नथमल तथा पटवों की हवेलियाँ पत्थर की जाली एवं नक्काशी के कारण विश्व पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। इसी प्रकार वंशी पत्थर से निर्मित करौली, कोटा, भरतपुर की हवेलियां अपनी कलात्मक संगतराशि की दृष्टि से उत्कृष्ठ है।

(ब) विजय स्तम्भ (चित्तौड़गढ़) - महाराणा कुम्भा द्वारा मालवा के सुल्तान पर विजय की स्मृति में बनवाया गया विजय स्तम्भ जिसे कीर्तिस्तम्भ भी कहा जाता है भवन स्थापत्य का अद्भुत नमूना है। 122 फिट उँचे स्तम्भ में नौ मंजिले है, तथा इसके अन्दर उपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई है। हर मंजिल पर चारों ओर झरोखे बने है तथा हिन्दू देवताआंे की मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया गया है।

(स) समाधियाँ (छतरियां) - देश की रक्षा में प्राण न्यौछावर करने वाले शासकों, सामन्तों और सेनानायकों की स्मृति मे समाधियों पर छतरियां बनायी गई जिन्हे देवलिया या देवल कहा जाता था। गेटोर (जयपुर), आहड़ (उदयपुर), जसवन्तथड़ा (जोधपुर), छत्रविलासबाग (कोटा), और बड़ाबाग (जैसलमेर) में बनी छतरियाँ भवन स्थापत्य और मन्दिर स्थापत्य का अद्भुत समन्वय है।

चित्रकला


राजस्थानी चित्रकला का उद्भवकाल पन्द्रहवीं शताब्दी माना जाता है। राजपूतकाल में भित्तिचित्र, पोथीचित्र, काष्ठपाट्टिका चित्र और लघुचित्र बनाने की परम्परा रही हैं। अधिकांश रियासतों के चित्र बनाने के तौर-तरीकों के स्थान के अनुसार मौलिकता और सामाजिक-राजनैतिक परिवेश के कारण अनेक चित्रशैलियों का विकास हुआ यथा-मेवाड़, मारवाड़, बून्दी, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और कोटा चित्रशैली। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक रूप मेवाड़ शैली में दिखाई देता है, इसलिए इसे राजस्थानी चित्रशैलियों की जनक शैली कहा जाता है। 1260 में चित्रित श्रावक प्रतिक्रमणसम्पूर्णि नामक चित्रितीं ग्रंथ इसी शैली का प्रथम उदाहरण है।

मेवाड़ शैली मेवाड़ राज्य राजस्थानी चित्रकला का सबसे प्राचीन केन्द्र माना जा सकता हैं। महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में इस चित्रशैली का अधिक विकास हुआ। लालःपीले रंग का अधिक प्रयोग, गरूड़नासिका, परवल की खड़ी फांक से नत्रे , घुमावदारवलम्बी अंगुलियां, अंलकारों की अधिकता और चेहरों की जकड़न आदि इस शैली की प्रमुख विषेशताएँ हैं। मेवाड़ शैली के चित्रों का विषय श्रीमद्भागवत्, सूरसागर, गीतगोविन्द, कृष्णलीला, दरबार के दृष्य, शिकार के दृष्य आदि थे। इस चित्रशैली के चित्रकारों में मनोहर, गंगाराम, कृपाराम, साहिबदीन और जगन्नाथ प्रमुख हैं। राजा अमरसिंह के काल से इस षैली पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है। 


मारवाड़ शैली मारवाड़ में रावमालदेव के समय इस शैली का स्वतन्त्र रूप से विकास हुआ। इस शैली में पुरूष लम्बे चैड़े गठीले बदन के, स्त्रियाँ गठीले बदन की, बादामी आँखें, वेशभूषा ठेठ राजस्थानी और पीले रंग की प्रधानता होती थी। चित्रों के विषय नाथचरित्र, भागवत, पंचतन्त्र, ढोला-मारू, मूमलदे, निहालदे, लोकगाथाएँ होती थी। चित्रकारों में वीर जी, नारायणदास, भारी अमरदास, छज्जूभाटी, किशनदास और कालूराम आदि प्रमुख हैं।


बीकानेर शैली - महाराजा अनूपसिंह के समय इस शैली का वास्तविक रूप में विकास हुआ। लाल, बेंगनी, सलेटी और बादामी रंगो का प्रयोग, बालू के टीलों का अंकन, लम्बी इकहरी नायिकाएं, मेघमंडल, पहाड़ों आैर फूल पत्तियों का आलेखन इस शैली की प्रमुख विषेशताएँ रही है। शिकार, रसिक प्रिया, रागमाला, शृंगारिक आख्यान विशेष रहे हैं। इस शैली पर पंजाब कलम, मुगल शैली और मारवाड़ शैली का प्रभाव पाया जाता है।


किशनगढ़ शैली - यह राजपतू कालीन चित्रकला की अत्यन्त आकर्षक शैली है। इस शैली का सर्वाधिक विकास राजानागरीदास के समय में हुआ। उभरी हुई ठोड़ी, नेत्रों की खंजनाकृति बनावट, धनुषाकार भौंए, गुलाबीअदा, सुरम्यसरोवरों का अंकन इस चित्रशैली के चित्रों की प्रमुख विषेशताएं है ‘बनी ठनी’ इस चित्रशैली की सर्वोत्तमकृति है, जिसे भारतीय चित्रकला का ‘मोनालिसा’ भी कहा जाता है। इसका चित्रण निहालचन्द ने किया था। इस षैली के चित्रों में कला, प्रेम और भक्ति का सर्वांगीण सामन्जस्य पाया जाता है।


जयपुर शैली - इस चित्रशैली का काल 1600 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। इस शैली पर राजस्थान मेंमुगल चित्रकला का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। सफेद, लाल, पीले, नीले तथा हरे रंग का अधिक प्रयोग, सोने-चाँदी का उपयोग, पुरूष की बलिष्ठता और महिला की कोमलता इस शैली की प्रमुख विशेषता रही है। शाही सवारी, महफिलों, राग-रगं , शिकार, बारहमासा, गीत गोविन्द, रामायण आदि विषय प्रमुख रहें है।


बून्दी शैली - मेवाड़ से प्रभावित, राव सुरजन से प्रारम्भ बून्दी शैली उम्मेदसिंह के समय तक उन्नति के शिखर पर पहुँची थी। लाल, पीले रंगो की प्रचुरता, छोटा कद, प्रकृति का सतरंगी चित्रण इस चित्र शैली की विशेषता रही है। रसिकप्रिया, कविप्रिया, बिहारी सतसई, नायक-नायिका भेद, ऋतुवर्णन बून्दी चित्रशैली के प्रमुख विषय थे। इस शैली में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ चित्रण हुआ है, इसलिए इसे ‘पशु पक्षियों की चित्रशैली’ भी कहा जाता है। यहाँ के चित्रकारों में सुरजन, अहमदअली, रामलाल, श्री किशन और साधुराम मुख्य थे।


कोटा शैली - कोटा चित्रशैली में बून्दी तथा मुगल षैली का समन्वय पाया जाता है। स्त्रियों के चित्र पुतलियों के रूप में, आँखे बड़ी, नाक छोटी, ललाटबड़ा, लंहगे उँचे, वेणी अकड़ी हुई इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ रही है। चित्रों के विषय शिकार, उत्सव, श्री नाथ कथा चित्रण, पयु-पक्षी चित्रण रहें हैं।


नाथद्वारा शैली - यह शैली अपनी चित्रण विलक्षणता के लिए प्रसिद्ध रही है। यहाँ श्रीनाथजी की छवियों के रूप में ‘पिछवाई चित्रण’ किया जाता है। इस प्रकार राजस्थान चित्रण की दृष्टि से सम्पन्न रहा है। यहाँ पोथीखाना (जयपुर), मानसिंह पुस्तक प्रकाश (जोधपुर), सरस्वती भण्डार (उदयपुर) और स्थानीय महाराजाआंे तथा सामन्तों के संग्रहालयों में चित्रकला का ऐसा समृद्ध भण्डार उपलब्ध है जो न केवल राजस्थान को धनी बनाये हुये है, वरन-भारत की कलानिधि का एक भव्य संग्रह भी है।

राजस्थान की संस्कृति एवं कला-साहित्य


राजस्थान की संस्कृति एवं कला-साहित्य



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राजस्थान को सांस्कृतिक दृष्टि से भारत को समृद्ध प्रदेशों में गिना जाता है। संस्कृति एक विशाल सागर है जिसे सम्पूर्ण रूप से लिखना संभव नहीं है। संस्कृति तो गाँव-गाँव ढांणी-ढांणी चैपाल चबूतरों महल-प्रासादों मे ही नहीं, वह तो घर-घर जन-जन में समाई हुई है। राजस्थान की संस्कृति का स्वरूप रजवाड़ों और सामन्ती व्यवस्था में देखा जा सकता है, फिर भी इसके वास्तविक रूप को बचाए रखने का श्रेय ग्रामीण अंचल को ही जाता है, जहाँ आज भी यह संस्कृति जीवित है। संस्कृति में साहित्य और संगीत के अतिरिक्त कला-कौशल, शिल्प, महल-मंदिर, किले-झोंपडियों का भी अध्ययन किया जाता है, जो हमारी संस्कृति के दर्पण है। हमारी पोशाक, त्यौहार, रहन-सहन, खान-पान, तहजीब-तमीज सभी संस्कृति के अन्तर्गत आते है। थोड़े से शब्दों में कहा जाए तो 'जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है, वह संस्कृति है।'

ऐतिहासिक काल में राजस्थान में कई राजपूत वंशों का शासन रहा है। यहाँ सभी शासकों ने अपने राज्य की राजनैतिक एकता के साथ-साथ साहित्यिक और सांस्कृतिक उन्नति में योगदान दिया है। ग्याहरवीं शताब्दी में उत्तर पष्चिम से आने वाली आक्रमणकारी जातियों ने इसे नष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु निरन्तर संघर्ष के वातावरण मे भी यहाँ साहित्य, कला की प्रगति अनवरत रही। मध्य काल में राजपूत शासकों के मुगलों के साथ वैवाहिक और मैत्री संबन्धों से दोनों जातियों में सांस्कृतिक समन्वय और मेल-मिलाप रहा कला, साहित्य में विविधता एंव नवीनता का संचार हुआ और सांझी संस्कृति का निर्माण हुआ।

सांझी संस्कृति

राजस्थान के भू-भाग पर आक्रमणों एवं युद्धों का दौर लम्बे समय तक चलता रहा। राजस्थानी जनजीवन में समन्वय एवं उदारता के गुणों ने सांझी संस्कृति को पनपने का अवसर प्रदान किया। धार्मिक सहिष्णुता के परिणामस्वरूप अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में हिन्दू-मुस्लिम एकता के दर्शन होते हैं। जहाँ सभी धार्मिक लोग एकत्र होकर इबादत (प्रार्थना) करते हैं और मन्नत मांगते है। लोक देवता गोगाजी, रामदेवजी के समाधि स्थल पर सभी धर्मानुयायी अपनी आस्था रखकर साम्प्रदायिक सद्भावना का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। राजस्थान के सामाजिक जीवन यथा खान-पान, रहन-सहन, आमोद-प्रमोद और रस्मों-रिवाजों में सर्वत्र हिन्दू मुस्लिम संस्कृति का समन्वय हुआ है। भोजन में अकबरी जलेबी, खुरासानी खिचड़ी, बाबर बड़ी, पकौड़ी और मुंगड़ी का प्रचलन मुगली प्रभाव से खूब पनपा है। परिधानों में मलमल, मखमल, नारंग शाही, बहादुर शाही कपड़ों का प्रयोग हुआ है। आमोद-प्रमोद में पतंगबाजी, कबूतर बाजी मुगल काल से प्रचलित हुई है। स्थापना कला में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का सम्मिश्रण सांझी संस्कृति उदाहरण हैं। यहाँ के राजा-महाराजाआंे ने मुगली प्रभाव से स्थापत्य निर्माण में संगमरमर का प्रयोग किया। गेलेरियों, फव्वारांे, छोटे बागों को महत्व दिया। दिवारांे पर बेल बूंटे के काम को बढा़वा दिया। चित्रकला की विभिन्न शैलियांे में मुगल शैली का प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि राजस्थानी कला एवं संस्कृति में सांझी संस्कृति के वे सभी तत्त्व मौजूद है जो अपने मूलभूत स्वरूप को बनाए रखते हुए भी नवीनता, ग्रहणषीलता, सहिष्णुता और समन्वय को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हंै।

मध्यकालीन साहित्यिक उपलब्धियाँ

राजस्थान में साहित्य प्रारम्भ में संस्कृत व पा्र कतृ भाषा में रचा गया। मध्ययुग के प्रारम्भकाल से अपभृंष और उससे जनित मरूभाषा और स्थानीय बोलियां जैसे मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, ढूँढाड़ी और बागड़ी में साहित्य की रचना होती रही, परन्तु इस काल में संस्कृत साहित्य अपनी प्रगति करता रहा।

संस्कृत साहित्य
राजपूताना के विद्यानुरागी शासकांे, राज्याश्रय प्राप्त विद्वानांे ने संस्कृति का सृजन किया है। षिला लेखांे, प्रषस्तियांे और वंषावलियांे के लेखन में इस भाषा का प्रयोग किया जाता था। महाराणा कुम्भा स्वयं विद्वान संगीत प्रेमी एवं विद्वानांे के आश्रयदाता शासक थे। इन्होंने संगीतराज, सूढ़ प्रबन्ध, संगीत भीमांसा, रसिक प्रिया, (गीत गोविन्द की टीका) संगीत रत्नाकर आदि ग्रन्थांे की रचना की थी। इनके आश्रित विद्वान मण्डन ने षिल्पषास्त्र से सम्बन्धित अनेक गन््र थांे की रचना की। जिनमें दवेमूर्तिप्रकरण, राजवल्लभ, रूपमण्डन, प्रसादमण्डन महत्त्वपूर्ण कुंभाकालीन (चित्तौड़गढ़) और कुंभलगढ़ प्रशास्ति (कुंभलगढ) की रचना की। राणा जगतसिंह एवं राजसिंह के दरबार में बाबू भट्ट तथा रणछोड़ भट्ट नामक विद्वान थे, जिन्होंने क्रमषः जगन्नाथराम प्रशस्ति और राजसिंह प्रशस्ति की रचनाएँ की। ये दोनों  प्रशस्तियां मेवाड़ के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है। आमेर-जयपुर के महाराजा मानसिंह, सवाईजयसिंह, मारवाड़ के महाराजा जसवन्तसिंह, अजमेर के चैहान शासक विग्रहराज चतुर्थ तथा पृथ्वीराज तृतीय बीकानेर के रायसिंह और अनूपसिंह संस्कृत के विद्वान एवं विद्वानांे के आश्रयदाता शासक थे। अनूपसिंह ने बीकानेर में ‘अनूप संस्कृत पुस्तकालय’ का निर्माण करवाकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया। विग्रहराज चतुर्थ ने ‘हरिकेलि’ नाटक लिखा, पृथ्वीराज के कवि जयानक ‘पृथ्वीराजविजय’ नामक काव्य के रचयिता थे। प्रतापगढ़ के दरबारी पंडित जयदेव का ‘हरिविजय’ नाटक तथा गंगारामभट्ट का ‘हरिभूषण’ इस काल की प्रसिद्ध रचनाएँ है। मारवाड़ के जसवन्तसिंह ने संस्कृत में भाषा-भूषण और आनन्द विलास नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखें। जोधपुर के मानसिंह ने नाथ-चरित्र, नामक गं्रथ लिखा। मानसिंह को पुस्तकांे से इतना प्रेम था कि उन्होंने काषी, नेपाल आदि से संस्कृत के अनेक गं्रथ मंगवाकर अपने पुस्तकालय में सुरक्षित रखा । आज यह पुस्तकालय मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र के रूप में विख्यात है।

राजस्थानी साहित्य
राजस्थानी समस्त राजस्थान की भाषा रही है जिसके अन्तर्गत मेवाड़ी, मारवाड़ी, ढूढाड़ी, हाड़ौती, बागड़ी, मालवी और मेवाती आदि बोलियाँ आती है। इस भाषा में जैनशैली, चारणशैली, संतशैली और लोकशैली में साहित्य का सृजन हुआ है।

(1) जैनशैली का साहित्य - जैनशैली का साहित्य जैन धर्म से सम्बन्धित है। इस साहित्य में शान्तरस की प्रधानता है। हेमचन्द्र सूरी (ग्यारहवीं सदी) का देषीनाममाला’, ‘षब्दानुषासन’, ऋषिवर्धन सूरी का नल दमयन्ती रास, धर्म समुद्रगणि का ‘रात्रि भोजनरास’, हेमरत्न सूरी का गौरा बादल री चैपाई प्रमुख साहित्य हैं।

(2) चारणशैली का साहित्य - राजपूत युग के शौर्य तथा जनजीवन की झांकी इसी साहित्य की देन है। इसमें वीर तथा शृंगार रस की प्रधानता रही है। चारणषैली में रास, ख्यात, दूहा आदि में गद्य, पद्य रचनाएँ हुई है। बादर ढा़ढी कृत ‘वीर भायण’ चारण शैली की प्रारम्भिक रचना है। चन्दवरर्दाइ  का ‘पृथ्वीराजरासो’ , नेणसी की ‘नेणसीरीख्यात’, बाँकीदास की ‘बाँकीदासरीख्यात,’ दयालदास की ‘दयालदासरी ख्यात’ गाडण शिवदास की ‘अचलदास खींची री वचनिका’ प्रमुख ग्रन्थ हैं जिनमें राजस्थान के इतिहास की झलक मिलती है। दोहा छन्द में ढ़ोलामारू रा दूहा, सज्जन रा दूहा प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इनके अतिरिक्त दुरसा आढ़ा का नाम भी विषिष्ठ उल्लेखनीय है। वह हिन्दू संस्कृति और शौर्य का प्रषंसक तथा भारतीय एकता का भक्त था। बीकानेर नरेष कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ ने ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री’ नामक ग्रंथ की रचना की, जो राजस्थानी साहित्य का ग्रन्थ माना जाता है। इन गुणांे की ध्वनि इसके गीतों, छन्दों, झुलका तथा दोहा में स्पष्ट सुनाई देती है। सूर्यमल्ल मीसण आधुनिक काल का महाकवि था और बून्दी राज्य का कवि था। इसने ‘वंष भास्कर’ और ‘वीर सतसई’ जैसी उल्लेखनीय कृतियों की
रचना की।

(3) सन्त साहित्य - राजस्थान के जनमानस का े प्रभावित करने वाला सन्त साहित्य बड़ा मार्मिक है। सन्तांे ने अपने अनभ्ु ावों का े भजनों द्वारा नैतिकता, व्यावहारिकता का े सरलता स े जनमानस में पस्र ारित किया ह,ै एसे े सन्तों में मल्लीनाथजी, जाभ्ं ाा े जी, जसनाथ जी, दादू की वाणी, मीरा की ‘पदावली’ तथा ‘नरसीजी रो माहेरो’, रामचरण जी की ‘वाणी’ आदि संत साहित्य की अमूल्य धरोहर है।

(4) लोकेकेक साहित्य - लोक साहित्य में लोकगीत, लोकगाथाएँ, प्रेमगाथाएँ, लोकनाट्य, पहेलियाँ, फड़ें तथा कहावतें सम्मिलित है। राजस्थान में फड़ बहुत प्रसिद्ध है। फड़ चित्रण वस्त्र पर किया जाता है। जिसके माध्यय से किसी ऐतिहासिक घटना अथवा पौराणिक कथा का प्रस्तुतिकरण किया जाता है। फड़ में एक अधिकतर लोक देवताआंे यथा पाबूजी देवनारायण ने रामदेवजी इत्यादि के जीवन की घटनाआंे और चमत्कारksa का चित्रण होता है। फड़ का चारण भोपे करते हैं। राजस्थान में शाहपुरा (भीलवाड़ा) का फड़ चित्रण राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाये हुए है। भीलवाड़ा के श्रीलाल जोषी ने फड़ चित्रण को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में सहयोग किया। इस कार्य हेतु भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा है। इनमें पाबूजी री फड़, ‘देवजी री फड़’ तीज, गणगौर, शादी, संस्कारांे, मेलांे पर गाये जाने वाले लोकगीत आते है।

Sunday 17 August 2014

राजस्थान की भाषा


राजस्थान की भाषा




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राजस्थान की भाषा

१.     ‘राजस्थानी भाषा’ शब्द का पहली बार आधिकारिक रूप से प्रयोग जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया था. उन्होंने १९१२ में अपने संग्रह- ‘भारत का भाषाई सर्वेक्षण’ में इसका जिक्र किया था. भाषाविद ग्रियर्सन ने राजस्थान की भाषा को क्षेत्रवार कितनी बोलियों में वर्गीकृत किया था ?

क.     तीन   ख.चार   ग. पांच   घ. छः

२.     पूर्वी राजस्थान में साहित्य की रचना अधिकतर राजस्थानी भाषा की पिंगल शैली में हुई है. पिंगल पर सबसे अधिक प्रभाव किस भाषा का पड़ा है ?

क.     मालवी  ख. संस्कृत  ग. ब्रज  घ. हरयाणवी

३.     खैराड़ी बोली किस क्षेत्र की पहचान है ?

क.     बाड़मेर  ख. अलवर  ग. डूंगरपुर  घ. टोंक

४.     शासकों या आम लोगों के नए क्षेत्रों में जाने पर उनकी भाषा भी साथ साथ गए बिना नहीं रहती. स्थानीय बोली को बाहर से आयी बोली थोडा सा बदल ही देती है. मालवी और मारवाड़ी भाषाओँ के मिश्रण को आप किस बोली में देखते हैं ?

क.     मेवाती  ख. रांगड़ी  ग. निमाड़ी  घ. हाड़ौती

५.     मारवाड़ी को ‘मरुभाषा’ किस ग्रन्थ में कहा गया है ?

क.     कुवलयमाला  ख. पृथ्वीराज विजय  ग.भरतेश्वर बाहुबली घोर घ. नागर समुच्चय

६.     ११ वीं सदी से वर्तमान राजस्थान प्रदेश की भाषा के दर्शन होने शुरू हो गए थे. अपभ्रंश और बाद में अन्य भाषाओँ से अलग होने में सदियाँ गुजर गयीं. राजस्थानी भाषा का स्वर्णकाल आया इस अवधि में –

क.     १२५० से १३५० ई. में  ख. १४०० से १५०० ई. में  ग. १५०० से १६५० में घ. १६५० से १८५० में

७.      जयपुर, टोंक और अजमेर के आपस में लगते भागों में ढूंढाड़ नदी की के दोनों तरफ की बोली को ढूंढाड़ी कहते हैं. लेकिन जयपुर के शाहपुरा क्षेत्र में यह बोली भी एक बदला सा रूप ले लेती है, जिसे कहते हैं-

क.     चौरासी  ख. राजावाटी  ग. नागरचोल  घ. काठेडी

८.     नागर अपभ्रंश से राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति बताने वाले विद्वान थे-

क.     तेस्सितोरी  ख. मोतीलाल मेनारिया  ग. ग्रियर्सन  घ. के एम मुंशी

९.     ग्रियर्सन के अनुसार राजस्थान के मध्य-पूर्वी क्षेत्र की बोली है-

क.     अहीरवाटी  ख. तौरावाटी  ग. हाडौती  घ. निमाड़ी

१०. ‘एक माखिचूस के पे कुछ माल मतो हो’ वाक्य किस राजस्थानी बोली का है ?

क.     मारवाड़ी  ख. मेवाड़ी  ग. मेवाती  घ. हाड़ौती