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Monday 18 August 2014

राजस्थान की होली

राजस्थान की होली



Teju jani143




राजस्थान के विभिन्न इलाकों में होली मनाने का अलग और खास अंदाज है। होली के मौके पर जानिए राज्य की होली से जुडी अनूठी परंपराओं के बारे में।


लट्ठमार होली


भरतपुर के ब्रजांचल में फाल्गुन का आगमन कोई साधारण बात नहीं है। यहां की वनिताएं इसके आते ही गा उठतीं हैं "सखी री भागन ते फागुन आयौ, मैं तो खेलूंगी श्याम संग फाग।" ब्रज के लोकगायन के लिए कवि ने कहा है "कंकड" हूं जहां कांकुरी है रहे, संकर हूं कि लगै जहं तारी, झूठे लगे जहं वेद-पुराण और मीठे लगे रसिया रसगारी।" यह रसिया ब्रज की धरोहर है, जिनमें नायक ब्रजराज कृष्ण और नायिका ब्रजेश्वरी राधा को लेकर ह्वदय के अंतरतम की भावना और उसके तार छेडे जाते हैं। गांव की चौपालों पर ब्रजवासी ग्रामीण अपने लोकवाद्य "बम" के साथ अपने ढप, ढोल और झांझ बजाते हुए रसिया गाते हैं। डीग क्षेत्र ब्रज का ह्वदय है, यहां की ग्रामीण महिलाएं अपने सिर पर भारी भरकम चरकुला रखकर उस पर जलते दीपकों के साथ नृत्य करती हैं। संपूर्ण ब्रज में इस तरह आनंद की अमृत वर्षा होती है। यह परंपरा ब्रज की धरोहर है। रियासती जमाने में भरतपुर के ब्रज अनुरागी राजाओं ने यहां सर्वसाधारण जनता के सामने स्वांगों की परंपरा को संरक्षण दिया। दामोदर जैसे गायकों के रसिक आज भी भरतपुर के लोगों की जबान पर हैं जिनमें शृंगार के साथ ही अध्यात्म की धारा बहती थी। बरसाने, नंदगांव, कामां, डीग आदि स्थानों पर ब्रज की लट्ठमार होली की परंपरा आज भी यहां की संस्कृति को पुष्ट करती है। चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा भी प्रसिद्ध है। 

गेर नृत्य 


पाली के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन लगते ही गेर नृत्य शुरू हो जाता है। वहीं यह नृत्य डंका पंचमी से भी शुरू होता है। फाल्गुन के पूरे महीने रात में चौहटों पर ढोल और चंग की थाप पर गेर नृत्य किया जाता है। मारवाड गोडवाड इलाके में डांडी गैर नृत्य बहुत होता है और यह नृत्य इस इलाके में खासा लोकप्रिय है। यहां फाग गीत के साथ गालियां भी गाई जाती हैं। 

मुर्दे की सवारी 


मेवाड अंचल के भीलवाडा जिले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लट्ठमार होली का अपना एक अलग ही मजा रहा है। माहेश्वरी समाज के स्त्री-पुरूष यह होली खेलते हैं। डोलचियों में पानी भरकर पुरूष महिलाओं पर डालते हैं और महिलाएं लाठियों से उन्हें पीटती हैं। पिछले पांच साल से यह परंपरा कम ही देखने को मिलती है। यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है, वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौडगढ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है। इसमें लकडी की सीढी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाजार में निकालते हैं। इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं। लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं। 

चंग-गींदड 


फाल्गुन शुरू होते ही शेखावाटी में होली का हुडदंग शुरू हो जाता है। हर मोहल्ले में चंग पार्टी होती है। होली के एक पखवाडे पहले गींदड शुरू हो जाता है। जगह- जगह भांग घुटती है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते हैं। जबकि, शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी है। परिवार में बच्चे के जन्म होने पर उसका ननिहाल पक्ष और बुआ कपडे और खिलौने होली पर बच्चे को देते हैं। 

तणी काटना 


बीकानेर क्षेत्र में भी होली मनाने का खास अंदाज है। यहां रम्मतें, अनूठे फागणियां, फुटबाल मैच, तणी काटने और पानी डोलची का खेल होली के दिन के खास आयोजन हैं। रम्मतों में खुले मंच पर विभिन्न कथानकों और किरदारों का अभिनय होता है। रम्मतों में शामिल होता है हास्य, अभिनय, होली ठिठोली, मौजमस्ती और साथ ही एक संदेश। 

कोडे वाली होली 


श्रीगंगानगर में भी होली मनाने का खास अंदाज है। यहां देवर भाभी के बीच कोडे वाली होली काफी चर्चित रही है। होली पर देवर- भाभी को रंगने का प्रयास करते हैं और भाभी-देवर की पीठ पर कोडे मारती है। इस मौके पर देवर- भाभी से नेग भी मांगते हैं।

बीकानेर की डोलचीमार होली : पानी की मार में होली की मस्ती

बीकानेर की डोलचीमार होली : पानी की मार में होली की मस्ती 



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होली भारत का एक प्रमुख त्यौहार है। बसंत ऋतु के आगमन पर बसंत का स्वागत करने के लिए रंगों का त्यौहार होली पूरे देश   में उल्लास व उमंग के साथ मनाया जाता है। होली के अवसर पर विभिन्न शहरों  में कईं तरह के आयोजन किए जाते हैं। इसी तरह राजस्थान के बीकानेर शहर   में होली का त्यौहार परम्पराओं के निर्वहन के साथ मनाया जाता है। परम्पराओं के शहर   बीकानेर में लोग होली को पारम्परिक अंदाज में  मनाते हैं। इन्हीं परम्पराओं के अनुसरण में बीकानेर के पुष्करणा ब्राह्मण समाज के हर्ष   व व्यास जाति के लोगों के बीच डोलचीमार होली का आयोजन किया जाता है। वैसे तो बीकानेर में होली से आठ दिन पहले होलाकष्टक के साथ ही होली के आयोजनों की शुरूआत हो जाती है लेकिन होली से चार दिन पहले डोलचीमार होली का यह खेल काफी प्रसिद्ध है। इसे देखने के लिए दूर दूर से लोग आते हैं और होली की इस मस्ती का आनंद उठाते हैं। आईए जानते हैं कि क्यो और कैसे मनाया जाता है यह आयोजन -
हम इस आयोजन के बारे में जानने से पहले इस आयोजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर एक नजर डालेंगे। एक समय था जब बीकानेर में यह कहावत प्रचलित थी कि गढ़ में बीका और शहर  में कीका। मतलब यह कि बीकानेर के गढ़ में राजा बीकाजी का कहा चलता था और शहर में पुष्करणा समाज की जाति कीकाणी व्यासों का कहा माना जाता था। पुष्करणा  समाज के जातिय प्रतिनिधि के तौर पर कीकाणी व्यास पंचायत को पूरे पुष्करणा समाज का नेतृत्व करने का दायित्व था और उन्हे उस समय धड़पति कहा जाता था। कीकाणी व्यास पंचायत के लोग ही पुष्करणा  समाज के अन्य जातियों के शादी   विवाह सहित मृत्युभोज आयोजन की स्वीकृति देते थे। इन आयोजनों की स्वीकृति लेने के लिए जिस घर में काम पड़ता था उसे कीकाणी व्यास पंचायत के लोगों के पास जाना पड़ता था और कीकाणी व्यासों के चौक में बैठकर यह पंचायती के लोग सामाजिक स्वीकृति देते थे तभी वह आयोजन संभव हो पाता था। ऐसी सामाजिक स्वीकृति ‘दूआ’ कहा जाता था और कीकाणी व्यासों के चौक में आज भी वह ‘दुए की चौकी’ विद्यमान है जिस पर बैठकर समाज के पंच संबंधित फैसला करते थे। इसी क्रम में पुष्करणा  समाज के आचार्य जाति के लोगों के यहॉं किसी की मौत हो गई और उन्हें कीकाणी व्यासों के पास दूआ लेने के लिए जाना पड़ा। जिस समय आचार्य जाति के लोग दूआ लेने गए उस समय कीकाणी व्यास पंचायती के लोग चौक में उपस्थित नहीं थे और इस कारण आचार्यों को काफी इंतजार करना पड़ा। इस इंतजार से ये लोग परेशान  हो गए लेकिन करते भी क्या सामाजिक स्वीकृति लेनी जरूरी थी और बिना इसके कोई आयोजन संभव नहीं था। बाद में लम्बे इंतजार के बाद कीकाणी व्यास पंचायत के लोग आए तो आचार्यों को दूआ दे दिया। लेकिन अपने लम्बे इंतजार करवाने के अपमान के कारण आचार्यौं ने कीकाणी व्यासों के सामने आपत्ति दर्ज करवाई जिसे कीकाणी व्यास पंचायत ने गौर नहीं किया। इस पर आचार्य जाति के लोगों ने गुस्से में यह कह दिया कि अगर अगली बार हम आपके यहॉं दूआ लेने आए तो हम गुलामों के जाए जन्मे होंगे और ऐसा कहकर वे चले आए। कुछ समय बाद इन्हीं आचार्य जाति के लोगों के फिर काम पड़ा और उन्हें फिर से उसी कीकाणी व्यास पंचायत के पास जाना पड़ा। जब ये लोग कीकाणी व्यासों के चौक में पहुंचे तो कीकाणी व्यासों ने अपनी छत पर जाकर थाली बजाई और कहा कि आज हमारे गुलामों के बेटा हुआ है और हमारे चौक में आया है। आचार्य जाति के लोग अपने इस घोर अपमान को सहन नहीं कर सके और बिना दूआ लिए ही वापस रवाना हो गए। रास्ते मे हर्षों   के चौक में इन आचार्य जाति के लोगों का ननिहाल था। जब इन हर्ष  जाति के लोगों को यह बात पता चली तो इन्होंने अपने भांजों की इज्जत रखने के लिए कहा कि आप चिंता न करें आपके यहॉं होने वाले भोज का आयोजन हम करवा देंगे और समाज के लोगों को बुला भी लेगे।
चूंकि हर्ष  जाति के लोग साधन सम्पन्न व धनिक थे । अतः समाज के एक वर्ग उनके साथ भी था। जैसा की वर्तमान में भी देखने को मिलता है कि कुछ लोग पेसे वालों के साथ होते हैं तो कुछ लोग पावरफुल व्यक्तियों के साथ, वैसा ही कुछ उस समय भी था कि कुछ लोग हर्ष  जाति के साथ भी थे लेकिन ज्यादातर लोगों का साथ व्यास जाति के साथ ही था। खैर जैसा भी हो हर्ष  जाति के लोगों ने अपने नातिनों की भोज की व्यवस्था की जिम्मेदारी संभाली और वर्तमान में बीकानेर में जहॉं हर्षों   का चौक है उसमें स्थित गेवर गली में बड़े बड़े माटों में लापसी बनाने के लिए गाल बनाकर रख ली और भोज के आयोजन की सारी तैयारियॉं कर ली। जब कीकाणी व्यास पंचायती को यह पता लगा तो उन्हें यह सहन नहीं हुआ और उन्होंने रात के समय छिप कर इन माटों में पड़ी गाल को गिरा दिया और माटे फोड़ दिए। इस बात को लेकर हर्ष  व व्यास जाति के लोगों के बीच जातीय संघर्ष  हुआ और आपस में लड़ाई हुई और यह विवाद काफी गहराया। उस समय पूरे पुष्करणा  समाज में दो गुट बन गए जिसमें कुछ लोग हर्ष जाति के साथ हो गए और कुछ व्यास जाति के साथ। लम्बे संघर्ष  के बाद इन जातियों में समझौता हुआ और हर्ष  व व्यास जाति के लोगों के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित  हुए।
इसी जातीय संघर्ष   की याद में उसी गेवर गली के आगे आज भी होली के अवसर पर हर्ष  व व्यास जाति के लोग डोलची होली खेलते हैं। इसमें आचार्य जाति के लोग हर्ष जाति के साथ होते हैं और बाकी लोग व्यास जाति के साथ।
इस खेल में चमड़े की बनी डोलची होती है जिसमें पानी भरा जाता है और यह पानी हर्ष  व व्यास जाति के लोग एक दूसरे की पीठ पर पूरी ताकत के साथ फेंकते हैं। पानी का वार इतना तेज होता है कि पीठ पर निशान   बन जाते हैं। इस खेल को हर्षों  के चौक में हर्षों  की ढ़लान पर खेला जाता है। पानी डालने के लिए बड़े बड़े कड़ाव यहॉं रखे जाते हैं। खेल के प्रारम्भ होने से पहले इस स्थल पर अखाड़े की पूजा होती है और खेल में हिस्सा लेने वाले लोगों के तिलक लगाया जाता है। यहॉं यह बता देना जरूरी है कि व्यास जाति के लोगो द्वारा खेल से एक दिन पहले गेवर का आयोजन किया जाता है जो कीकाणी व्यासों के चौक से रवाना होती है और तेलीवाड़ा में स्थित भक्तों की गली तक जाकर आती है। यहॉं ये लोग अपने खेल के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं और होली के गीत गाते हुए मस्ती व उल्लास के साथ जाते हैं। अगले दिन इसमें खेल की शुरूआत व्यास जाति के लोगों के आने के साथ होती है और यहॉं पानी की व्यवस्था हर्ष  जाति के लोगों द्वारा की जाती है। करीब तीन घण्टे तक इस खेल में पानी का वार चलता रहता है और अंत में हर्ष  जाति के लोग गुलाल उछालकर खेल के समापन की घोषणा  करते हैं। समापन के साथ ही गेवर गली के आगे खड़े होकर ये लोग होली के गीत गाते हैं और अपनी अपनी विजय की घोषणा   कर प्रेमपूर्वक होली मनाते हैं। परम्पराओं के निर्वहन में आज भी बीकानेर के लोग पीछे नहीं है और यह आयोजन सैकड़ों सालों बाद भी पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। बाद में शाम   के समय इसी दिन हर्ष  जाति के लोग हर्शोल्लाव   तलाब स्थित अपने कुलदेव अमरेश्वर   महादेव की पूजा करते हैं और गेवर के रूप में गीत गाते हुए अपने घरों की ओर आते हैं। आज भी इन जातियों के लोग अपनी परम्पराओं से गहरे तक जुड़े हैं। इस दिन इस चौक से जाने वाला प्रत्येक व्यक्ति भीग कर ही जाता है। आप यहॉं से सूखे नहीं निकल सकते। अगर आपको भी होली की इस मस्ती में भीगना है तो इस बार सत्रह मार्च को चले आईए बीकानेर आपका स्वागत है:-

राजस्थान के बाड़मेर में ग्रामीण पर्यटन

राजस्थान के बाड़मेर में ग्रामीण पर्यटन






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            पर्यटन के लिहाज से लगभग अछूते राजस्थान के मरूस्थलीय जिले बाड़मेर में ग्रामीण पर्यटन की व्यापक संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं। यहां का हस्तशिल्पसंस्कृतिपरम्परागत खान-पान और रेत के टीलों पर लोकसंगीत के स्वर ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को सम्बल प्रदान कर सकते हैं। पानी की कमी यातायात के साधनों का अभाव एवं कठोर जीवन शैली के चलते तीन चार दशक पहले भले ही इस क्षेत्र की ओर कोई झांकता तक नहीं थालेकिन हाल के वर्षों में बिजलीकोयलापेट्रोलियम संसाधनों की उपलब्धता तथा सौर एवं पवन ऊर्जा ने यहां का कायाकल्प कर दिया है। पानी का संकट भी पहले जैसा अब नहीं है। बालू रेत के सुनहरे टीलों पर जैसलमेर एवं बीकानेर के साथ-साथ बाड़मेर में भी आनन्द लिया जा सकता है।
       गर्मियों के मौसम में यह स्थान पर्यटन के लिये भले ही आह्लादकारी न होलेकिन सर्दियों की छुट्टियां एवं नववर्ष के स्वागत के लिहाज से यह जगह अतिउत्तम कही जा सकती है। दिसम्बर में पड़ोसी जिले जैसलमेर में पर्यटकों की भरमार रहती है। विदेशी एवं देशी पर्यटक नया साल मनाने यहां आते हैं। इसके चलते होटलों में ठहरना महंगा हो जाता है। रेस्टोरेन्ट में ढंग का खाना भी नहीं मिलता तथा पर्याप्त सुविधाएं भी मुहैया नहीं हो पाती। ऐसे में बाड़मेर में राष्ट्रीय राजमार्ग 15 के समीप हाथीतला में रेत के टीलों का पर्यटक आनन्द उठा सकते हैं। जरूरत है थोड़ा सा इसे प्रचारित करने की।
लोकसंगीत एवं नृत्य

      देश विदेश में थार के संगीत को प्रसिद्धी दिलाने वाले यहां के लंगा मंगणियार अपनी कला का जादू बिखेर गृह जिले को पर्यटन के मानचित्र पर बखूबी स्थापित करने में सक्षम हैं। कमायचारावण हत्थाखडतालमोरचंग जैसे अनेक वाद्ययंत्रों में महारथ प्राप्त कलाकार सुनहरी रेत पर अपने संगीत की स्वरलहरियां बिखेरते हैंतो अनायास हर किसी के मुंह से वाह-वाह निकल पड़ता है। ऐसा ही आकर्षण भवाईगेरतेरहताली नृत्य अपने आप में समेटे हुये हैं,जो दर्शकों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर देते हैं।

देसी खान-पान

      ब्रेकफास्ट लंच डिनर के लिये जैविक उत्पादों से तैयार खाद्य पदार्थों की यहां कोई कमी नहीं है। यहां के पानी में पकने वाली मूंग की दालकेर-सांगरीदेसी ग्वारफलीकुंमटिया एवं काचरे को मिलाकर तैयार पचकूटे की सब्जी,देसी बाजरे के खिचड़े का लजीज स्वाद अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। यदि पर्यटकों की संख्या बढ़ेगीतो प्रायः लुप्त हो रही देसी बाजरी का बीज भी बच जायेगा। उल्लेखनीय है कि संकर बाजरे के मुकाबले देसी बाजरी वजन में हल्की होने से प्रति हैक्टेयर उत्पादन कम होने के कारण किसान खुद के खाने के लिये ही इसका उत्पादन करते हैंजबकि बाजार में बेचने के लिये संकर बाजरे की पैदावार करते हैं। सही मायने में स्वर्णिम रंग वाली देसी बाजरी ही स्वादिष्ट होती है।

हस्तशिल्प

      बरसों पूर्व यहां की महिलाएं खाली समय गुजारने के लिये कशीदाकारी और कपड़े पर बंधेज का काम करती थीं। वह आज शहरी एवं ग्रामीण महिलाओं का रोजगार बन गया है। फैशनेबल कांच कशीदाकुशन कवरपेच वर्क युक्त बेडशीट की सम्पन्न लोगों में भारी मांग है। जिले में इस काम में महिला स्वयं सहायता समूह अच्छा कार्य कर रही हैं। जिले के चैहटनधोरीमना एवं सीमावर्ती छोटे-छोटे गांवों में महिलाएं कपड़े पर कांच लगाकर उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन करती हैं। यहां का नेहरू युवा केन्द्र भी कलाकारों एवं शिल्पकारों को आगे लाने में पूरा सहयोग कर रहा है। यहां के कारीगरों की हाथ की छपाई अजरखमलीरघाबूघोणसार आदि आज सम्पूर्ण देश में बाडमेर प्रिंट के नाम से प्रसिद्ध है। जबकि ऊंट एवं भेड़ों की ऊन से निर्मित दरीजिरोईकालीनशॉलपट्टू का कोई मुकाबला नहीं। पर्यटकों की आवाजाही से हस्तशिप को बढावा मिल रहा है।

पुरातत्व

      इतिहास में रूचि रखने वाले पर्यटकों के लिये बाड़मेर जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर 12वीं शताब्दी में निर्मित जूना व किराडू के मंदिर हैं। हालांकि यह मंदिर जीर्ण अवस्था में हैलेकिन खम्भोंदीवारों एवं मेहराबों पर उकेरी मूर्तियां बुलंदी की गाथा स्वयं बयां करती हैं। जबकि बाड़मेर से करीब 90 किलोमीटर दूर देवका में पीले एवं लाल पत्थरों से निर्मित सूर्य मंदिर शानदार नक्काशी और वास्तु कला का अद्भुत नमूना हैजिसके गर्भगृह में उगते सूर्य की पहली किरण पड़ती है। यह खगोलीय ज्ञान का सुंदर उदाहरण है।
      आवागमन के लिये दिल्ली से जोधपुर होते हुये एवं गुजरात की ओर से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 15 से बाड़मेर पहुंचा जा सकता है। शहर में एक दर्जन अच्छे होटल भी हैं। इनमें दो तीन में तीनसितारा होटलों जैसी सुविधाओं भी हैं। कुल मिलाकर सरकार की ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देने वाली योजनाओं को सफलता पूर्वक क्रियान्वित कर यहां के ग्रामीणों का जीवन स्तर सुधारा जा सकता है।

राजस्थान: भौगोलिक उपनाम / Rajasthan: Geographical Nicknames

राजस्थान: भौगोलिक उपनाम / Rajasthan: Geographical Nicknames






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अभ्रक की मंडी - भीलवाड़ा

आदिवासियों का शहर - बांसवाड़ा

अन्न का कटोरा - श्री गंगानगर

औजारों का शहर - नागौर

आइसलैंड आॅफ ग्लोरी/रंग श्री द्वीप - जयपुर

उद्यानों/बगीचों का शहर - केाटा

ऊन का घर - बीकानेर

ख्वाजा की नगरी - अजमेर

गलियों का शहर - जैसलमेर

गुलाबी नगरी - जयपुर

घंटियों का शहर - झालरापाटन

छोटी काशी/दूसरी काशी - बूंदी

जलमहलों की नगरी - डीग

झीलों की नगरी - उदयपुर

वस्त्र नगरी - भीलवाड़ा

थार का घड़ा - चंदन नलकूप, जैसलमेर

थार का कल्पवृक्ष - खेजड़ी

देवताओं की उपनगरी - पुष्कर

नवाबों का शहर - टोंक

पूर्व का पेरिस/भारत का पेरिस - जयपुर

पूर्व का वेनिस - उदयपुर

पहाड़ों की नगरी - डूंगरपुर

भक्ति/शक्ति व साधना की नगरी - मेड़ता सिटी

मूर्तियों का खजाना - तिमनगढ, करौली

मरूस्थल की शोभा/मरू शोभा - रोहिड़ा

राजस्थान की मरू नगरी - बीकानेर

राजस्थान का हदृय/दिल - अजमेर

राजस्थान का गौरव - चितौड़गढ

राजस्थान का प्रवेश द्वार (गेटवे आॅफ राज.) - भरतपुर

राजस्थान का सिंह द्वार - अलवर

राजस्थान का अन्न भंडार - गंगानगर

राजस्थान की स्वर्ण नगरी (गोल्ड सिटी) - जैसलमेर

राजस्थान की शैक्षिक राजधानी - अजमेर

राजस्थान का कश्मीर - उदयपुर

राजस्थान का काउंटर मैगनेट - अलवर

राजस्थान की मरूगंगा - इंदिरा गांधी नहर

पश्चिम राजस्थान की गंगा - लूनी नदी

राजस्थान की मोनालिसा - बणी-ठणी

रेगिस्तान का सागवान - रोहिड़ा

राजस्थान का खजुराहो - किराडू

राजस्थान का मिनी खजुराहो - भंडदेवरा

हाड़ौती का खजुराहो - भंडदेवरा

मेवाड़ का खजुराहो - जगत

राजस्थान का कानपुर - कोटा

राजस्थान का नागपुर - झालावाड़

राजस्थान का राजकोट - लूणकरणसर

राजस्थान का स्काॅटलेंड - अलवर

राजस्थान का नंदनकानन - सिलीसेढ झील, अलवर

राजस्थान की धातुनगरी - नागौर

राजस्थान का आधुनिक विकास तीर्थ - सूरतगढ

राजस्थान का पंजाब - सांचैर

राजस्थान की अणु नगरी - रावतभाटा

राजस्थान का हरिद्वार - मातृकंुडिया, चितौड़गढ

राजस्थान का अंडमान - जैसलमेर

रेगिस्तान/मरूस्थल का गुलाब - जैसलमेर

राजपूताना की कूंजी - अजमेर

राजस्थान का नाका/मुहाना - अजमेर

राजस्थान का मैनचेस्टर - भीलवाड़ा

राजस्थान का नवीन मैनचेस्टर - भिवाड़ी

➲ राजस्थान का जिब्राल्टर - तारागढ, अजमेर

राजस्थान का ताजमहल - जसवंतथड़ा, जोधपुर

राजस्थान का भुवनेश्वर - ओसियां

राजस्थान की साल्ट सिटी - सांभर

राजस्थान की न्यायिक राजधानी - जोधपुर

राजस्थान का चेरापूंजी - झालावाड़

राजस्थान का ऐलोरा - केालवी, झालावाड़

राजस्थान का जलियावाला बाग - मानगढ, बांसवाड़ा

राजस्थान का शिमला - मा. आबू

राजस्थान का पूर्वीद्वार - धौलपुर

रत्न नगरी - जयपुर

वराह नगरी - बारां

वर्तमान नालंदा - कोटा

लव-कुश की नगरी - सीताबाड़ी, बारां

शिक्षा का तीर्थ स्थल/शैक्षिक नगरी - कोटा

समस्त तीर्थस्थलों का भांजा - मचकुंड, धौलपुर

सूर्य नगरी (सन सिटी आॅफ राजस्थान) - जोधपुर

सुनहरा त्रिकोण - दिल्ली-आगरा-जयपुर

मरू त्रिकोण - जोधपुर-जैसलमेर-बीकानेर

सौ द्विपों का शहर - बांसवाड़ा

हेरिटेज सिटी - झालरापाटन

हरिण्यकश्यप की राजधानी - हिंडौनसिटी

हवेलियों का शहर - जैसलमेर

पीले पत्थरों का शहर - जैसलमेर

सैलानी नगरी - जैसलमेर

भारत का मक्का - अजमेर

प्राचीन राजस्थान का टाटानगर - रेढ , टोंक

स्वतंत्रता प्रेमियों का तीर्थ स्थल - हल्दीघाटी

भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष - विजय स्तंभ

म्यूजियम सिटी - जैसलमेर

मरूस्थल का प्रवेश द्वार - जोधपुर

बावड़ियों का शहर (सिटी आॅफ स्टेप वेल्स)- बूंदी

पूर्वी राजस्थान का कश्मीर - अलवर

पत्थरों का शहर - जोधपुर

ब्ल्यू सिटी (नीली नगरी) - जोधपुर

मारवाड़ का लघु मा. आबू - पीपलूद, बाड़मेर

भारतीय बाघों का घर - रणथंभौर

ग्रेनाइट सिटी - जालौर

मारवाड़ का सागवान - रोहिड़ा

पहाड़ों की रानी - डूंगरपुर

पानी,पत्थर व पहाड़ों की पुरी - उदयपुर

भक्ति व शक्ति की नगरी - चितौड़गढ

महाराजा रंतिदेव की नगरी - केशोरायपाटन

काॅटन सिटी - सूरतगढ

राजस्थान की संतरा नगरी - झालावाड़

राजस्थान की वस्त्र नगरी - भीलवाड़ा

रेड डायमंड (लाल हीरा) - धौलपुर

मारवाड़ का अमृत सरोवर - जवाई बांध

फाउंटेन व मांउटेन का शहर - उदयपुर

मेवाड़ का हरिद्वार - मातृकुंडिया

राजस्थान: पशुधन / Rajasthan: Livestock

राजस्थान: पशुधन / Rajasthan: Livestock 








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गाय



दुग्ध व्यवसाय के लिए अत्यंत उपयोगी गाय की वह नस्ल जो लालसिंधि व साहीवाल की मिश्रित नस्ल है - राठी

थारपरकर नस्ल की गायें मूलतः बाड़मेर जिले से संबंधित है।

थारपारकर नस्ल स्थानीय भागों में मालाणी नस्ल के नाम से भी जानी जाती है।

गाय की प्रमुख नस्ले:- कांकरेज (सांचैरी), मालवी, थारपारकर (मालाणी), हरियाणवी, राठी, साहीवाल, लालसिंधि, गिर (रेंडा/अजमेरा), नागौरी, मेवाती (कोठी)

नागौरी बैलों का उत्पति स्थल नागौर का समीपवर्ती सुहालक क्षेत्र माना जाता है।

राजस्थान की कामधेनु के रूप में प्रसिद्ध राठी नस्ल गाय की सर्वश्रेष्ठ नस्ल मानी जाती है।

बैलों की सर्वोतम नस्ल है - नागौरी

राठी नस्ल की गायें मुख्यतः किन किन जिलों में पाई जाती है - गंगानगर-बीकानेर-जैसलमेर

बाड़मेर जिले का मालाणी क्षेत्र में गाय की किस नस्ल की उत्पति स्थल के रूप में प्रसिद्ध क्षेत्र है - थारपारकर

गाय की गीर नस्ल के अन्य नाम - रेंडा/अजमेरा

राजस्थान में पाई जाने वाली गाय की वह नस्ल जो सर्वाधिक दूध देती है - राठी

बोझा ढोने व तेज चलने के लिए प्रसिद्ध गाय नस्ल - कांकरेज

गाय की वे दो नस्ले जो केवल बैलों के लिए पाली जाती है/बैलों हेतु सर्वाधिक प्रसिद्ध दो नस्लें - नागौरी-मालवी

केवल दूध उत्पादन हेतु प्रसिद्ध गाय की दो नस्लें - राठी-गीर

गाय की वह नस्ल जो द्विप्रयोजनार्थ (दूध एवं बैल दोनों हेतु) प्रसिद्ध है - थारपारकर

नागौर नस्ल के बैल कृषि कार्य हेतु सर्वोतम माने जाते है।

राजस्थान के उतरी-पश्चिमी मरूस्थलीय प्रदेश में पायी जाने वाली गाय की दो मुख्य नस्लें - राठी व थारपारकर

नस्ल - उत्पति स्थल - क्षेत्र
  • नागौरी - नागौर का समीपवर्ती सुहालक क्षेत्र - नागौर
  • थारपारकर - बाड़मेर का मालाणी क्षेत्र - बाड़मेर-जोधपुर-जैसलमेर
  • कांकरेज - जालोर का सांचैर क्षेत्र - जालौर-सिरोही-पाली-बाड़मेर (द.प. राजस्थान)
  • मालवी - झालावाड़ का मालवी क्षेत्र - झालावाड़-कोटा
  • गीर/अजमेरा/रेंडा - मेवाती
  • राठी - अजमेर-पाली-भीलवाड़ा
  • अलवर-भरतपुर - गंगानगर-बीकानेर-जैसलमेर

भैंस


भैंस की प्रमुख नस्लें:- मुर्रा (खुंडी), भदावरी, सूरती, महेसाना, नागपुरी, मुरादाबादी, जमना, जाफरावादी

भैंस की सबसे श्रेष्ठ नस्ल - मुर्रा (खुंडी)

दक्षिण राजस्थान में पायी जाने वाली भैंस की एक प्रमुख नस्ल - जाफरावादी

सर्वाधिक दूध देने वाली भैंस की नस्ल - मुर्रा (खुंडी)

राजस्थान में मुख्य रूप से भैंस की मुर्रा-महेसाना-जाफरावादी-सूरती नस्लें पाई जाती है।

मुर्रा नस्ल की भैंस राजस्थान के किन-किन जिलों में पाई जाती है - जयपुर-अलवर-भरतपुर (पूर्वी राज.)

सिरोही व जालोर जिलों में पाई जाने वाली भैंस नस्ल - महेसाना

गुजरात के समीपवर्ती क्षेत्र (दक्षिण राज.) में पाई जाने वाली भैंस की नस्लें - जाफरावादी-सूरती

गाय दक्षिणी राजस्थान में जबकि भैंस पूर्वी राजस्थान में सर्वाधिक पाई जाती है।


भेंड़



भेंड़ों की सर्वाधिक संख्या वाले जिले - बाड़मेर-बीकानेर

राजस्थान में भेड़ की किस नस्ल से सर्वाधिक  ऊन प्राप्त होती है - जैसलमेरी

भेड़ की कौनसी नस्ल भारतीय मैरिनों कहलाती है - चौकला

किस नस्ल की भेड़ से सर्वाधिक लंबे रेशे की ऊन प्राप्त होती है - मगरा

सन् 1962 में केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान अविकानगर में स्थापित किया गया।

राजस्थान में किस नस्ल की भेड़ों की संख्या सर्वाधिक है - मारवाड़ी

भेड़ की द्विप्रयोजनीय नस्लें - सोनाड़ी-मालपुरा

सर्वाधिक दूध देने वाली भेड़ - सोनाड़ी

दक्षिण राजस्थान में पाई जाने वाली भेड़ की प्रमुख नस्ल - सोनाड़ी

अच्छी किस्म की मेरिनो ऊन के लिए प्रसिद्ध भेड़ - चौकला

उतरी राजस्थान में पायी जाने वाली प्रमुख भेड़ - नाली

क्राॅस ब्रीडिग के माध्यम से विकसित भेड़ नस्लें - चौकला-सोनाड़ी-मालवुरा

75 प्रतिशत काले व 25 सफेद मुंह वाली बागड़ी नस्ल की भेड़ किस जिले में पाई जाती है - अलवर

राजस्थान में भेड़ की वह नस्ल जिसकी ऊन सर्वोतम होती है - चौकला

लंबी दूरी तय करने व अधिक समय तक निरोग रहने के लिए प्रसिद्ध भेड़ नस्ल - मारवाड़ी

जैसलमेरी भेड़ की ऊन से गलीचे व मगरा भेड़ की ऊन से कालीन बनाए जाते है।

भारत की लगभग 25 प्रतिशत भेड़ें राजस्थान में पाई जाती है।

नस्ल - क्षेत्र
  • चौकला - चुरू-झुंझुनू-सीकर (शेखावाटी)
  • मगरा (बीकानेरी चैकला) - जैसलमेर-बाड़मेर-बीकानेर-नागौर-चुरू
  • जैसलमेरी - जैसलमेर-बाड़मेर-जोधपुर
  • नाली - गंगानगर-हनुमानगढ-चुरू-झुंझुनू
  • पूगल - बीकानेर-जैसलमेर
  • मालपुरा (देशी नस्ल) - अजमेर-टोंक-भीलवाड़ा
  • सोनाड़ी (चनोथर) - जोधपुर-नागौर-पाली के घुमक्कड़ रेवड़ों में
  • बागड़ी - अलवर

बकरी

राजस्थान में बकरी की प्रमुख नस्लें - शेखावाटी, मारवाड़ी, जमनापरी, बड़वारी, अलवरी (जखराना), सिरोही, लोही, झरवाड़ी

बकरी की किस नस्ल का विकास काजरी के वैज्ञानिकों ने किया - शेखावाटी

नागौर जिले का वह स्थान जहां की बकरियां प्रसिद्ध है - बगरू (वरूण)

राजस्थान में बकरी की वह नस्ल जो सर्वाधिक दूध देती है एवं बहरोड़ (अलवर) में पायी जाती है - जखराना (अलवरी)

बकरी की सर्वाधिक सुंदर नस्ल - बारबरी

किस नस्ल की बकरी के सींग नहीं होते है - शेखावाटी

राजस्थान में बकरी की सर्वश्रेष्ठ नस्ल एवं सर्वाधिक दूध देने वाली नस्ल - जखराना

बकरी की सर्वाधिक सुंदरता नस्ल वाली बारबरी किस क्षेत्र में पाई जाती है - पूर्वी राजस्थान

राजस्थान में संपूर्ण भारत की लगभग 28 प्रतिशत बकरियां पाई जाती है।

मांस उत्पादन के लिए बकरी की कौनसी नस्ल विशेष रूप से जानी जाती है - लोही

दूध उत्पादन के लिए बकरी की कौनसी नस्ल प्रसिद्ध है - झखराना

बकरी की परबतसर नस्ल हरियाणा की बीटल व राजस्थान की सिरोही नस्ल का मिश्रण है।

बरबरी नस्ल की बकरी पूर्वी राजस्थान में पाई जाती है।

भेड़ एवं बकरी दोनों में ही राजस्थान देश में दूसरा स्थान रखता है।

मांस उत्पादन के लिए बकरी की दो सर्वाधिक प्रसिद्ध नस्लें - लोही-मारवाड़ी



ऊंट

सन् 1984 में केंद्रीय ऊंट प्रजनन केंद्र कहां स्थापित किया गया - जोड़बीर (बीकानेर)

ऊंट पालन की दृष्टि से राजस्थान में देश में प्रथम स्थान है।

ऊंट पालक जाति - रेबारी

ऊंट पालन की दृष्टि में राजस्थान के दो प्रमुख जिले - बाड़मेर-बीकानेर

जैसलमेर जिले का वह स्थान जहां के ऊंट विश्वभर में प्रसिद्ध है - नाचना

सवारी की दृष्टि से किस स्थान का ऊंट सर्वश्रेष्ठ माना जाता है - गोमठ (फलौदी)

बोझा ढोने व तेज चलने के लिए ऊंट की सर्वश्रेष्ठ नस्ल है - बीकानेरी

नांचना का ऊंट जैसलमेर जिले में पाया जाता है।

राजस्थान में संपूर्ण भारत के 65-70 प्रतिशत ऊंट पाये जाते है।

राजस्थान में ऊंटों की सर्वाधिक संख्या पश्चिमी जिलों में है।

राजस्थान में पाई जाने वाली ऊंटों की नस्लें - जैसलमेरी-बीकानेरी (मुख्य)-कच्छी-सिंधी

कच्छी नस्ल का संबंध किस पशु से है - ऊंट

स्थान की दृष्टि से नाचना का ऊंट जबकि नस्ल की दृष्टि से कच्छी नस्ल का ऊंट सबसे अच्छा माना जाता है।

मतवाली चाल के लिए जैसलमेरी ऊंट प्रसिद्ध है।

भारत के 50 प्रतिशत ऊंट बीकानेरी नस्ल के है।

ऊंटों में होने वाला प्रमुख रोग - सर्रा (तिवरसा)

अन्य


बाड़मेर का मालानी क्षेत्र किस पशु की उपलब्धि के आधार पर अपनी विशिष्ट पहचान रखता है - घोड़ा

बाड़मेर जिले की सिवाना तहसील मालानी नस्ल के घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है।

घोड़ों की सर्वाधिक संख्या वाले दो जिले - बाड़मेर-जालोर

कुक्कुट (मुर्गी) पालन की दृष्टि से अग्रणी जिला है - अजमेर

मुर्गीपालन प्रशिक्षण संस्थान - अजमेर

राजस्थान का राज्य पशु चिंकारा (चैसिंगा हिरण) राजस्थान के किस भाग में सर्वाधिक पाया जाता है - दक्षिणी

बकरे व नागौरी बैलों के लिए नागौर जिले की परबतसर तहसील का बाजवास गांव प्रसिद्ध है।

राजस्थान का सबसे बड़ा ऊन उत्पादक जिला - जोधपुर

पशुधन की दृष्टि से राजस्थान का देश में दूसरा स्थान है।

सर्वाधिक पशु संख्या वाला जिला - बाड़मेर

सर्वाधिक पशु घनत्व वाला जिला - डूंगरपुर

पिछली पशु गणना - 2007 में

दुग्ध उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान के दो प्रमुख जिले - जयपुर-गंगानगर

राजस्थान में सर्वाधिक संख्या में पाया जाने वाला पशु है - बकरी

देश के कुल पशुधन का 11.2 प्रतिशत राजस्थान में है।

पश्चिमी राजस्थान में किस पशु पर आर्थिक निर्भरता सर्वाधिक है - भेड़

राजस्थान की अर्थव्यवस्था में पशुधन का योगदान है - लगभग 5 प्रतिशत

राजस्थान के मरूस्थली क्षेत्रों में लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत/साधन है - पशुपालन

केंद्रीय पशु प्रजनन केंद्र - सूरतगढ

केंद्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान - सूरतगढ

राजस्थान का एकमात्र पशु विज्ञान एवं चिकित्सा महाविद्यालय - बीकानेर

राजस्थान का एकमात्र दुग्ध विज्ञान एवं टेक्नाॅलोजी महाविद्यालय - उदयपुर

केंद्रीय ऊन विकास बोर्ड - जोधपुर

केंद्रीय ऊन विश्लेषण प्रयोगशाला - बीकानेर

शीप एंड वूल ट्रेनिंग संस्थान - जयपुर

एशिया की सबसे बड़ी ऊन मंडी - बीकानेर

राजस्थान देश के कुल दुग्ध उत्पादन का 9-10 प्रतिशत भाग उत्पादित कर तीसरे स्थान पर है।

ऊन उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान का सबसे अग्रणी जिला - जोधपुर

राजस्थान में ऊंटों की संख्या समस्त पशुधन संख्या का मात्र 1 प्रतिशत है।

राजस्थान में सर्वाधिक संख्या में पाये जाने वाले चार पशु (क्रमशः) - बकरी-गाय-भैंस-भेड़

समस्त राजस्थान की 65 प्रतिशत से अधिक भेंड़े व 80 प्रतिशत ऊंट उतरी व पश्चिमी राजस्थान में पाये जाते है।

किस पशु की दृष्टि से राजस्थान का देश में एकाधिकार है - ऊंट

गाय-भैंस-भेड़-बकरी की सर्वाधिक दूध देने वाली नस्लें - राठी-मुर्रा-सोनाड़ी-जखराना

पशु नस्ल के आधार पर राजस्थान को दस भागों में बांटा जा सकता है।

राजस्थान संपूर्ण देश की लगभग 40 प्रतिशत ऊन उत्पादित कर प्रथम स्थान पर है।