Monday, 18 August 2014

राजस्थान : सन् 1857

राजस्थान : सन् 1857 




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1857 के समय राजस्थान के कई राजपूत ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ थे। ये ब्रितानियों के शासन से संतुष्ट नहीं थे जिससे इनके मन में सरकार के खिलाफ़ क्रांति के बीज उत्पन्न होने लगे। इन लोगों के साथ आम जनता भी शामिल हो गई। राजस्थान के कई इलाकों में इस विद्रोह की ज्वाला भड़की थी जिनमें निम्न नाम उल्लेखनीय हैं।

नसीराबाद 
सबसे पहले नसीराबाद में इस विद्रोह की शुरू आत हुई थी। इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार ने अजमेर की 15वीं बंग़ाल इन्फ़ेन्ट्री को नसीराबाद भेज दिया था क्योंकि सरकार को इस पर विश्‍वास नहीं था। सरकार के इस निर्णय से सभी सैनिक नाराज हो गये थे और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ क्रांति का आगाज कर दिया। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार ने बम्बई के सैनिकों को नसीराबाद में बुलवाया और पूरी सेना की जंाच पड़ताल करने को कहा। ब्रिटिश सरकार ने नसीराबाद में कई तोपे तैयार करवाई। इससे भी नसीराबाद के सैनिक नाराज हो गये और उन्होंने विद्रोह कर दिया। सेना ने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया साथ ही साथ उनकी सम्पत्ति को भी नष्ट कर दिया। इन सैनिकों के साथ अन्य लोग भी शामिल हो गये।

नीमच 
नसीराबाद की घटना की खबर मिलते ही 3 जून 1857 को नीमच के विद्रोहियों ने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया। फ़लस्वरू प ब्रितानियों ने भी बदला लेने की योजना बनाई। उन्होंने 7 जून को नीमच पर अपना अधिकार कर लिया। बाद में विद्रोही राजस्थान के दूसरे इलाकों की तरफ़ बढ़ने लगे।

जोधपुर 
यहाँ के कुछ लोग राजा तख्त सिंह के शासन से रुष्ट थे। जिसके कारण एक दिन यहाँ के सैनिकों ने इनके खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। उनके साथ आउवा के ब्रिटिश विरोधी कुशाल सिंह भी थे। 
कुशाल सिंह का सामना करने के लिये लेफ़्टिनेंट हीथकोट के साथ जोधपुर की सेना आई थी लेकिन कुशाल सिंह ने इन को परास्त कर दिया। बाद में ब्रितानी सेना ने आउवा के किले पर आक्रमण किया लेकिन उनको भी हार का मुँह देखना पड़ा लेकिन ब्रिगेडियर होम्स उस पराजय का बदला लेना चाहता था इसलिये उसने आउवा पर आक्रमण किया अब कुशाल सिंह ने किले को छोड़ दिया और सलुम्बर चले गये। कुछ दिनों बाद ब्रितानियों ने आउवा पर अधिकार कर लिया और वहा आतंक फ़ैलाया ।

मेवाड़ 
मेवाड़ के सामंत ब्रितानियों व महाराणा से नाराज थे। इन सामन्तों में आपसी फ़ूट भी थी । महाराणा ने मेवाड़ के सामन्तों को ब्रितानियों की सहायता करने की आज्ञा दी। इसी समय सलुम्बर के रावत केसरी सिंह ने उदयपुर के महाराणा को चेतावनी दी कि यदि आठ दिन में उनके परम्पराग़त अधिकार को स्वीकार न किया गया तो वह उनके प्रतिद्वंदी को मेवाड़ का शासक बना देंगे। सलुम्बर के रावत केसरी सिंह ने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह को अपने यहा यहा शरण दी। इसी समय तांत्या टोपे ने राजपूताने की ओर कूच किया। 1859 में नरवर के मान सिंह ने उसके साथ धोखा किया और उसे गिरफ़्तार कर लिया। यद्यपि सामंतों ने प्रत्यक्ष रू प से ब्रिटिश सरकार का विद्रोह नहीं किया परन्तु विद्रोहियों को शरण देकर इस क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कोटा 
ब्रिटिश अधिकारी मेजर बर्टन ने कोटा के महाराजा को बताया यहां के दो चार ब्रिटिश विरोधी अधिकारियों को ब्रिटिश सरकार को सौंप देना चाहिये। लेकिन महाराजा ने इस काम में असमर्थता जताई तो ब्रितानियों ने महाराजा पर आरोप लगाया कि वह विद्रोहियों से मिले हुए हैं। इस बात की खबर मिलते ही सैनिकों ने मेजर बर्टन को मार डाला। विद्रोहियों ने राजा के महल को घेर लिया, फ़िर राजा ने करौली के शासक से सैनिक सहायता मांगी। करौली के शासक ने सहयोग किया और विद्रोहियों को महल के पीछे खदेड़ा। इसी समय जनरल एच.जी.राबर्टस अपनी सेना के साथ चम्बल नदी के किनारे पहँुचा। उसे देखकर विद्रोही कोटा से भाग गये।

राज्य के अन्य क्षेत्रों में विद्रोह 
इस विद्रोह में अलवर के कई नेताओ ने हिस्सा लिया। जयपुर में उस्मान खां और सादुल्ला खां ने विद्रोह कर दिया। टोंक में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया ओर नीमच के विद्रोहियों को टोंक आने का निमंत्रण दिया। इन्होने टोंक के नवाब का घेरा डाल कर उनसे बकाया वेतन वसूल किया। इसी तरह बीकानेर के शासक ने नाना साहब को सहायता का आश्‍वासन दिया था। और तांत्या टोपे की सहायता के लिये द्स हजार घुड़सवार सैनिक भेजे। यद्यपि राजस्थान के अधिकांश शासक पूरे विद्रोह काल में ब्रितानियों के प्रति वफ़ादार रहे, फ़िर भी विद्रोहियों के दबाव के कारण उन्हें यत्र-तत्र विद्रोहियों को समर्थन प्रदान करना पड़ा।

राजस्थान में विद्रोह का घटनाक्रम

क्र.स.विद्रोहकास्थानविद्रोहकीतारीख
 1नसीराबाद28 मई 1857
 2नीमच3 जून 1857
 3एरिनपुरा21 अगस्त 1857
 4आउवाअगस्त 1857
 5देवली छावनीजून 1857
 6भरतपुर31 मई 1857
 7अलवर11 जूलाई 1857
 8धौलपुरअक्टूबर 1857
 9टोंकजून 1857
 10कोटा15 अक्टूबर 1857
 11अजमेर की केंद्रीय जेल9 अगस्त 1857
 12जोधपुर लीजियन8 सितम्बर 1857

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में राजस्थान

कोटा के शहीद लाल जयदयाल   
रचनाकार : कन्हैया लाल जी
ब्रितानियों को भारत से बाहर निकालने के लिए युगाब्द 4659 (सन् 1857) में हुआ स्वतंत्रता का युद्ध भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। देखा जाए तो स्वतंत्रता के संघर्ष की शुरुआत महाराणा हम्मीर सिंह ने की थी। वीरों में वीरोत्तम महाराणा हम्मीर ने मुस्लिम आक्रमणकारियों का बढ़ाव काफ़ी समय तक रोके रखा। वस्तुतः सिसोदिया वंश का पूरा इतिहास ही भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष का इतिहास है। लेकिन ब्रितानियों के ख़िलाफ़ पूरे भारत में एक साथ और योजनाबद्ध युद्ध सन् 1857 में लड़ा गया, इसीलिए इतिहासकारों ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया।
क्रांति के इस महायज्ञ को धधकाने की योजना अजीमुल्ला खाँ तथा रंगोबापूजी ने लंदन में बनाई थी। योजना बनाकर ये दोनों उत्कट राष्ट्र-भक्त पेशवा के पास आए और उन्हें इस अद्भुत समर का नेतृत्व करने को कहा। सैनिक अभियान के नायक के रूप में तात्या टोपे को तय किया गया। संघर्ष के लिए संगठन खड़ा करने तथा जन-जागरण का काम पूरे दो साल तक किया गया।
मौलवी, पंडित और संन्यासी पूरे देश में क्रांति का संदेश देते हुए घूमने लगे। नाना साहब तीर्थ-यात्रा के बहाने देशी रजवाड़ों में घूमकर उनका मन टटोलने लगे। आल्हा के बोल, नाटक मंडलियाँ और कठपुतलियों के खेल के द्वारा स्वधर्म और स्वराज्य का संदेश जन-जन में पहुँचाया जाने लगा। क्रांति का प्रतीक लाल रंग का कमल सैनिक छावनियों में एक से दूसरे गाँव में घूमते पूरे देश की यात्रा करने लगा। इतनी ज़बरदस्त तैयारी के बाद संघर्ष की रूप-रेखा बनी। यह सब काम इतनी सावधानी से हुआ कि धूर्त ब्रितानियों को भी इसका पता तोप का पहला गोला चलने के बाद ही लगा।

राजस्थान में पहली चिंगारी 
इस अपूर्व क्रांति-यज्ञ में राजसत्ता के सपूतों ने भी अपनी समिधा अर्पित की। देश के अन्य केंद्रों की तरह राजस्थान में भी सैनिक छावनियों से ही स्वतंत्रता-संग्राम की शुरुआत हुई। उस समय ब्रितानियों ने राजपूताने में 6 सैनिक छावनियाँ बना रखी थी। सबसे प्रमुख छावनी थी नसीराबाद की। अन्य छावनियाँ थी- नीमच, ब्यावर, देवली (टोंक), एरिनपुरा (जोधपुर) तथा खैरवाड़ा (उदयपुर से 100 कि.मी. दूर)। इन्हीं छावनियों की सहायता से ब्रितानियों ने राजपूताना के लगभग सभी राजाओं को अपने वश में कर रखा था। दो-चार राजघरानों के अतिरिक्त सभी राजवंश ब्रितानियों से संधि कर चुके थे और उनकी जी हजूरीमें ही अपनी शान समझते थे। इन छावनियों में भारतीय सैनिक पर्याप्त संख्या में थे तथा रक्त कमल और रोटी का संदेश उनके पास आ चुका था।
राजपूताने (राजस्थान) में क्रांति का विस्फोट 28 मई 1857 को हुआ। राजस्थान के इतिहास में यह तिथि स्वर्णाक्षरों में लिखी जानी चाहिए तथा हर साल इस दिन उत्सव मनाया जाना चाहिए। इसी दिन दोपहर दो बजे नसीराबाद में तोप का एक गोला दाग़ कर क्रांतिकारियों ने युद्ध का डंका बजा दिया। संपूर्ण देश में क्रांति की अग्नि प्रज्जवलित करने के लिए 31 मई, रविवार का दिन तय किया गया था, किंतु मेरठ में 10 मई को ही स्वातंत्र्य समर का शंख बज गया। दिल्ली में क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों के ख़िलाफ़ शस्त्र उठा लिए। ये समाचार नसीराबाद की छावनी में भी पहुँचे तो यहाँ के क्रांति वीर भी ग़ुलामी का कलंक धोने के लिए उठ खड़े हुए। नसीराबाद में मौजूद '15 वीं नेटिव इन्फेन्ट्री' के जवानों ने अन्य भारतीय सिपाहियों को साथ लेकर तोपख़ाने पर कब्जा कर लिया। इनका नेतृत्व बख्तावर सिंह नाम के जवान कर रहे थे। वहाँ मौजूद अँग्रेज़ सैन्य अधिकारियों ने अश्वारोही सेना तथा लाइट इन्फेन्ट्री को स्वतंत्रता सैनिकों पर हमला करने का आदेश दिया। आदेश माने के स्थान पर दोनों टुकड़ियों के जवानों ने अँग्रेज़ अधिकारियों पर ही बंदूक तान दी। कर्नल न्यूबरी तथा मेजर स्पाटवुड को वहीं ढेर कर दिया गया। लेफ्टिनेण्ट लॉक तथा कप्तान हार्डी बुरी तरह घायल हुए।
छावनी का कमांडर ब्रिगेडियर फेनविक वहाँ से भाग छूटा और उसने ब्यावर में जाकर शरण ली. नसीराबाद छावनी में अब भारतीय सैनिक ही बचे। वे सबके सब स्वातंत्र्य सैनिकों के साथ हो गए। छावनी को तहस-नहस कर स्वातंत्र्य सैनिकों ने दिल्ली की ओर कूच किया।

कमांडर गुरेस राम 
नसीराबाद के स्वतंत्रता संग्राम का समाचार तुरंत-फुरत नीमच पहुँच गया। 3 जून की रात नसीराबाद से तीन सौ कि. मी. की दूरी पर स्थित नीमच सैनिक छावनी में भी भारतीय सैनिको ने शस्त्र उठा लिए। रात 11 बजे 7वीं नेटिव इन्फेण्ट्री के जवानों ने तोप से दो गोले दागे। यह स्वातंत्र्य सैनिकों के लिए संघर्ष शुरू करने का संकेत था। गोलों की आवाज़ आते ही छावनी को घेर लिया गया तथा आग लगा दी गई। नीमच क़िले की रक्षा के लिए तैनात सैनिक टुकड़ी भी स्वातंत्र्य-सैनिकों के साथ हो गई। अँग्रेज़ सैनिक अधिकारियों ने भागने में ही अपनी कुशल समझी। सरकारी ख़ज़ाने पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया।
आक्रमणकारी फ़िरंगियों के विरुद्ध सामान्य जनता तथा भारतीय सैनिकों में काफ़ी ग़ुस्सा था। इसके बावजूद क्रांतिकारियों ने हिंदू-संस्कृति की परंपरा निभाते हुए न तो व्यर्थ हत्याकांड किए, नहीं अँग्रेज़ महिलाओं व बच्चों को परेशान किया। नसीराबाद से भागे अँग्रेज़ सैनिक अधिकारियों के परिवारों को सुरक्षित रूप से ब्यावर पहुँचाने में भारतीय सैनिकों व जनता ने पूरी सहायता की। इस तरह नीमच से निकले अंग्रेज महिलाओं व बच्चों को डूंगला गाँव के एक किसान रूंगाराम ने शरण प्रदान की और उनके भोजन आदि की व्यवस्था की। ऐसे ही भागे दो अँग्रेज़ डाक्टरों को केसून्दा गाँव के लोगों ने शरण दी। इसके उलट जब स्वातंत्र्य सैनिकों की हार होलने लगी तो ब्रितानियों ने उन पर तथा सामान्य जनता पर भीषण और बर्बर अत्याचार किए।
नीमच के क्रांतिकारियों ने सूबेदार गुरेसराम को अपना कमांडर तय किया। सुदेरी सिंह को ब्रिगेडियर तथा दोस्त मोहम्मद को ब्रिगेड का मेजर तय किया। इनके नेतृत्व में स्वातंत्र्य सैनिकों ने देवली को ओर कूच किया। रास्तें में चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा पड़ते थे। स्वातंत्र्य सेना ने तीनों स्थानों पर मौजूद अँग्रेज़ सेना को मार भगाया तथा शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा के महाराज ने क्रांतिकारियों का खुले दिल से स्वागत किया। दो दिन तक उनकी आवभगत करने के बाद अस्त्र-शस्त्र व धन देकर शाहपुरा नरेश ने क्रांतिकारियों को विदा किया। इसके बाद सैनिक निम्बाहेडा पहुँचे, जहाँ की जनता तथा जागीरदारों ने भी उनकी दिल खोलकर आवभगत की।

देवली की सेना जंग में शामिल 
देवली ब्रितानियों की तीसरी महत्वपूर्ण छावनी थी। नसीराबाद तथा नीमच में भारतीय सैनिकों द्वारा शस्त्र उठा लेने के समाचार देवली पहुँच गए थे, अतः अँग्रेज़ पहले ही वहाँ से भाग छूटे। वहाँ मौजूद महीदपूर ब्रिगेड आज़ादी के सेनानियों की प्रतीक्षा कर रही थी। निम्बाहेड़ा से जैसे ही भारतीय सेना देवली पहुँची, यह ब्रिगेड भी उनके साथ हो गई। उनका लक्ष्य अब टोंक था, जहाँ का नवाब ब्रितानियों का पिट्ठु बने हुए थे। मुक्तिवाहिनी टोंक पहुँची तो वहाँ की जनता उसके स्वागत के लिए उमड़ पडी। टोंक नवाब की सेना भी क्रांतिकारियों के साथ हो गई। जनता ने नवाब को उसके महल में बंद कर वहाँ पहरा लगा दिया। भारतयीय सैनिकों की शक्ति अब काफ़ी बढ़ गई थी। उत्साहित होकर वह विशाल सेना आगरा की ओर बढ़ गई। रास्त में पड़ने वाली अँग्रेज़ फ़ौजों को शिकस्त देते हुए सेना दिल्ली पहुँच गई और फ़िरंगियों पर हमला कर दिया।

कोटा के दो सपूत 
1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक दुःखद पक्ष यह था कि जहाँ राजस्थान की जनता और अपेक्षाकृत छोटे ठिकानेदारों ने इस संघर्ष में खुलकर फ़िरंगियों का विरोध किया, वहीं अधिकांश राजघरानों ने ब्रितानियों का साथ देकर इस वीर भूमि की परंपरा को ठेस पहुँचाई।
कोटा के उस समय के महाराव की भी ब्रितानियों से संधि थी पर राज्य की जनता फ़िरंगियों को उखाड़ फैंकने पर उतारू थी। कोटा की सेना भी महाराव की संधि के कारण मन ही मन ब्रितानियों के ख़िलाफ़ हो गई थी। भारतीय सैनिकों में आज़ादी की भावना इतनी प्रबल थी कि घ् कोटा कण्टीजेंट ' नाम की वह टुकड़ी भी गोरों के ख़िलाफ़ हो गई, जिसे ब्रितानियों ने ख़ास तौर पर अपनी सुरक्षा के लिए तैयार किया था। कोटा में मौजूद भारतीय सैनिकों तथा जनता में आज़ादी की प्रबल अग्नि प्रज्जवलित करने वाले देश भक्तों के मुख्य थे लाला जयदलाय तथा मेहराब खान। भारत माता के इन दोनों सपूतों के पास क्रांति का प्रतीक घ् रक्त-कमल ' काफ़ी पहले ही पहुँच चुका था तथा छावनियों में घ् रोटी ' के जरिये फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का संदेश भी भेजा जा चुका था।
गोकुल (मथुरा) के रहने वाले लाला जयदयाल को महाराव ने हाड़ौती एजेंसी के लिए अपना वकील नियुक्त कर रखा था। ब्रितानियों को 35 वर्षीय लाला जी की गतिविधियों पर कुछ संदेह हो गया, अतः उन्होंने उनको पद से हटवा दिया। जयदयाल अब सावधानी से जन-जागरण का काम करने लगे। इस बीच नीमच, नसीराबाद और देवली के संघर्ष की सूचना कोटा पहुँच चुकी थी। मेहराब खान राज्य की सेना की एक टुकड़ी घ् पायगा पलटन ' में रिसालदार थे। सेना को क्रांति के लिए तैयार करने में मुख्य भूमिका मेहराब खान की ही थी।

कोटा में स्वराज्य स्थापित हुआ 
15 अक्टूबर 1857 को कोटा राज्य की 'नारायण पलटन' तथा 'भवानी पलटन' के सभी सैनिकों ने तोपें व अन्य हथियार लेकर कोटा में मौजूद अँग्रेज़ सैनिक अधिकारी मेजर बर्टन को घेर लिया। संख्या में लगभग तीन हज़ार स्वराज्य सैनिकों का नेतृत्व लाला जयदयाल और मेहराब खान कर रहे थे। स्वातंत्र्य सेना ने रेजीडेंसी (मेजर बर्टन का निवास) पर गोलाबारी शुरू कर दी। संघर्ष में मेजर बर्टन व उसके दोनों पुत्रों सहित कई अँग्रेज़ मारे गए। रेजीडेन्सी पर अधिकार कर क्रांतिकारियो ने राज्य के भंडार, शस्त्रागारों तथा कोषागारों पर कब्जा करते हुए पूरे राज्य को ब्रितानियों से मुक्त करा लिया। पूरे राज्य की सेना, अधिकारी तथा अन्य प्रमुख व्यक्ति भी स्वराज्य स्वधर्म ' के सेनानियों के साथ हो गए।
राज्य के ही एक अन्य नगर पाटन के कुछ प्रमुख लोग ब्रितानियों से सहानुभूति रखते थे। स्वातंत्र्य सैनिकों ने पाटन पर तोपों के गोले बरसाकर वहाँ मौजूद ब्रितानियों को हथियार डालने को बाध्य कर दिया। अब पूरे राजतंत्र पर लाला जयदयाल और मेहराब खान का नियंत्रण था। छह महीनों तक कोटा राज्य में स्वतंत्रता सैनानियों का ही अधिकार रहा।
इस बीच कोटा के महाराव ने करौली के शासन मदन सिंह से सहायता माँगी तथा स्वराज्य सैनिकों का दमन करने को कहा। हमारे देश का दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं को अपने ही देशवासियों से युद्ध करना पड़ा। करौली से पन्द्रह सौ सैनिकों ने कोटा पर आक्रमण कर दिया। उधर मेजर जनरल राबर्ट्स भी पाँच हज़ार से अधिक सेना के साथ कोटा पर चढ़ आया। राजस्थान और पंजाब के कुछ राज घरानों की सहायता से अँग्रेज़ अब भारतीय योद्धाओं पर हावी होने लगे थे।
विकट परिस्थिति देख कर मेहराब खान तथा उनके सहयोगी दीनदयाल सिंह ने ग्वालियर राज के एक ठिकाने सबलगढ के राजा गोविन्दराव विट्ठल से सहायता माँगी। पर लाला जयदयाल को कोई सहायता मिलने से पहले ही मेजर जनरल राबर्ट्स तथा करौली और गोटेपुर की फ़ौजों ने 25 मार्च 1858 को कोटा को घेर लिया। पाँच दिनों तक भारतीय सैनिकों तथा फ़िरंगियों में घमासान युद्ध हुआ। 30 मार्च को ब्रितानियों को कोटा में घुसने में सफलता मिल गई। लाला जयदयाल के भाई हरदयाल युद्ध में मारे गए तथा मेहराब खान के भाई करीम खाँ को पकड़कर ब्रितानियों ने सरे आम फाँसी पर लटका दिया।
लाला जयदयाल और मेहराब खान अपने साथियों के साथ कोटा से निकलकर गागरोन पहुँचे। अँग्रेज़ भी पीछा करते हुए वहाँ पहुँच गए तथा गागरोन के मेवातियों का बर्बरता से कल्ते आम किया। ब्रितानियों की बर्बरता यहीं नहीं रुकी, भँवर गढ़, बड़ी कचेड़ी, ददवाडा आदि स्थानों पर भी नरसंहार तथा महिलाओं पर अत्याचार किए गए। उक्त सभी स्थानों के लोगों ने पीछे हटते स्वातंत्र्य-सैनिकों की सहायता की थी। ब्रितानियों ने इन ठिकानों के हर घर को लूटा और फ़सलों में आग लगा दी।

देशभक्तों का बलिदान 
अब सभी स्थानों पर स्वतंत्रता सेनानियों की हार हो रही थी। लाला जयदयाल तथा मेहराब खान भी अपने साथियों के साथ अलग-अलग दिशाओं में निकल गए। अँग्रेज़ लगातार उनका पीछा कर रहे थे। डेढ़ साल तक अंग्रजों को चकमा देने के बाद दिसंबर, 56 में गुड़ गाँव में मेहराब खान ब्रितानियों की पकड़ में आ गए। उन पर देवली में मुकदमा चलाया गया तथा मृत्युदंड सुनाया गया।
इस बीच लाला जयदयाल की गिरफ़्तारी के लिए ब्रितानियों ने 12 हज़ार रू. के इनाम की घोषणा कर दी थी। जयदयाल उस समय फ़क़ीर के वेश में अलवर राज्य में छिपे हुए थे। रुपयों के लालच में एक देशद्रोही ने लाला जी को धोखा देकर गिरफ़्तार करवा दिया। उन पर भी देवली में ही मुकदमा चलाया गया। 17 सितम्बर 1860 को लाला जयदयाल और मेहराब खान को कोटा एजेंसी के बग़लें के पास उसी स्थान पर फाँसी दी गई जहाँ उन्होंने मेजर बर्टन का वध किया था। इस तरह दो उत्कट देशभक्त स्वतंत्रता के युद्ध में अपनी आहुति दे अमर हो गए। उनका यह बलिदान स्थान आज भी कोटा में मौजूद है पर अभी तक उपेक्षित पड़ा हुआ है।

सन सत्तावन के सैनानी ठाकुर कुशाल सिंह  
रचनाकार : पूना राम जी चौधरी

जिस तरह से वीर कुँवर सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए अपना रण-रंग दिखाया उसी तरह राजस्थान में आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने भी अपनी अनुपम वीरता से ब्रितानियों का मान मर्दन करते हुए क्रांति के इस महायज्ञ में अपनी आहुति दी। पाली ज़िले का एक छोटा सा ठिाकाना था घ् आउवा ' , लेकिन ठाकुर कुशाल सिंह की प्रमुख राष्ट्रभक्ति ने सन् सत्तावन में आउवा को स्वातंत्र्य-संघर्ष का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। ठाकुर कुशाल सिंह तथा मारवाड़ का संघर्ष प्रथम स्वतंत्रता का एक स्वर्णिम पृष्ठ है।
जोधपुर के देशभक्त महाराजा मान सिंह के संन्यासी हो जाने के बाद ब्रितानियों ने अपने पिट्ठु तख़्त सिंह को जोधपुर का राजा बना दिया। तख़्त सिंह ने ब्रितानियों की हर तरह से सहायता की। जोधपुर राज्य उस समय ब्रितानियों को हर साल सवा लाख रुपया देता था। इस धन से ब्रितानियों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक सेना बनाई, जिसका नाम घ् जोधपुर लीजन ' रखा गया। इस सेना की छावनी जोधपुर से कुछ दूर एरिनपुरा में थी। अँग्रेज़ सेना की राजस्थान की छह प्रमुख छावनियों में यह भी एक थी। राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत 28 मई, 1857 को नसीराबाद से हुई थी। इसके बाद नीमच और देवली के भारतीय सैनिक भी संघर्ष में कूद चूके थे। अब बारी थी एरिनपुरा के घ् जोधपुर लीजन ' की, जिसे फ़िरंगियों ने ख़ासकर अपनी सुरक्षा के लिए बनाया था। 

सूबेदार गोजन सिंह का आबू पर हमला 
जोधपुर के महाराज तख़्त सिंह ब्रितानियों की कृपा से ही सुख भोग रहे थे, अतः स्वतंत्रता यज्ञ की जवाला भड़कते ही उन्होंने तुरंत ब्रितानियों की सहायता करने की तैयार कर ली। जोधपुर की जनता अपने राजा के इस आचरण से काफ़ी ग़ुस्से में थी। राज्य की सेना भी मन से स्वाधीनता सैनानियों के साथ थी तथा घ् जोधपुर लीजन ' भी सशस्त्र क्रांति के महायज्ञ में कूद पड़ना चाहती थी। नसीराबाद छावनी में क्रांति की शुरुआत होते ही जोधपुर-नरेश ने राजकीय सेना की एक टुकड़ी गोरों की मदद के लिए अजमेर भेद दी। इस सेना ने ब्रितानियों का साथ देने से इंकार कर दिया। कुशलराज सिंघवी ने सेनापतित्व में जोधपुर की एक और सेना नसीराबाद के भारतीय सैनिकों को दबाने के लिए भेजी गई। इस सेना ने भी ब्रितानियों का साथ नहीं दिया। हिण्डौन में जयपुर राज्य की सेना भी जयपुर नरेश की अवज्ञा करते हुए क्रांतिकारी भारतीय सेना से मिल गई। इस सब घटनाओं का अंग्रेजों की विशेष सेना घ् जोधपुर लीजन ' पर भी असर पड़ा। इसके सैनिकों ने स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने का निश्चय कर लिया।
अगस्त 1857 में इस 'लीजन ' की एक टुकड़ी को रोवा ठाकुर के ख़िलाफ़ अनादरा भेजा गया। इस टुकड़ी के नायक हवलदार गोजन सिंह थे। रोवा ठाकुर पर आक्रमण के स्थान पर 21 अगस्त की सुबह तीन बजे यह टुकड़ी आबू पहाड़ पर चढ़ गई। उस समय आबू पर्वत पर काफी संख्या में गोरे सैनिक मौजूद थे। गोजन सिंह के नेतृत्व में जोधपुर लीजन के स्वतंत्रता सैनिकों ने दो तरफ़ से फ़िरंगियों पर हमला कर दिया। सुबह के धुंधलके में हुए इस हमले से अँग्रेज़ सैनिकों में भगदड़ मच गई। आबू से ब्रितानियों को भगा कर गोजन सिंह एरिनपुरा की और चल पड़े। गोजन सिंह के पहुँचते ही लीजन की घुड़सवार टुकड़ी तथा पैदल सेना भी स्वराज्य-सैनिकों के साथ हो गई। तोपखाने पर भी मुक्ति-वाहिनी का अधिकार हो गया। एरिनपुरा छावनी के सैनिकों ने मेहराब सिंह को अपना मुखिया चुना। मेहराब सिंह को घ् लीजन ' का जनरल मान कर यह सेना पाली की ओर चल पड़ी।

आउवा में स्वागत 
आउवा में चम्पावत ठाकुर कुशाल सिंह काफ़ी पहले से ही विदेशी (अँग्रेज़ी) शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने का निश्चय कर चुके थें। अँग्रेज़ उन्हें फूटी आँखों भी नहीं सुहाते थे। नाना साहब पेशवा तथा तात्या टोपे से उनका संपर्क हो चूका था। पूरे राजस्थान में ब्रितानियों को धूल चटाने की एक व्यापक रणनीति ठाकुर कुशाल सिंह ने बनाई थी।
सलूम्बर के रावत केसरी सिंह के साथ मिलकर जो व्यूह-रचना उन्होंने की उसमें यदि अँग्रेज़ फँस जाते तो राजस्थान से उनका सफाया होना निश्चित था। बड़े राजघरानों को छोड़कर सभी छोटे ठिकानों के सरदारों से क्रांति के दोनों धुरधरों की गुप्त मंत्रणा हुई। इन सभी ठिकानों के साथ घ् जोधपुर लीजन ' को जोड़कर कुशाल सिंह और केसरी सिंह ब्रितानियों के ख़िलाफ़ एक अजेय मोर्चेबन्दी करना चाहते थे।
इसीलिए जब जनरल मेहरबान सिंह की कमान में जोधपुर लीजन के जवान पाली के पास आउवा पहुँचे तो ठाकुर कुशाल सिंह ने स्वातंत्र्य-सैनिकों का क़िले में भव्य स्वागत किया। इसी के साथ आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह तथा आलयनियावास के ठाकुर अजीत सिंह भी अपनी सेना सहित आउवा आ गए। लाम्बिया, बन्तावास तथा रूदावास के जागीरदार भी अपने सैनिकों के साथ आउवा आ पहुँचे। सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के स्वातंत्र्य-सैनिक भी वहाँ आकर ब्रितानियों से दो-दो हाथ करने की तैयारी करने लगे। स्वाधीनता सैनिकों की विशाल छावनी ही बन गया आउवा। दिल्ली गए सैनिकों के अतिरिक्त हर स्वातंत्रता-प्रेमी योद्धा के पैर इस शक्ति केंद्र की ओर बढ़ने लगे। अब सभी सैनिकों ने मिलकर ठाकुर कुशाल सिंह को अपना प्रमुख चुन लिया।

मॉक मेसन का सर काटा 
आउवा में स्वाधीनता- सैनिकों के जमाव से फ़िरंगी चिंतित हो रहे थे अतः लोहे से लोहा काटने की कूटनीति पर अमल करते हुए उन्होंने जोधपुर नरेश को आउवा पर हमला करने का हुक्म दिया। अनाड़सिंह की अगुवाई में जोधपुर की एक विशाल सेना ने पाली से आउवा की ओर कूच किया। आउवा से पहले अँग्रेज़ सेनानायक हीथकोटा भी उससे मिला। 8 सितम्बर को स्वराज्य के सैनिकों ने घ् मारो फ़िरंगी को ' तथा घ् हर-हर महादेव ' के घोषों के साथ इस सेना पर हमला कर दिया। अनाड़सिंह तथा हीथकोट बुरी तरह हारे। बिथौड़ा के पास हुए इस युद्ध में अनाड़ सिंह मारा गया और हीथकोट भाग खड़ा हुआ। जोधुपर सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इस सेना की दुर्गति का समाचार मिलते ही जार्ज लारेंस ने ब्यावर में एक सेना खड़ी की तथा आउवा की ओर चल पड़ा। 18 सितम्बर को फ़िरंगियों की इस विशाल सेना ने आउवा पर हमला कर दिया। ब्रितानियों के आने की ख़बर लगते ही कुशाल सिंह क़िले से निकले और ब्रितानियों पर टूट पड़े। चेलावास के पास घमासान युद्ध हुआ तथा लारेन्स की करारी हार हुई। मॉक मेसन युद्ध में मारा गया। क्रांतिकारियों ने उसका सिर काट कर उसका शव क़िले के दरवाज़े पर उलटा लटका दिया। इस युद्ध में ठाकुर कुशाल सिंह तथा स्वातंत्र्य-वाहिनी के वीरों ने अद्भूत वीरता दिखाई। आस-पास से क्षेत्रों में आज तक लोकगीतों में इस युद्ध को याद किया जाता है। एक लोकगीत इस प्रकार है ढोल बाजे चंग बाजै, भलो बाजे बाँकियो। 

एजेंट को मार कर, दरवाज़ा पर टाँकियो।
झूझे आहूवो ये झूझो आहूवो, मुल्कां में ठाँवों दिया आहूवो।


इस बीच डीसा की भारतीय सेनाएँ भी क्रांतिकारियों से मिल गई। ठाकुर कुशाल सिंह की व्यूह-रचना सफ़ल होने लगी और ब्रितानियों के ख़िलाफ़ एक मजूबत मोर्चा आउवा में बन गया। अब मुक्ति-वाहिनी ने जोधपुर को ब्रितानियों के चंगुल से छुड़ाने की योजना बनाई। उसी समय दिल्ली में क्रांतिकारियों की स्थिति कमज़ोर होने के समाचार आउवा ठाकुर को मिले कुशल सिंह ने सभी प्रमुख लोगों के साथ फिर से अपनी युद्ध-नीति पर विचार किया। सबकी सहमति से तय हुआ कि सेना का एक बड़ा भाग दिल्ली के स्वाधीनता सैनिकों की सहायता के लिऐ भेजा जाए तथा शेष सेना आउवा में अपनी मोर्चेबन्दी मज़बूत कर ले। दिल्ली जाने वाली फ़ौज की समान आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह को सौंपी गई।
शिवनाथ सिंह आउवा से त्वरित गति से निकले तथा रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया। उधर ब्रितानियों ने भी मुक्ति वाहिनी पर नज़र रखी हुई थी। नारनौल के पास ब्रिगेडियर गेरार्ड ने क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया। अचानक हुए इस हमले से भारतीय सेना की मोर्चाबन्दी टूट गई। फिर भी घमासान युद्ध हुआ तथा फ़िरंगियों के कई प्रमुख सेनानायक युद्ध में मारे गए।

बड़सू का भीषण संग्राम  
जनवरी में मुम्बई से एक अंग्रेज फौज सहायता के लिए अजमेर भेजी गई। अब कर्नल होम्स ने आउवा पर हमला करने की हिम्मत जुटाई। आस-पास के और सेना इकट्ठी कर कर्नल होम्स अजमेर से रवाना हुआ। 20 जनवरी, 1858 को होम्स ने ठाकुर कुशाल सिंह पर धावा बोला दिया। दोनों ओर से भीषण गोला-बारी शुरू हो गई। आउवा का किला स्वतंत्रता संग्राम के एक मजबूत स्तंभ के रूप में शान से खड़ा हुआ था। चार दिनों तक ब्रितानियों और मुक्ति वाहिनी में मुठभेड़ें चलती रहीं। ब्रितानियों के सैनिक बड़ी संख्या में हताहत हो रहे थे। युद्ध की स्थिति से चिंतित होम्स ने अब कपट का सहारा लिया। आउवा के कामदार और क़िलेदार को भारी धन देकर कर्नल होम्स ने उन्हें अपनी ही साथियों की पीठ में छुरा घौंपने के लिए राज़ी कर लिया। एक रात क़िलेदार ने कीलें का दरवाजा खोल दिया। दरवाज़ा खुलते ही अँग्रेज़ क़िले में घुस गए तथा सोते हुए क्रांतिकारियों को घेर लिया। फिर भी स्वातंत्र्य योद्धाओं ने बहादुरी से युद्ध किया, पर अँग्रेज़ क़िले पर अधिकार करने में सफल हो गए। पासा पटलते देख ठाकुर कुशाल सिंह युद्ध जारी रखने के लिए दूसरा दरवाज़े से निकल गए। उधर ब्रितानियों ने जीत के बाद बर्बरता की सारी हदें पार कर दी। उन्होंने आउवा को पुरी तरह लूटा, नागरिकों की हत्याएँ की तथा मंदिरों को ध्वस्त कर दिया। क़िले कि प्रसिद्ध महाकाली की मूर्ति को अजमेर ले ज़ाया गया। यह मूर्ति आज भी अजमेर के पुरानी मंडी स्थित संग्रहालय में मौजूद है।
इसी के साथ कर्नल होम्स ने सेना के एक हिस्से को ठाकुर कुशाल सिंह का पीछा करने को भेजा। रास्ते में सिरियाली ठाकुर ने अंग्रेजों को रोका। दो दिन के संघर्ष के बाद अंग्रेज सेना आगे बढ़ी तो बडसू के पास कुशाल सिंह और ठाकुर शिवनाथ सिंह ने अंग्रेजों को चुनौती दी। उनके साथ ठाकुर बिशन सिंह तथा ठाकुर अजीत सिंह भी हो गए। बगड़ी ठाकुर ने भी उसी समय अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। चालीस दिनों तक चले इस युद्ध में कभी मुक्ति वाहीनी तो कभी अंग्रेजों का पलड़ा भारी होता रहा। तभी और सेना आ जाने से अंग्रेजों की स्थिति सुधर गई तथा स्वातंत्र्य-सैनिकों की पराजय हुई। कोटा तथा आउवा में हुई हार से राजस्थान में स्वातंत्र्य-सैनिकों का अभियान लगभग समाप्त हो गया। आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने अभी भी हार नहीं मानी थी। अब उन्होंने तात्या टोपे से सम्पर्क करने का प्रयास किया। तात्या से उनका सम्पर्क नहीं हो पाया तो वे मेवाड़ में कोठारिया के राव जोधसिंह के पास चले गए। कोठारिया से ही वे अंग्रेजों से छुट-पुट लड़ाईयाँ करते रहे।

जन-नायक कुशाल सिंह 
ठाकुर कुशालसिंह के संघर्ष ने मारवाड़ का नाम भारतीय इतिहास में पुनः उज्ज्वल कर दिया। कुशाल सिंह पूरे मारवाड़ में लोकप्रिय हो गए तथा पूरे क्षेत्र के लोग उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का नायक मानने लगे। जनता का उन्हें इतना सहयोग मिला था कि लारेंस तथा होम्स की सेनाओं पर रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के ग्रामीणों ने भी जहाँ मौक़ा मिला हमला किया। इस पूरे अभियान में मुक्ति-वाहिनी का नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे से भी संपर्क बना हुआ था। इसीलिए दिल्ली में स्वातंत्र्य-सेना की स्थिति कमज़ोर होने पर ठाकुर कुशाल सिंह ने सेना के बड़े भाग को दिल्ली भेजा था। जनता ने इस संघर्ष को विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध किया जाने वाला स्वाधीनता संघर्ष माना तथा इस संघर्ष के नायक रूप में ठाकुर कुशाल सिंह को लोक-गीतों में अमर कर दिया। उस समय के कई लोक-गीत तो आज भी लोकप्रिय हैं। होली के अवसर पर मारवाड़ में आउवा के संग्राम पर जो गीत गाया जाता है, उसकी बानगी देखिये -

वणिया वाली गोचर मांय कालौ लोग पड़ियौ ओ 
राजाजी रे भेळो तो फिरंगी लड़ियो ओ काली टोपी रो! 

हाँ रे काली टोपी रो। फिरंगी फेलाव कीधौ ओ काली टोपी रो! 
बारली तोपां रा गोळा धूडगढ़ में लागे ओ मांयली तोपां रा गोळा तम्बू तोड़े ओ झल्लै आउवौ! मांयली तोपां तो झूटे, आडावली धूजै ओ आउवा वालौ नाथ तो सुगाली पूजै ओ झगड़ौ आदरियौ! 
हां रे झगड़ौ आदरियो, आउवौ झगड़ा में बांकौ ओ झगडौ आदरियौ! राजाजी रा घेड़लिया काळां रै लारे दोड़ै ओ आउवौ रा घेड़ा तो पछाड़ी तोड़े ओ झगड़ौ होवण दो! 
हाँ रे झगड़ौ होवण दो, झगड़ा में थारी जीत व्हैला ओ झगड़ौ होवण दो!

 पूनम किराणा स्टोर्स, ग्राम-बूसी (पाली)
1857 राजस्थानी लोकगीतों में
रचनाकार : राज चतुर्वेदी
संदर्भ : विचार दृष्टि (हिंदी पत्रिका) 

दिनांक : 9 अक्टूबर-दिसंबर 2007
अंक : 33, पेज न. 36

राजस्थानी धरती पर उत्पन्न 1857 की क्रांति से संबंधित अनेक लोक गीत-गाथाएँ मिलती हैं। 1857 की आजादी की पहली लडाई से पूर्व राजस्थान में जिन लोगों ने ब्रितानियों से टक्कर ली उसमें राजस्थान के भरतपुर रियासत प्रमुख थी। इसके साथ ही जोधपुर के राजा मानसिंह का चरित्र भी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत था। महाराव डूंगरपुर जसवंत सिंह नरसिंहगढ़, राजकुंवर चैन सिंह, डूंगजी जवारजी और उमरकोट के रतन राणा, राव गोपाल सिंह खरवा के कार्य 1857 की क्रांति की भूमिका बने। भरतपुर के घेरे से संबंधित लोकगीत अभी भी होली के अवसर पर गाए जाते हैं। जिसके बोल में जनता का विरोध झलकता है-

गोरा हट जा! 
राज भरतपुर के रे गोरा हट जा 

भरतपुर गढ़ बंका रे गेरा हट जा। 
यूं मत जाणै गोरा लड़ै बेटौ जाट के 
ओ तो कुंवर लड़ै रे राजा दशरथ को गोरा हट जा।

इसके साथ ही डुंगरजी की गाथा बी कवियों ने गाई है, जिसके पद-पद में ब्रितानियों का विरोध है-

सन् सत्तावन सूं पैलीई, ए जोत जगावण वाण्ठा रहा। 
आजादी बाण्ठै दिवलैरी, वण्ठरी लौ का रखवाला हा।

इस जंगे आजादी की आहट लोक और कवियों ने सुन ली थी इसीलिए महाराज मानसिंह के आश्रितकवि बाँकी दास ने लिखा था-

आयौ इंगरेज मुलक है ऊपर आहंस लीथा खैंचि उरा,
धणियं मरै नदीधी धरती, धणियां ऊभां गई धरा।


इसी तरह मानसिंह से जोधपुर की संधि में सांभरझील ब्रितानियों के हड़प ली थी। उसकी पीड़ा एक लोकगीत में व्यक्त हुई है-

म्हारौ राजा भोण्ठौ, सांभर तौ दे दीनी रे 
अँगरेज नै म्हारौ राजा मोण्ठौ


बाँकीदास ने तत्कालीन मारवाड़ के चौहटन ठिकाने के ठाकुर की प्रशंसा में गीत लिखा है, जिन्होंने गोरी सत्ता के विस्तार को रोका था तथा वीरतापूर्वक लड़ते हुए ठाकुर श्याम सिंह चौहान शहीद हुए थे-
हट वदी जद नहर हो फरिया,
 सादी जिसड़ा साथ सिपाइ,
मेरी जदीमंड बाहड़ मेरै, 
गोरां सू रचियौ गज गज-गाह।


डिंगल के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मिश्रण तो स्पष्ट लिखते हैं-

जिण बन भूल नजावता गैंदगवय गिडराज। 
तिणबन जंबुक तारवड़ा, ऊधम मंडै आज।

अर्थात् राजस्थानी रूपी जिस वन में गेंडे, हाथी और सूकर सिंधों के भय से भूलकर भी नहीं जाते थे आज उस जंगल में अँग्रज रूपी लोमड़ियाँ और सियार उत्पात मचा रहे हैं। क्रांतिकारी वीरों 1857 के नायक तात्या टोपे के बारे में डिंगल के कवि शंकर दान सामोर का एक गीत देखें -

मचायौ हिंद में आखी तइलकौ तांतिय-मोटो,
घोम जेम घुमायो लंक में हणु घोर। 
रचायौ रूण्ठंती राजपूती रौ 
आखरी जंग जंग में दिखायौ सुवायौ अभाग जोर।


शंकरदान सामोर ने ही 1857 की नायिका रानी लक्ष्मीबाई के लिए इस तरह अपने भाव व्यक्त किए हैं -

हुयौ जाण बेहाल, भाल हिंदरी मोम ठरे। 
झगड़ौ निज भुज झाल, लिछमी झांसी री लड़ी।


जोधपुर मारवाड़ में 1857 की क्रांति के अग्रदूत थे आऊवा के ठाकुर खुशाल सिंह, जिन्होंने ब्रितानियों और रियासत की सेना से जबरदस्त लोहा लिया था। जिसे तत्कालीन कवियों- महाकवि सूर्य मल्ल मिश्रण, गिरवरदान और तिलोकदान व शंकर दाने सामोर जैसे कवियों ने अनेक डिंगल गीतों में बखाना है, परंतु 'भाऊवा' और ठाकुर खुशाल सिंह के बलिदान को लोकगीतों में आज तक गाया जा रहा है-

वणिया वाली गोचर मांय, रालौ पड़ियौ ओ 
राजाजी रै मेलौ तो फिरंगी लड़ियौ ओ काली टोपी रो।
हां रै काली टोपी रो। 
फिरंगी फैलाव कीधौ ओ काली टोपी रो।


इस संबंध में एक और लोकगीत दृष्टव्य है, जिसमें ब्रितानियों संबंधी उद्गार व लोक धारणाएँ इतनी स्पष्ट है कि लोक की नफरत साफ दिखाई देती है -

देस में अंगरेज आयो, कोई कांई चीजां लायो रे। 
फूट जाली भायां में, बेगार लायो रे काली टोपी रौ। 
हां रे काली टोपी रो अंगेरज देस में छावनियां नांखै रे काली टोपी रौ।


आऊवा के युद्ध में अँग्रेज सेनापति मारा गया जिसे गढ़ के दरवाजे पर टांग दिया गया था, इसे एक लोकगीत में इस तरह गाया गया है-

ढोल बाजै, थाली बाजै, मेलौ बाजै बां कियौ 
अजंट नै भार नै दरवाजै नांखियौ जूंझे आऊवौ। 
हां रे जूंझै आऊवौ, आऊवौ, मुल्का में चावौं ओ। जूंझे आऊवौ।


1857 के संघर्ष की वाणी राजस्थानी-किंगल कविता का अद्भूत अध्याय है, जिस पर राष्ट्र को नाज है। इस लोकगीतों के प्रकरण में एक लोकगीत की यह शब्दावली कितनी व्यंग्यपूर्ण हैं जो ब्रितानियों की प्रवृतियों को समाने लाती हैं-

गिटपिट गिटपिट बोली बोलै बातां मारै घूणा की 
मत मूडै लगाऔ ई नै मत बतलाऔ।


1857 के संघर्ष के एक नायक का बखान एक फाग में इस तरह किया गया है -

देखो मेड़तिया और डावै कांन मुस्की रे 
बारै बरस दिखा में रिया आँख फुटकी रे लौगो आऊवौ। 
हां रे लेणौ आऊवौ, झगड़ां में थारी जीत होती मो लेणौ आऊवौ।


और अंत में ये लोकगीत आज भी 1857 की याद दिलाते हैं-

मुजरौ ले बोनीं बाबलिया होली रंच राची। 
मुजरौ ले लोनीं। 
टोली रे टीकायत माथै थारा हाकम चढ़िया 
ओ गोली रा लोगाड़ा भाई भाखर मिलिया हो झड़ी झंगा में।


राजस्थानी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, बघेली, बुंदेली, ब्रजी, मालवी, अवधी की तरह कुछ वाह धारी बोली में कवियों ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम-सेनानियों के बलिदानों को बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ लोकगीतों में उनके शौर्य गान कर स्मरण किया है। कुछवाहधर अर्थात् भिण्ड (म.प्र.) अंचल की बोली में आज तक प्रचलित कतिपय लोकगीत द्रष्टव्य हैं-

राखो पुरखन को सम्मान 
इन भइया बाब को तनिक न जानों,
इन भइया बाबो को तनिक मानों 
गोरा आए इनकी भूमि में 
तेगन सौं काटे थो फरमान। 
राखो पुरखन को सम्मान। 
भुतहाकछार जो बजत है 
बिलाव गाँव से जो लगत है
 मूंडन के खरियान बनाए, 
गोरा छोड़ गण मैदान। 
वीर भूमि के वीर हैं 
भइया वीर भूमि के सूर हैं 
भइया दिल दहलाए जिन गोरन के, 
राखो आपनों मान। 
राखो पुरखन को सम्मान।


इसी प्रकार होली के अवसर पर शहीदों के स्मारकों पर ग्रामीण जन अबीर लगाकर होली खेलते हैं और साज-बाज के साथ होली आनराय गीत गाते हैं। उन्नीसवीं सदी के इस गीत को आप देखें -

मैने ढूढ़े चारहुँ ओर में, बिछुरे भइया न मिले,
कै भइया बन को गए हा ऽऽ
कै गए ससुराल,मैंने ढूढ़े चारहुँ ओर में...........।
 ना भइया वन कों गए न गए ससुराल। 
मैंने ढूँढ़े चरहुँ ओर में.............। 
घोड़ा बँधा न घुड़साल में हाऽऽ 
ना खूँटी टंगी तलवार मैंने ढूढ़े चारहुँ ओर में...........। 
युद्धन में मइया गए सो भारत, माँ के मये दुलार। 
मैंने ढूढ़े चारहुँ ओर में, बिछुरे भइया ना मिले।


राजस्थान की प्रमुख कला एवं सांस्कृतिक इकाइयां

राजस्थान की प्रमुख कला एवं सांस्कृतिक इकाइयां




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नाम, स्थान, स्थापना

राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृत अकादमी, बीकानेर 25 जनवरी, 1983
राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी,जयपुर, 19 जनवरी 1986
राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 15 जुलाई 1969
राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर, 1981
अरबी फारसी शोध संस्थान, टोंक, दिसम्बर 1978
राजस्थान सिन्धी अकादमी, जयपुर, 1979
विद्या भवन संस्थान, उदयपुर, 1931
राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, 23 जनवरी 1958
राजस्थान अभिलेखागार, बीकानेर
रुपायन संस्थान बोरुंदा, जोधपुर, 1960
रवीन्द्र रंगमंच, जयपुर, 15 अगस्त 1963
जयपुर कथक केन्द्र, जयपुर, 1978
राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर
पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, जयपुर
राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स, जयपुर, 1866
राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर, 1957
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1950

राजस्थानी लोक संस्कृति

राजस्थानी लोक संस्कृति 




Teju jani143




लोक संस्कृति की समस्त विद्याओं में लोक संगीत, नाटकों, ख्यालों तथा नृत्यों एवं नाट्यों का अपना ही महत्वपूर्ण स्थान है। इन विद्याओं में लोक संस्कृति, जीवन और लोक मनोरंजन का अपना ही अनुपम रुप निहारने को मिलता है। इन विद्याओं का नहीं कोई जन्मदाता है और ना कोई शास्र और प्रणेता रहा है। इनके अन्तर्गत जो नाच, गीत, नाट्य, संगीत इत्यादि हैं उनके रचयिता भी अज्ञात हैं। सामुदायिक वातावरण और परम्परागत अभ्यास ने इन कलाओं को जीवित रखा है। मौखिक स्मरण और लौकिक रुढियों में ढ़ली यह कला आज भी जीवित हैं। युग - युगान्तर से जन्मी - पनपी यह सांस्कृतिक विद्या राजस्थान संस्कृति का अभिन्न अंग है जो राजस्थान संस्कृति की प्राण बनी हुई है। इन सांस्कृतिक विद्याओं को लोक शब्द से जोड़ा गया है, इसलिए नहीं कि इनका सम्बन्ध केवल ग्रामीण जीवन या आदिवासी जीवन से है। चाहे गांव हो या शहर, सभी स्थानों में लोक - गीतों, लोक - नृत्यों, ख्यालों व नाट्यों का प्रमुख स्थान है। पर्वों एवं धार्मिक तथा सामाजिक उत्सवों और त्यौहारों में में ऐसे अनेक गीत तथा नृत्यऔर मनोरंजन का साधन हैं जो ग्रामीण जीवन और कस्बों और नगरों में समान रुप से मिलते हैं। सामाजिक जीवन और संस्कृति के प्रतीकों के बीच कोई अन्तर नहीं है और न ही इनके मध्य कोई सीमा रेखा खींची जा सकती है। इनकी अभिव्यक्ति मनोवैज्ञानिक, बौद्धिक तथा धार्मिक प्रवृत्तियों में सर्वत्र मिलती है जिनका रसास्वादन सम्पूर्ण जनता करती है। लोक का व्यक्त रुप मानव है, एतएव लोक संस्कृति व्यावहारिक जीवन का परिष्कृत रुप है।
लोक संस्कृति के तीन मुख्य स्तम्भ है :

१) लोकनाट्य
२) लोकगीत
३) लोकनृत्य
इन तीन स्तम्भों के अन्तर्गत लोक संस्कृति का क्रमवार विशलेषण आगे के पृष्ठों में किया जा रहा है-

लोक नाट्य
 


लोक नाट्य की परम्परा बड़ी प्राचीन है जिसको हम स्वांग, लीला और ख्याल के रुप में प्रचलित पाते हैं। लोक - नाट्य भरतपुर और जयपुर दोनों में बड़े लोकप्रिय हैं। रामायण और कृष्ण लीलाओं पर आधारित कथाओं के साथ लोक जीवन को इस तरह प्रदर्शित किया जाता है कि राम व सीता अथवा कृष्ण और राधा एक साधारण व्यक्ति के रुप में आते हैं और उनकी पोशाकें भी लोक लोक परिपाटी के अनुकूल होती है। इन प्रदर्शनों में धर्म, नैतिकता, मनोरंजन और व्यावहारिकता को इस तरह संयोजा जाता है कि लोक जीवन का सच्चा स्वरुप प्रकट हो जाता है। आज इन लीलाओं का मंचन कमतर हो चला है, इन लीलाओं के प्रति पात्र और दर्शक उदासीन हैं, फिर भी दशहरे के अवसर पर यत्र - तत्र इनका आयोजन होता रहता है। भरतपुर, अलवर, करौली आदि भागों में रासलीला का प्रचलन अद्यावधि भी देखा जाता है। इन खेलों की भाषा स्थानीय रहती है और कई स्थलों को संवाद अथवा गीतों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। बीच - बीच में हास्य -संवाद मनोरंजक होते हैं।




रम्मत :
बीकानेर और जैसलमेर में लोक नाट्यों में"रम्मत"सामुदायिक स्वरुप को निभा रही है। रम्मत में समभागी सभी जाति वर्ग के लोग होते हैं और सभी समुदाय के लोग इसमें रस लेते हैं। भाषा और क्षेत्रीय रंगत के कारण"रम्मत"की लोकप्रियता अन्य क्षेत्रों में नहीं है। प्रारम्भ से ही समस्त पात्र रंगमंच पर बैठे मिलते हैं और अपना - अपना करतब दिखाकर स्थान ग्रहण करते हैं। इसमें टेरियों और गायकों की प्रमुखता रहती है।

ख्याल :


ख्याल सम्पूर्ण राजस्थान में अपनी क्षेत्रीय रंगत के लिए बड़े लोकप्रिय है। इनमें अनेक वीरों की कहानियाँ इस तरह समाविष्ट हैं कि वे वीर रस प्रधान होते हुए भी अन्य रसों को व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते। जब इन ख्यालों को व्यावसायिक होने का अवसर मिला तो विषय एवं रंगत की विशेषता ने इन्हें राजस्थान से बाहर भी लोकप्रिय बना दिया। ये ख्याल कभी कभी धार्मिक कथानकों को गायन, वादन और संवाद से सम्मलित कर इनकी उपयोगिता को बढ़ा देते हैं। धर्म और वीर रस प्रधान ख्यालों में अखरुपता तो दिखाई नहीं देती , परन्तु ध्येय की दृष्टि से अपने - अपने क्षेत्र में उनमें विविधता आ जाती है। फिर भी इनकी लोकप्रियता बनी रहती है। इन ख्यालों को क्षेत्रीय भाषाओं और स्थानीय परिवेश में रखे जाने से यह नहीं समझना चाहिए कि इनकी सांस्कृतिक इकाई में कोई व्यवधान है। वे ख्याल परम्परा के अंग हैं। अमर सिंह रो ख्याल , रुठी रानी रो ख्याल , पद्मिनी रो ख्याल , पार्वती रो ख्याल , आदि भिन्न भिन्न रंगत प्रस्तुत करने पर भी सांस्कृतिक आधार में समान है।

भवाई नाटक :

राजस्थान में भवाई नाट्य अपने ढ़ंग का अनूठा नाट्य है। इसमें पात्र व्यंगवक्ता होते हैं। तात्कालिक सवाल - जवाब तथा सामाजिक समस्याओं पर चोट करना प्रमुख कार्य है। इनके खेल परम्परा पर आधारित रहते हैं परन्तु पात्र स्थानीय एवं सामयिक समस्याओं को लेकर व्यंगों का निरुपण कर दर्शकों को दंग कर देते हैं। इनका कोई रंगमंच नहीं होता, परन्तु कुशाग्र संवाद से इनके प्रदर्शन में समा बंध जाता है। भवाइयों को नाटकों के मूल लेख परिवर्तित होते रहते हैं। इनमें गायकी के गायन और भवाइयों की हँसी मजाक और संवाद तथा नृत्य बड़े रोचक होते हैं। इनमें कथानक तो गौण हो जाते हैं पर गायन, हास्य और नृत्य पूरे तौर पर छा जाते हैं।

वादन, संवाद, प्रस्तुतिकरण और लोक संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ की ' गवरी ' निराली है। इसमें कई तरह नृत्य नाटिकायें होती हैं। गवरी का उद्भव शिव भस्मासुर की कथा से तथा किंवदन्तियों पर आधारित है। नृत्य नाटिकायें पौराणिक कथाओं, लोक कथाओं और लोकगाथाओं और लोकजीवन की विभिन्न झाँकियाँ पर आधारित होती है। शिव भस्मासुर कथा अनुसार भस्मासुर ने अपनी तपस्या से शिवजी को प्रसन्न करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी। उसने पार्वती को पाने के लिए शिव पर ही उसका प्रयोग करना चाहा। अन्त में विष्णु भगवान ने अपनी लीला से शिव को बचाया और भस्मासुर का हाथ उसी के सिर पर रखवा कर उसका अन्त किया। इसी संदर्भ में शिवजी ने भीलों को साथ नृत्य किया जो आगे चलकर गवरी के रुप में प्रचलित हुए। गवरी का आयोजन रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से शुरु होता है। खेड़ा देवी से भोपा भादवा कृष्णा एकम् को आज्ञा लेता है। इसके बाद पात्रों के कपड़े बनते हैं। पात्र मंदिरों में "धोक"देते हैं और नव - लाख देवी - देवता, चौसठ योगिनी और बावन भैंरु को स्मरण करते हैं। दो चार गाँवों के समझौते के बाद गवरी आरम्भ होती है जिसके पात्र व्रत और संयम रख कर इसको स्थान - स्थान पर जाकर खेलते हैं। गवरी का मुख्य पात्र बुढिया भस्मासुर का जप होता है और अन्य मुख्य पात्र"राया"होती है जो स्री वेष में पार्वती और विष्णु की प्रतीक होती है। भामट्या नाम का पात्र लोकभाषा में कविता बोलता है और खट्कइया उसको दोहरातें हैं और बीच - बीच में जोकर का काम करता है। बुढिया भी खट्कइये के समय - समय पर संवाद में पूरक बनता है। शेष सभी पात्र ' खेला ' कहलाते हैं। गवरी में मुख्य पात्र होते हैं। पात्रों के खेलों में गणपति, भूमरिया, भेवावड़, मीणा, कान - गूजरी, जोगी, लाखा बण्जारा नटड़ी तथा माता और शेर के खेल होते हैं। कान्ह - गूजरी के खेल में मजीरा और चीमरे बजते हैं और अन्य खेलों में मादल और थाली बजाते हैं। खेल के पात्रों में जादू, टोना, और तान्त्रिक प्रयोग किए जाते हैं, जिन्हें ' झाड़ा फूँका ' के माध्यम से ठीक किया जाता है। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है। इस अवधि में राई , बुढिया और भोपा नंगे पाँव रहते हैं, जमीन पर सोते हैं और स्नान नहीं करते। कुछ क्षेत्रों में राई, बुढिया दूध पीकर ही रहते हैं; शराब माँस और हरी सब्जी का इस अरसे में निषेध रहता है। गवरी का व्यय, प्रमुख गाँव जहाँ से गवरी आरम्भ होती है, वहन करता है और जिन गाँवों में गवरी खेली जाती है, खाने - पीने का व्यय उसी गाँव केलोग करते हैं। आदिवासियों की गवरी गाँव के चौराहे से प्रारम्भ होती है और शकुन को लेकर दिशा निश्चित कर आगे गाँवों के लिए प्रस्थान करती है। गवरी समाप्ति पर दो दिन पहले ज्वार बोये जाते हैं और एक दिन पहले कुम्हार के यहाँ से मिट्टीका हाथी लाया जाता है। हाथी के आने के बाद भोपे का भाव बन्द हो जाता है। मय, जावरा हाथी के गवरी विसर्जन प्रक्रिया होती है जिसे किसी जलाशय में विसर्जित करते हैं। कहीं कहीं गाँव के बाहर गाड़ दिया जाता है। गवरी समाप्ति के छठे दिन नवरात्रि का आरम्भ हो जाता है। यह पर्व आदिवासी जाति पर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। इसकी लोकप्रियता सभी जातियों के लोगों की इसमें रुचि लेने से सुस्पष्ट है। उनके खेल, कथानक, वीर गाथाओं से जुड़ी हुई यह नृत्य नाटिका गवरी के आरम्भ और समाप्ति में पूर्ण रुप से स्वीकर की जाती है। ध्वाजारोहण और ध्वज का आद्योपान्त रखना दैविक शक्ति की मान्यता पर बल देना है। यह ध्वज एक प्रकार से अनुयायियों, दर्शकों और पात्रों के बीच दैवी शक्ति की प्रधानता स्वीकार करने के माध्यम का काम करता है। भोपे, पात्र और दर्शक सभी खेल के हर क्षण देवी की प्रत्यक्षता अनुभव करते हैं। युद्ध विजय और पराजयों तथा नृत्यों के प्रसंग देवी के आशीर्वाद से आरम्भ और समाप्त होते हैं। ऐसे लगता है कि गवरी द्वारा सम्पूर्ण वातावरण आस्था से ओत - प्रोत हो जाता है। इसके द्वारा नाटकीय अभिव्यक्तियाँ एक ऐसी सामाजिक स्वतन्त्रता की प्रतीक बन जाती है कि उनमें जात - पात, रंग, वर्ण भेद का कोई स्थान नहीं रहता। देव देवताओं की आराधना के प्रसंगों में गवरी के पात्र पूर्ण स्वतन्त्रता से कई र - रिवाजों तथा गाँवों के अधिकारियों की आलोचना एवं समर्थन करते हैं जिससे दर्शकों में एक सामाजिक चेतना अनायास प्रवेश कर जाती है और स्वतन्त्र जीवन का सूत्र बन जाती है।

आदिवासी क्षेत्रों में होली के अवसर पर लगभग पूरे मास गेर नृत्य का चलन बड़े उल्लासमय और स्फूर्तिदायक रुप में होता है। सामूहिक रुप में विशेषकर पुरुष लड़कियों के डंके के साथ नाचते हैं जिसमें प्रत्येक अंग का भाग तोड़ और मरोड़ के साथ ताल से नाचता है और बीच में ढोल का ठमका बजाता रहता है। लगभग आधी रात तक यह क्रम चलता है, कभी कभी स्री पुरुष के जोड़े एक कतार में दो दलों के रुप में पास आते हैं और पीछे हटते हैं। इस नृत्य में भीली संस्कृति की प्रधानता रही है। इसके साथ जो संगीत की लड़ियाँ गाई जाती हैं, वे किसी वीरोचित गाथा का प्रेमात्यान के खण्ड होते हैं। फसल भी खुशहाली की द्योतक लयों को भी गा - गाकर नृत्य के साथ जोड़ा जाता है। वर्तमान में इस नृत्य की लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी कि भीलों के अतिरिक्त अन्य जातियाँ भी इस अवसर पर"गेर"बनाकर नाचते रहते हैं और इसके साथ गाते भी हैं। कृषक समाज में भी इसका प्रचलन है जो फसल काटने के पश्चात् और फसल बोकर गेर करते हैं।

लोकनृत्य :

पुरुष प्रधान नृत्यों की भांति राजस्थान में महिलाओं द्वारा भी कुछ नृत्यों का आयोजन होता है जिसमें एकल, युगल और सामुहिक नृत्य मुख्य हैं।"ऊब नाच"में महिला अकेली नाचती हैं जिसमें हाथ, पैर और कमर का मुड़ाव बड़ा रोचक होता है। सिर पर घड़ा या घड़े रखकर नाचना"मटकी नाच"कहलाता है जो कई करतबों से जुड़ा रहता है। सामूहिक रुप में"चपटी नाच","ताल नाच", "डांडिया नाच"भी बड़े रोचक होते हैं। विवाह तथा गणगौरके अवसर पर या तीज के त्यौहार रहता है। श्रावण मास में इस प्रकार के नाचों के छटा बड़ी अद्वितीय होती है।


महिला नृत्य में गरबा भक्तिपूर्ण नृत्य कला का अच्छा उदाहरण है। यह नृत्य शक्ति की आराधना का दिव्य रुप है जिसे गुजरात के प्रत्येक शहर और गाँव में नवरात्रि के अवसर पर देखा जाता है। गुजरात से जुड़े डूँगरपुर और बाँसवाड़ा में भी इसका प्रचलन व्यापक रुप से समाहित है। इसके साथ साथ द्रविड़ संस्कृति के भ मेवाड़ा, नागर, आदित्य आदि जातियों में भी"गरबा"के अवसर को बड़े धूमधाम से मनाती है। गरबा का स्वरुप रास, गरबा, डाँडिया, गवरी आदि में अभिव्यक्त होता है जो हस्तला के प्रकार हैं। ऐसी मान्यता है कि प्रारम्भ में इस कला का उपयोग आद्यशक्ति की आराधना से प्रारम्भ हुआ। इसकी आराधना में मिट्टी के घड़ों में छिद्र कर और उसमें ज्योति प्रज्वलित कर उसे सर पर रखकर स्रियाँ गर्भगृह के आसपास प्रदक्षिणा करती थी। धीरे - धीरे यह विधि गोलाकार नृत्य में परिणत हो गई। मुख्य रुप से गरबे के तीन स्वरुप देखे जाते हैं पहले में शक्ति की आराधना एवं अर्चना है। दूलरे में कृष्ण - राधा, गोप - गोपियों का प्रणय चित्रण हैं और रास नामक नृत्य की प्रस्तुति है। तीसरे स्वरुप के अन्तर्गत लोक जीवन का सौन्दर्य पक्ष प्रस्तुत किया जाता है।


इसमें पनिहारी, नव - वधू की भावुकता और गृह कार्य में रत स्रियों का चित्रण रहता है। आराधना - दीपक, कलश, नृत्य ताली, चुटकी से नाच होता है और घरों में अखण्ड ज्योति दुर्गा, अम्बिका माता की आराधना में लगाई जाती है। नवरात्रि की समाप्ति के अवसर पर इसका विसर्जन होता है। गरवा लेते समय अनेक लयों में गीत गाए जाते हैं जो अम्बा की भक्ति के पोषक होते हैं या जिनमें नारी समस्त भावनाओं को वाद - माधुर्य और अर्थ - सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत किया जाता है। गरबा नृत्य लोक जीवन और दैवी शक्ति की अप्रतिमता प्रस्तुत करता है। इसमें मानव संस्कृति और पारलौकिक भावनाओं का अनुपम सम्मिश्रण है। गरबा ने लोक जीवन को धर्म और संस्कृति के प्रति आस्थावान बनाने तथा परम्परागत भक्ति तथा रुढियों को स्थायित्व प्रदान करने में बड़ा योग दिया है। गुजरात और राजस्थान की संस्कृति के समन्वय का सुन्दर रुप हमें"गरबा"नृत्य में देखने को मिलता है। गरबा में गाये जानेवाले पदों में सौभाग्य, कल्याण, प्रेम और उल्लास प्रतिध्वनित होते हैं। हास्य रस का समावेश देवर, भौजाई, ननद, सौत, सास आदि को लेकर गरबा के गीतों में किया जाता है। राधाकृष्ण के प्रेम अथवा मीरा की भक्ति से सम्बन्धित गीतों की लय गरबा में रहती है। इन पदों में कितना सौन्दर्य और आसक्ति है ----

"नागर नंदजी ना लाल
रास रमता मारी नथनी खोवाणी"
"हूँ तो जोगण बनी हूँ म्हारा बालमजी,
बालमजी प्रेम आलमनी"
"उगे छे - प्रभात आज धीमे धीमे
उगे छे उषानु राज्य धीमे धीमे"


राजस्थानी लोकगीत :


राजस्थानी लोकगीत संगीत के क्षेत्र में अनमोल हैं। इनको किसी ने न लिखा है और न ही इनके रचयिता का पता है। ये मौखिक परम्परा और अनुश्रूती पर आधारित रहे हैं। मानस पटल की उपज लोने के नाते इनमें सांस्कृतिक और कलात्मक प्रवृत्तियाँ प्रविष्ट हो जाती हैं। इनमें मानव समाज की विशिद्ध मनोवृत्तियाँ और भावनाएँ समयोचित प्रसंगों पर हर्ष - विषाद, प्रेम ईर्ष्या, उल्लास - भक्ति आदि प्रकट होती हैं। मौखिक होने से एकल और बहुधा सामुहिक रुप से इन्हें गाया जाता है। इनके द्वारा बुद्धि, सौन्दर्य, सुख, भक्ति तथा आनन्द का अनुभव होता है। विवाह, जन्म या अन्य त्यौहारों पर पति - पत्नि, ननद - भौजाई, सती, मातृ - भक्ति, शौर्य, रीति - रिवाज, शक्ति, आराधना, ज्ञान, दर्शन, नीति आदि विषयों को प्राचीन और वर्तमानकालीन आदर्शों और मानव धर्म के सिद्धान्तों के रुप में इनमें अभिव्यक्ति होती हैं। गीतों में उपदेश और त्याग का इतना वर्णन रहता है कि गाने वाले और सुनने वाले में एक नई प्रेरणा का भाव भर जाता है। विवाह और पुत्र जन्म के गीतों में उल्लास है तो पुत्री की विदाई में लौकिक दुख का प्राबल्य है। इसी तरह रात्रि - जागरण के गीतों में भक्ति रस समाया मिलता है। तीज के त्यौहार के गीतों में प्राकृतिक छटा और पति - पत्नि संयोग या वियोग तथा सहेलियों के सहवास के भावों का अच्छा संयोग दिखाई देता है। जन - जीवन में व्याप्त हर्ष, कामनाओं और अभिलाषाओं का यदि अविरल स्रोत प्राप्त करना है तो वह लोकगीतों में मिलेगा। लोकगीतों का माध्यम जितनी स्रियाँ हैं उतने पुरुष नहीं। जितना प्रेम, स्नेह, विषाद, पीड़न, और उल्लास का चित्रण महिलाएँ कर सकती हैं अन्य व्यक्ति नहीं कर सकते। उनके कण्ठ स्वर निकलते हैं व वास्तविकता के निकट में सहजता से पहुँचते हैं। गीत के बोल बालिका अवस्था में यौवन या प्रौढ़ अवस्था तक वेद वाक्य बन जाते हैं जिससे महिलाओं में एक अनमोल आस्था उत्पन्न होती है। वेदों की भाँति लोकगीत भी हमारी संस्कृति के अटूट भण्डार बन जाते हैं और समाज के भव्य भवन को स्थायित्व प्रदान करते हैं।

गणगौर के अवसर पर गाये जाने वाले अनेक गीतों में भक्ति और प्रेम टपकता है जो साहित्य की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है :
"खेलग दौ गिणगौर भमवर, म्हाँनै पूजण दौ गिणगौ
औ जी म्हारी सैल्याँ जौवे बार, भँवर म्हानै खैलण दौ गिणगौर"
इसी प्रकार यौवन की पिपासा के साधनों के जुटाने में स्री हृदय कितनी शान्ति का अनुभव करती है जो इस गीत में प्रकट है :
"चुग - टुग कलियाँ सेज बिछाई
पौढणरी रुत आसी"
मारुजी को सम्बोधित कर सौभाग्याकांक्षा का रुप भी इन पंक्तियों द्वारा पत्नी व्यक्त करती है :
"उदयपुर से तो सायबा पीलो मंगओजी
तो नानीसी बंधण बंधाओ गाढा मारुजी"

विवाह या बनौले के अवसर रक गाये जाने वाले गीतों में राजस्थान की गर्मी और सौन्दर्य का अच्छा वर्णन है :

"धूप तपे धरती तपे रे
गोरो गोरो मुखड़ों कुम्हलाय"
तीज सम्बन्धित गीतों में कितनी लालसा है :
"तीज सुण्याँ घर आव

मँझल आपरो नौकरी महाराज
जीत सुण्याँ घर आव"
होली सम्बन्धी गीत में कितना उल्लास भरा है :
"म्हाँरी घूमर छे नखराली ए माँ
घूमर रमवा म्हे जास्याँ "

राजस्थान में लोक संगीत किसी न किसी लोकवाद्य से जुड़ा हुआ है। पाबुजी की कथा के साथ रावण हत्या या गूजरी, बगड़ाव के साथ गला लगे, अर्जुननंग (बाँसवाड़ा, डूँगरपुर) के साथ केन्द्र और अनेक बड़ी गेय कथाओं के साथ तंदूरा व मजीरा जुड़ा हुआ है। यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अनेक अवदानात्मक नायकों के साथ वाद्य विशिष्ट रुप से प्रयुक्त हो रहे हैं। इसी प्रकार देवीयों के साथ भी वाद्य हैं। कैलादेवी के मेले में नगाड़ें, तासे और तीनतारा है जो सारंगी की तरह बजाया जाता है। उसके तीन मुख्य तार घोड़ों की पूँछ के बाल के गुँथाव से लगाए जाते हैं। जोगिया सारंगी का प्रसार पूरे अलवर, भरतपुर जिले में हैं --साथ ही झूँनझूँनू, सीकर से लेकर नागौर तक का मुख्य लोक वाद्य है। जोगियों के साथ साथ कोली, माली व गू भी एक प्रकार का पूंगी वाद्य बजाते हैं। इस क्षेत्र में इसे पूंगी कहा जाता है। सामान्यत: पूंगी नामक वाद्य का नाम सपेरों से जुड़ा हुआ है। नलीवाले तूँबे से यह वाद्य बनता है। किन्तु इस क्षेत्र में पूंगी का अर्थ मशक व बंग पाइप है। यह बकरी की खाल से बनी एक बड़ी मशक है जिसमें एक ओर वाल्व लगे हुए मुख से फूँक भरी जाती है जिससे रीड लगी हुई दो बाँसुरियों से संगीत - ध्वनी निकलती है। सांगीतिक रुप में पूँग का प्रयोग सीमित है। इसमें केवल पाँच छेद होते हैं जो पूरे सप्तक का काम नहीं करते। इस प्रकार के पाँच छेद वाले वाद्य लक्ष्मणगढ़ के मीणा क्षेत्र से लगे आदिवासी जन - समुदाय में प्रचलित है जो खेराड़ और मेवाड़ तक चले जाते हैं। भीलवाड़ा के निकट भी भीलों द्वारा देशी मशक बनाई व बजाई जाती है। लक्ष्मणगढ़ एवं उसके आसपास के क्षेत्र में मेव व मीणों की बड़ी बस्तियाँ हैं। इन मेवों में मिरासी है जो गायक हैं, ये चिकारा, जोगिया, सारंगी, शास्रीय सारंगी जैसे यन्त्र वाद्यों को बजाते हैं। भपंग एक प्रकार का लय वाद्य है तो तूँबे पर चमड़ा मढ़ कर एक तार के तनाव से बजता है। मिरासियों में भपंगवादन अदभुत् जटिल लयों को अनुबंधित कर सकता है। भीलों में ढूचकों एवं भपूंग वाद्य प्रचलित है। ढोल, शहनाई, ढोलक, पूँगियों आदि का प्रयोग विवाह, त्यौहार आदि रीजि - रिवाजों और उत्सवों में किया जाता है।


लोकगीत, लोकनाट्य एवं लोकवाद्य राजस्थानी संस्कृति एवं सभ्यता के प्रमुख अंग हैं। आदिकाल से आजतक इन कलाओं का विविध रुप में विकास होता आया है। इन कलाओं का पारस्परितक सम्बन्घ भी घनिष्ठ है। इन सभी का साथ -साथ प्रयोग रंगमंच या तौराहों पर समां बाँध देता है। ये कलाएँ किसी न किसी पूर में शास्रीय संगीत की सीधी विचारों से नहीं जुड़ती हैं परन्तु लय और ताल में समानता आ जाती है। यदि इन कलाओं के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि रह युग में इनमें एकरुपता रही है जिनकी अभिव्यक्ति राजस्थानी जन जीवन में प्रस्फुटित हुई है। इन विद्याओं के विकास में भक्ति, प्रेम, उल्लास और मनोरंजन का प्रमुख स्थान रहा है। इनके पल्लवन में लोक - आस्था की प्रमुख भूमिका रही है। बिना आस्था और विश्वास के इन लोक कलाओं में अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
लोककला का राजस्थानी स्वरुप आज भी भारतीय लोककला को नई दिशा देने में अग्रणी है। इनकी केन्द्रीय स्थिती पंजाब, मध्य भारत एवं गुजरात तथा उत्तर प्रदेश इन लोक कलाओं से प्रभावित है। इन भागों के विविध जीवन पक्षों में राजस्थानी लोक कलाओं के प्रभाव का दिग्दर्शन होता है। इन कलाओं के विषय और साहित्य ने भारत के ही नहीं, विदेशों के कला मर्मज्ञों के हृदय को भी आकर्षित करने में सफलता प्राप्त की है ग्राहस्थ्य जीवन की सभी साधें लोक कला के माध्यम से प्रकट हुई है।

राजस्थान के स्थापत्य का इतिहास

राजस्थान के स्थापत्य का इतिहास 




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राजस्थान के स्थापत्य का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना मानव सभ्यता का इतिहास। प्रमाणों से ज्ञात है कि राजस्थान का आदि - निवासी पूर्व - प्रस्तर युगीन मानव था। सरस्वती, चम्बल, बनास, तथा लूनी नदियों तथा अरावली की श्रेणियों के किनारों और गड्ढ़ों में जमी हुई परतें तथा उनके आस - पास के क्षेत्रों में मिलने वाली पत्थरों के औजार इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यहाँ का आदि - मानव इन नदियों के तटों और अरावली पर्वत की उपत्यकाओं में कम से कम एक लाख वर्ष पूर्व रहता था। कालांतर में इस पूर्व प्रस्तरकालीन मानव ने उत्तर - प्रस्तरकालीन युग में प्रवेश किया। इस समय तक वह भौंडे औजारों के बजाए पैने एवं चमकीले औजारों को बनाना सीख गया था। मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग तथा चमड़े एवं वल्कल के वस्रों का प्रयोग वह जान चुका था।
इसी प्रकार घास -फूस की झोपड़ियों का घर बनाकर रहने की विधि वह जान चुका था। अन्तत: पूर्व - प्रस्तर कालीन मानव से उत्तर प्रस्तर युगीन मानव में कुछ अन्तर आ चुका था। वह कन्दराओं के बजाय नदी - तटों के खुले स्थानों पर घास - फूस - बाँस की झोंपड़ी बनाकर प्रागैतिहासिक स्थापत्य का जन्मदाता बना और वही उस युग की संस्कृति का द्योतक है। आज भी राजस्थान के घने - जंगली, रेतीले बीहड़ पहाड़ी भागों में रहने वाले आदिवासियों के समुह - समुदाय ऐसे स्थापत्य का प्रयोग करते हैं। कालांतर में प्रस्तर - युगीन मानव प्रस्तर धातु युग में प्रवेश कर गया। स्थापत्य की धुंधली एवं अन्धकारपूर्ण अवस्था में अब समाप्त होती है और राजस्थान की स्थापत्य संस्कृति एक दम आगे बढ़ती है। यहाँ आकर स्थापत्य का एक विशेष रुप देखने को मिलता है। गंगानगर जिले में कालीबंगा और सौंथी में पुरातत्व सम्बन्धी खुदाईयों से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि ॠगवेद काल से कई सदियों पूर्व सरस्वती एवं दृषद्वति, जिन्हें आजकल घघ्घर और छटूंग कहते हैं के काठे पर जीवन सक्रिय था। इन काठों की उपजाऊ स्थिती अच्छी होने के कारण यहाँ की सभ्यता सक्रिय थी तथा यहाँ की संस्कृति उच्चकोटी की थी। इस प्रान्त के कई रेतीले ढेरों में उन्नत सभ्यता के केन्द्र ढ़ंके पड़े थे। इन ढ़ेरों की खुदाई से प्रमाणित है कि ये समृद्ध सभ्यता के केन्द्र किसी विशेष शैली के अनुरुप बने थे जिनमें हड़प्पा और स्थानीय स्थापत्य की विशेषताओं का समावेश था। यहाँ की चौड़ी सड़कें, सार्वजनिक नालियाँ, दुर्ग का प्राकार, गोल कुएँ, क्रमिक अन्तर वाली नालियाँ, गलियाँ, छोटे - बड़े सटे हुए मकान, वेदियाँ आदि उस युग की शालीन स्थापत्य के साक्षी हैं। दीवारें कच्ची तथा सूर्यतापी ईंटों की होती थी। सड़के विशेष प्रकार के गोल मिट्टी के ढेलों से कड़ी की जाती थी, मकानों के द्वार छोटे होते थे और घरेलू पानी निकलने की व्यवस्था रहता थी। दुर्ग, आंगन, प्राकार वेदी आदि से सांस्कृतिक सम्पन्नता के अच्छे प्रमाण यहाँ देखने को मिलते हैं।

सरस्वती सभ्यता के बाद दक्षिण - पश्चिमी राजस्थान की संस्कृति का जन्म हुआ। यह संस्कृति भी ऐतिहासिक काल तक अनेक रुपों में विकसित होती रही। आहड़, गिलूँड आदि केन्द्र इस सभ्यता के केन्द्र रहे। यहाँ के मकान, छतें, द्वार, बाँस की दीवारें . भौंडे पत्थरों के आंगन तथा दीवारें उस युग के स्थापत्य पर पूरा प्रकाश डालते हैं। मकानों में खिड़कियाँ, द्वार, बरामदे, खुले चौक आवास की पूरी इकाई बनाते थे जो यहाँ की समृद्ध अवस्था पर प्रकाश डालते हैं। ताँबे के कतिपय खानों के निकट होने से खनन कार्य में लगे हुए मानव का बोध होता है। आज भी इसका पुराना नाम ताम्रवती नगरी से जाना जाता है।

इसी प्रकार पौराणिक सभ्यता के युग में राजस्थान के कई सांस्कृतिक केन्द्रों को बोध होता है जिनमें पुष्कर, मसध्वन जाँगल, मत्स्य, साल्व, मरुकांतार आदि प्रमुख हैं। इनसे सम्बन्धित उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्बुद, पुष्करारण्य, बागड़ आदि भागों में जहाँ - जहाँ नगरों के विकास हुआ, वहाँ नगर के चारों तरफ खाईयाँ तथा प्राकारों के निर्माण हुए तथा नगरे में प्रासाद, भवन, वापिकाओं तथा उद्यानों की व्यवस्था रखी गई। पहाड़ी तथा जंगल में बसने वाली बस्ती में घास -फूस, बाँस, खपरैल के मकान बने जिन्हें काँटेदार झाड़ियों से सुरक्षित रखा जाता थआ। इस प्रकार के स्थापत्य से अनुमान है कि उस समय तक नागरिक एवं ग्रामीण स्थापत्य का स्वभाव विकसित हो चुका था और उसके सामंजस्य से एक उन्नत सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म हुआ।


राजस्थान : मौर्यर्काल से उत्तर गुप्तकालीन युग

राजस्थान : मौर्यर्काल से उत्तर गुप्तकालीन युग 




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मौर्यर्काल से उत्तर गुप्तकालीन युग में भारतीय स्थापत्य की भांति राजस्थान में स्थापत्य का एक विशेष रुप में विकास हुआ। इस काल की कला केवल राजकीय प्रश्रय की ही पात्र न थी वरन् उसे जन प्रिय बनने के सौभाग्य प्राप्त था। वैराट नगर जोकि जयपुर जिले में है, अशोक कालीन सभ्यता का एक अच्छा उदाहरण है, यहाँ के भग्नावशेषों में स्तम्भ लेख आदि बौद्ध विहार के खण्डहर प्रमुख हैं। स्तम्भ लेख राजकीय कला के प्रतीक हैं तो बौद्ध विहार के अवशेष जनता के भाव और विश्वास के। इस युग में तथा बाद के युगों में राजस्थानी स्थापत्य में जैन, बौद्ध और हिन्दु विषयों - विचारों को प्रतिष्ठित स्थान मिला। मध्यामिका में, जिसे आजकल नगरी कहते हैं और जो चित्तौड़ से आठ मील उत्तर में बेड़य नदी पर स्थित है, इन विविध प्रवृत्तियों के अच्छे नमूने उपलब्ध हैं। इस नगरी के भग्नावशेष नदी के किनारे - किनारे दूर - दूर तक फैले हुए हैं। यत्र - तत्र कई ईंटे, मंदिर के अवशेष तथा भग्नों के अवशेषों के आधार पर दिखाई देते हैं। इस नगरी के भग्नावशेषों से स्पष्ट है कि यह नगरी तीसरी सदी ईसा पूर्व से छठीं सदी ईसा पूर्व तक एक समृद्ध नगर था। वर्तमान नगरी से कुछ दूर आज भी विशाल प्रस्तर खण्ड प्राकार के रुप में मिलते हैं जो तीसरी सदी ईसा पूर्व के स्थापत्य की विशालता और विलक्षणता प्रमाणित करते हैं। नगर के दक्षिण की ओर नहर के अवशेष मिले हैं जो नदी की बाढ़ से नगर को सुरक्षित रखनो तथा कृषि के उपयोगार्थ बनायी गई थी। यहाँ से मिलने वाली ईंटें, प्रस्तर खण्ड, प्राकार के लम्बे और ऊँचे पत्थर उस युग के स्थापत्य कौशल के अद्वितीय उदाहरण हैं तथा प्रमाणित करते हैं कि उस समय धार्मिक तथा सार्वजनिक भवनों की मिर्माण कला उच्च स्तर की थी, जो आगे आने वाले युग के लिए अद्वितीय देन थी।


इसी तरह उस युग के उत्तरपूर्वी तथा दक्षिण - पश्चिमी राजस्थान, जयपुर तथा कोया के आसपास के क्षेत्र वास्तुकला की दृष्टि से महत्व के हैं। उदाहरणार्थ, नाद्रसा (२२५ ई०) ककोटनगर, रंगमहल आदि अपने धर्म, कृषि वाणिज्य, व्यापार तथा शिल्प की समृद्ध स्थिती के कारण अच्छी बस्ती के स्थान थे। पुरमण्डल, हाडौती, शेखामटी और जाँगल प्रदेश में भी स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं। परन्तु जब हम गुप्तकाल और गुप्तोत्तर काल में प्रव्श करते हैं तो राजस्थान के स्थापत्य में एक शक्ति और दक्षता का संचार दिखाई देता है। मेनाल, अमझेरा, डबोक आदि कस्बों के भग्नावशेषों से परावर्ती शताब्दी के नगर निर्माण के अच्छे उदाहरण मिलते बैं। कुण्ड, वापिकाएँ, सड़कें, मंदिर, नालियाँ, आदि का प्रमाणिक संतुलन इन खण्डहरों में देखने को मिलता है। इस समूचे काल के सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने भवन निर्माण तथा नगम विकास योजनाओं को ईंटों तथा पत्थर के आकार और प्रकार से आभारित किया। इसी तरह कल्याणपुर का वीरान नगर हमें स्थापत्य के क्षेत्र में नयी दिशा में सोचने की ओर आकृष्ट करता है। यह नगर निकवर्ती दो धाराओं वाली नदी के बीच में बसा हुआ था जिसके किनारे - किनारे मंदिर और बीच - बीच में बस्ती, खेत आदि के खण्डहर दिखाई देते हैं। कल्याणपुर तथा बसी आदि नगरों से मिलने वाले ईंटों को देखकर यह आश्चर्य होता है कि उस युग की संस्कृति कितनी विकसित रही होगी !

राजस्थान : सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी

राजस्थान : सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी 




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जब हम सातवीं से तेरहवी शताब्दी के स्थापत्य का पर्यवेक्षण करते हैं तो हम पाते हैं कि वह एक नये राजनीतिक परिस्थिती के अनुरुप ढल जाता है। इसी युग में अर्बुदांचल प्रदेश में परमार, मेवाड़ और बाँगड में गुहिल, शाकाम्भरी में चौहान, ढूँढ़ाड़ में कच्छपाट, जाँगल व मरु में राठौर, मत्स्य व राजगढ़ में गुर्जर प्रतिहार आदि राज्यों का उदय होता है। ये राजवेश बल और शौर्य को प्रधानता देते थे और विस्तार की ओर अग्रसर थे। यही कारण है कि इस काल की वास्तुकला में शक्ति विकास तथा जातीय संगठन की भावना स्पष्ट झलकती है। उदाहरणार्थ नागदा चीखा, लोद्रवा, अर्थूणा, चाटसू आदि कस्बों को घाटियों पहाड़ों या जंगल तथा रेगिस्तान से आच्छादित स्थानों में बसाया गया और इनमें वे सभी साधन जुटाएँ गये जो युद्धकालीन स्थिती में सुरक्षा के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकते थे। इन कस्बों को राजकीय निवास का केन्द्र भी बनाया गया जिससे राजवंशों को आसपास के भागों पर अपना अधिकार स्थापित करने में कोई कठिनाई न हो। इन कस्बों में राजकीय अधिकारियों के आवास तथा धर्मगुरुओं के ठहरने की भी व्यवस्था की गयी थी। नागदा, जो गुहिलों की राजधानी थी, अच्छे पत्थर से मढ़ी हुई सड़कों और नालियों से सुशोभित थी।
वही सड़क आज बाघेला तालाब में छिपी हुई उस युग की दुहाई दे रही है। इस काल में नगरों में बस्तियां किस प्रकार विभाजित थीं और उनकी योजना का सम्पूर्ण ढ़ाँचा कैसा था उसका पूरा चित्रण करना तो बड़ा कठिन है परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नगर निर्माण में प्रयुक्त स्थापत्य का प्रमुख आधार महाभारत, अर्थशास्र, कामसूत्र, शुक्रनीति, अपराजिताप्रेच्छ आदि ग्रन्थों में दिए गए सिद्धान्तों के अनुरुप था। उदाहरणार्थ नगरों को परकोटों तथा खाईयों से सुरक्षित रखने तथा राजप्रसादों को सुदूर भवनों, मंदिरों और उद्यानों से सुशोभित करने पर बल दिया जाता था। यथासम्भव बस्तियों को क्षेत्रों के अनुसार बाँटा जाता था। इन सांस्कृतिक सूत्रों के अनुपालन हमें मध्ययुगीन वास्तुकला में दिखाई देता है। उदाहरणार्थ वैर सिंह ने ११वीं शताब्दी में आधार नगर के चारों ओर परकोटे की व्यवस्था की थी। इंगदा नामक कस्बे में बस्तियों को वर्ण तथा व्यवसाय के अनुसार बसाया गया था। इसमें ब्राह्मणों के रहने के भाग को ब्रह्मपुरी कहते थे। देलवाड़ा में भी बस्ती का बँटवारा व्यवसाय के अनुरुप किया गया था। 

आमेर १६वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक कछवाहों शासकों के शक्ति का केन्द्र था, जिसे एक विशेष, योजना के साथ बसाया गया था। दोनों तरफ की पहाड़ियों की ढ़लानों पर हवेलियाँ तथा उँचे - ऊँचे भवन बनाये गए थे और नीचे के समतल भाग में पानी के कुण्ड, मंदिर, सड़कें, बाजार आदि थे। पहाड़ी रास्तों को संकरा रखा गया था जिससे सुरक्षा की व्यवस्था समुचित रुप से हो सके। उँची पहाड़ियों पर राजभवनों के निर्माण करवाया गया था, परन्तु आगे के युग में जब आमेर में विकास की गुंजाइश नहीं रही तो कछवाहा शासक जयसिंह ने जयपुर नगर को खुले मैदान में चौहड़ योजना के अनुरुप बसाया और उसे चारों ओर दीवार और परकोटों से सुरक्षित किया। नाहरगढ़ को सैनिक शक्ति से सुसज्जित कर सम्पूर्ण मैदानी भाग की चौकसी का प्रबन्धक बनाया गया। जगह - जगह जलाशय, आरामगृह, फव्वारे, नालियाँ - नहर,, चौड़ी सड़कें, चौपड़ आदि बनायी गई जिनके नीर्माण में मुगल तथा राजपूत स्थापत्य का समुचित समन्वय समावेशित किया गया। जयपुर नगर की योजना भी व्यवसाय के अनुरुप बस्तियों की व्यवस्था थी। १२ वीं शताब्दी में जैसलमेर का निर्माण जंगल की समीपता और पानी की सुविधा को ध्यान में रखकर किया गया था। जैसलमेर अलग - अलग वस्तुओं के क्रय - विक्रय का केन्द्र था। समूची योजना, जन जीवन और व्यापार की समृद्धि के हित में थी।

अजमेर चौहानों के समय समृद्ध नगरों में गिना जाता था। हसन निजामी, अबुल फजल, सर टामस रो आदि लेखकों ने अजमेर की सम्पन्न अवस्था पर काफी प्रकाश डाला है। मालदेव ने अजमेर परिवर्किद्धत करने में काफी योग दिया। अकबर और शाहजहाँ ने इसे सुसज्जित करने में कोई कसर न रखी। मराठों ओर अंग्रेजों के शासनकाल तक अजमेर भवन - निर्माण, बाजारों के व्यवस्था आदि वाणिज्य स्थिती में अपना अनूठापन रखता रहा है। दरगाह शरीफ होने से और उसके निकट पुष्कर होने से इसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व और अधिक बढ़ जाता है।

बूँदी के स्थापत्य में तथा उसके बसाने में पानी के प्राचुर्य का बड़ा हाथ रहा है। जोधपुर और बीकानेर की बसावर में गढ़ निर्माण, परकोटे भवन - निर्माण आदि भौगोलिक परिस्थियों से सम्बन्धित है। जोधपुर में कहीं कहीं ऊँचाईं और ढ़ालों को बस्तियों को बसाने के उपयोग में लाया गया और सड़कों तथा नालियों की योजना उसके अनुकूल की गई। बीकानेर में समतल भूमि में व्यवसाय के अनुसार नगर को बाँटा गया था तथा हाटों और बाजारों को व्यापारिक सुविधा के अनुरुप बनवाया गया। उदयपुर को झील के किनारे घाटियों के अनुरुप व्यवसाय के अनुरुप विचारों से मुहल्लों में बाँटा गया। बस्ती के बीच - बीच कहीं कहीं खेत और बगीचे देकर उसे अधिक आकृष्ट बनाया गया। नगर के बसाने में प्राकार, खाई तथा पहाड़ी श्रेणियों का उपयोग किया गया। पहाड़ी ढ़लान, चढ़ाव और उतार को ध्यान में रखेत हुए सारे नगर को टेढ़ा - मेढ़ा इस तरह बसाया गया कि मध्यकालीन उदयपुर की योजना में कहीं रास्ते या चौपड़ की व्यवस्था नहीं दीख पड़ती। नगरों के में गाँवों की वास्तुकला भिन्न है। गाँव नदी के निकट व किनारे मिलते हैं, उनको लम्बे आकार में खुली बस्ती के रुप में बसाया गया। पहाड़ी इलाके के गाँव पहाड़ी ढ़लान और कुछ ऊँचाईं लिए हुए हैं; उदाहरणार्थ केलवाड़ा, सराड़ा आदि। पहाड़ों और घने जंगलों में आदिवासियों की बस्तियाँ छोटे - छोटे टेकरियों पर दो - चार झोपड़ियों के रुप में बसी मिलती हैं, जिनके चारों ओर काँटें की बाड़ें लगी रहती है जिससे जंगली जानवरों से सुरक्षा भी बनी रहती है। इस प्रकार एक परिवार दूसरे परिवार से विलगता भी बनाये रखते हैं। मेवात के ऐसे गाँवों का जिक्र जोहर ने पुस्तक"तजकिरात"में किया है। रेगिस्तानी गाँवों के पानी की सुविधा को ध्यान में रखकर बसाया जाता है, इसीलिए बीकानेर और जैसलमेर के गाँवों के आगे"सर ' अर्थात जलाशय का प्रयोग बहुधा पाया जाता है, जैसे बीकानेर, जेतसर, उदासर आदि। गाँवों की वास्तुकला में बड़ी इकाई वाले मकान का मुख्य द्वार बिना छत का होता है या बड़े छप्पर के बरामदे से जुड़ा होता है। बीच में खुला आंगन एवं पशुओं की शाल एवं निवास - गृह के कच्चे मकान होते हैं जिन्हें केवल घास - फूस से छा दिया जाया है, साधारण स्थिती के ग्रामीण एक ही कच्चे मकान में गुजारा करते हैं जो अन्न संग्रह, रसोईघर और पशु बाँधनें के काम आता है। ऐसे मकानों के द्वार छोटे रहते हैं जिनमें रोशनदान या खिड़कियों का प्रावधान नहीं होता। जन - जीवन के विकास के साथ राजस्थान में ग्रामीण स्थापत्य की स्थिती बदल रही है और राज्य सरकार खुले, पक्के व हवादार मकानों को बनवाने की व्यवस्था जगह - जगह कर रही है। इसी तरह नगरों के स्थापत्य में भी बड़ी द्रुत गति से बदलाव आ रहा है। प्राचीन नगरों में जो ग्रामीण और नागरिक स्थापत्य का सामंजस्य था,वह विलीनप्राय होता जा रहा है। इनमें आधुनिक संस्कृति प्राचीनता के तत्वों को कम करती जा रही है। 

राजस्थानी राजप्रासाद और स्थापत्य

राजस्थानी राजप्रासाद और स्थापत्य 



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स्थापत्य का विशिष्ट रुप राजप्रासाद है। प्राचीनकाल के राजप्रासादों के खण्डहर पूरी तरह उपलब्ध नहीं होते, परन्तु यह निश्चित है कि जब से राजस्थान में राजपूतों के राज्य स्थापित होने लगे तब से राजभवनों का निर्माण होने लगा। मेनाल, नागदा, आमेर आदि में पूर्व मध्यकालीन काल में राजभवनों के अवशेष देखने को मिलते हैं जिनमें छोटे - छोटे कमरे , छोटे - छोटे दरवाजे तथा खिड़कियों का अभाव प्रमुख रुप से होता रहा है। दो किनारों कमरों को बरामदे से जोड़ा जाना भी राजभवन के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता रही है।
मण्डन शिल्पी ने राजभवनों को बनाने का स्थान या तो नगर के बीच में या नगर के एक कोने में ऊँचे स्थान पर ठीक माना है। उसके अनुसार राजभवनों के ढ़ाँचे में दुर्गों की भांति प्राकार तथा कुओं का होना आवश्यक माना जाता है। उसके अनुसार अन्त: पुर और पुरुष कक्षों को सँकरे ढ़ँके हुए भागों से जोड़ना अच्छा समझा जाता है। उसने महलों में दरबार लगाने, आम जनता एवं दरबारियों से मंत्रणा करने के कक्षों पर बल दिया है राजभवन के अन्तर्गत रसोईघर, शस्रागार, धान्य भण्डार, मंदिर, राजकुमारों के कक्षों को मान्यता दी है जो भारतीय शास्रीय पद्धति के अनुरुप है। वैसे राजभवन साधारण गृहस्थ के मकानों का वृहद रुप मात्र है, जिसमें सादगी की मात्रा अधिक देखी गई है। नीची छतें, छोटे - छोटे आवास, पतली गैलेरियाँ, छोटे - छोटे दालान इन राजभवनों की विशेषता रही है। महाराणा कुंभा जैसे शक्तिशाली व संपन्न व्यक्ति ने, जिसने कई विशाल दुर्ग बनवाएँ, अपने लिए कुम्भलगढ़ में सादे मकान स्वयं के रहने के लिए बनवाया जो साधारण व्यक्ति के मकान से अधिक विशएषता नहीं रखता था। परन्तु जब राजपूतों को सम्बन्ध मुगलों से जुड़ा तथा उनमें आदेन - प्रदान का क्रम आरम्भ हुआ तो इन राजभवनों को भव्य, रोचक तथा क्रमबद्ध बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इनमें फव्वारें, छोटे बाग, पतले खम्भे, दीवारों पर बेलबूटे, संगमरमर का काम, आदि का समावेश हो गया। 

उदयपुर के अमरसिंह के महल, जगनिवास, जगमंदिर, जोधपुर के फूलमहल, आमेर व जयपुर के दीवाने आम व दीवाने खास, तथा बीकानेर के रंगमहल, कर्णमहल ,शीशमहल, अनूपमहल आदि में राजपूत तथा मुगल - पद्धति का समुचित समन्वय है। बूँदी, कोटा तथा जैसलमेर के महलों में मुगल शैली क्रमश: बदलती दिखाई देती है। कारण यह है कि ज्यों - ज्यों राजपूत सरदार मुगलों के दरबार में अधिकाधिक जाने लगे, त्यों - त्यों कलात्मक विचारों का आदान - प्रदान भी होने लगा तथा उनमें मुगली शान के अनुरुप अपने राज्य में व्यवस्था लाने की भी रुचि बढ़ने लगी। मुगलों के पतन के पश्चात् तो मुगल - आश्रित कई कलाकारों के परिवार राजस्थान में आकर राजपूत दरबार के आक्षित बन गए। यहाँ तक सामन्तों तथा समृद्ध परिवारों के भवनों में भी यह समन्वय की प्रक्रिया बढ़ती गई। राजभवनों का निर्माण समन्वय परक हो गया। आज महलों पर पारिवारिक स्थापत्य का स्वरुप समन्वय के माध्यम से ही परखा जा सकता है।

जाम्भोजी और विश्नोई सम्प्रदाय

जाम्भोजी और विश्नोई सम्प्रदाय 


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मध्यकाल में राजस्थानमें अनेक संत हुए, जिन्होंने यहाँ के धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन को नवीन गति प्रदान की। डॉ पेमाराम के अनुसार, "उन्होंने हिन्दू तथा इस्लाम में प्रचलित आडम्बरों तथा रुढियों का खण्डण किया और समाज के वास्तविक रुप को समझने का निर्देश दिया।"
जाम्भोजी :
जाम्भोजी का जन्म, १४५१ ई० में नागौर जिले के पीपासर नामक गाँव में हुआ था। ये जाति से पंवार राजपूत थे। इनके पिता का नाम लोहाट और माता का नाम हंसा देवी थी। ये अपने माता - पिता की इकलौती संतान थे। अत: माता - पिता उन्हें बहुत प्यार करते थे। डॉ० जी० एन० शर्मा के अनुसार,"जाम्भोजी बाल्यावस्था से ही मननशील थे तथा वे कम बोलते थे, इसलिए लोग उन्हें गूँगा कहते थे। उन्होंने सात वर्ष की आयु से लेकर १६ वर्ष कीआयु तक गाय चराने का काम किया। तत्पश्चात् उनका साक्षात्कार गुरु से हुआ। माता - पिता की मृत्यु के बाद जाम्भोजी ने अपना घर छोड़ दिया और सभा स्थल (बीकानेर) चले गये तथा वहीं पर सत्संग एवं हरि चर्चा में अपना समय गुजारते रहे। १४८२ ई० में उन्होंने कार्तिक अष्टमी को विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की।
जाम्भोजी चिन्तनशील एवं मननशील थे। उन्होंने उस युग की साम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं एवं अंधविश्वासों का विरोध करते हुए कहा था कि -

"सुण रे काजी, सुण रे मुल्लां, सुण रे बकर कसाई।
किणरी थरणी छाली रोसी, किणरी गाडर गाई।।
धवणा धूजै पहाड़ पूजै, वे फरमान खुदाई।
गुरु चेले के पाए लागे, देखोलो अन्याई।।"

वे सामाजिक दशा को सुधारना चाहते थे, ताकि अन्धविश्वास एवं नैतिक पतन के वातावरण को रोका जा सके और आत्मबोध द्वारा कल्याण का मार्ग अपनाया जा सके। संसार के मि होने पर भी उन्होंने समन्वय की प्रवृत्ति पर बल दिया। दान की अपेक्षा उन्होंने ' शील स्नान ' को उत्तम बताया। उन्होंने पाखण्ड को अधर्म बताया और विधवा विवाह पर बल दिया। उन्होंने पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। ईश्वर के बारे में उन्होंने कहा - 

"तिल मां तेल पोहप मां वास,
पांच पंत मां लियो परगास।"
जाम्भोजी ने गुरु के बारे में कहा था -
"पाहण प्रीती फिटा करि प्राणी,
गुरु विणि मुकति न आई।"
भक्ति पर बल देते हुए उन्होंने कहा था -
"भुला प्राणी विसन जपो रे,
मरण विसारों के हूं।"
जाम्भोजी ने जाति भेद का विरोध करते हुए कहा था कि उत्तम कुल में जन्म लेने मात्र से व्यक्ति उत्तम नहीं बन सकता, इसके लिए तो उत्तम करनी होनी चाहिए। उन्होंने कहा -
"तांहके मूले छोति न होई।
दिल-दिल आप खुदायबंद जागै,
सब दिल जाग्यो लोई।"
तीर्थ यात्रा के बारे में विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था :
"अड़सठि तीरथ हिरदै भीतर, बाहरी लोकाचारु।"
मुसलमानों के बांग देने की परम्परा के बारे में उन्होंने कहा था -

"दिल साबिति हज काबो नेड़ौ, क्या उलवंग पुकारो।"
डॉ पेमाराम के अनुसार, उनके विचार कबीर से काफी मिलते- जुलते थे। जाम्भोजी १५२६ ई० में तालवा नामक ग्राम में परलोक सिधार गए। उनकी स्मृति में विश्नोई भक्त फान्गुन मास की त्रियोदशी को वहाँ उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जाम्भोजी की शिक्षाएँ, सबदवाणी एवं उनका नैतिक जीवन मध्य युगीन धर्म सुधारक प्रवृत्ति के प्रमुख अंग हैं।
विश्नोई सम्प्रदाय 
जाम्भोजी द्वारा प्रवर्तित इस सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए उनतीस नियमों का पालन करना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है -
"उणतीस धर्म की आंकड़ी, हृदय धरियो जोय।
जम्भेशेवर कृप करें, बहुरि जभ न होय। "
 
१) प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करना।
२) ३० दिन जनन - सूतक मानना।
३) ५ दिन रजस्वता स्री को गृह कार्यों से मुक्त रखना।
४) शील का पालन करना।
५) संतोष का धारण करना।
६) बाहरी एवं आन्तरिक शुद्धता एवं पवित्रता को बनाये रखना।
७) तीन समय संध्या उपासना करना।
८) संध्या के समय आरती करना एवं ईश्वर के गुणों के बारे में चिंतन करना।
९) निष्ठा एवं प्रेमपूर्वक हवन करना।
१०) पानी, ईंधन व दूध को छान-बीन कर प्रयोग में लेना।
११) वाणी का संयम करना।
१२) दया एवं क्षमाको धारण करना।
१३) चोरी,
१४) निंदा,
१५) झूठ तथा
१६) वाद - विवाद का त्याग करना।
१७) अमावश्या के दिनव्रत करना।
१८) विष्णु का भजन करना।
१९) जीवों के प्रति दया का भाव रखना।
२०) हरा वृक्ष नहीं कटवाना।
२१) काम, क्रोध, मोह एवं लोभ का नाश करना।
२२) रसोई अपने हाध से बनाना।
२३) परोपकारी पशुओं की रक्षा करना।
२४) अमल,
२५) तम्बाकू,
२६) भांग
२७) मद्य तथा
२८) नील का त्याग करना।
२९) बैल को बधिया नहीं करवाना।
  

जाम्भोजी की शिक्षाओं पर अन्य धर्मों का प्रभाव स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने जैन धर्म से अहिंसा एवं दया का सिद्धान्त तथा इस्लाम धर्म से मुर्दों को गाड़ना, विवाह के समय फेरे न लेना आदि सिद्धान्त ग्रहण किये हैं। उनकी शिक्षाओं पर वैष्णव सम्प्रदाय तथा नानकपंथ का भी बड़ा प्रभाव है।

डॉ पेमाराम के अनुसार,"इस प्रकार जाम्भोजी ने वैष्णव, जैन, इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों का समन्वय करके एक सार्वभौमिक पंथ (विश्णोई) को जन्म दिया।" 

दीक्षा विधि : 
जो व्यक्ति इस सम्प्रदाय के २९ नियमों का पालन करने के लिए तैयार हो जाता है, इसे दीक्षा दी जाती है। दीक्षा मंत्र तारक मंत्र या गुरु मंत्र कहलाता था, जो इस प्रकार था  :
"ओं शब्द गुरु सुरत चेला, पाँच तत्व में रहे अकेला।
सहजे जोगी सुन में वास, पाँच तत्व में लियो प्रकाश।।
ना मेरे भाई, ना मेरे बाप, अलग निरंजन आप ही आप।
गंगा जमुना बहे सरस्वती, कोई- कोई न्हावे विरला जती।।
तारक मंत्र पार गिराय, गुरु बताओ निश्चय नाम।
जो कोई सुमिरै, उतरे पार, बहुरि न आवे मैली धार।। "
  
इस सम्प्रदाय में गुरु दीक्षा एवं डोली पाहल आदि संस्कार साधुओं द्वारा सम्पादित करवाये जाते हैं, जिनमें कुछ महन्त भी भाग लेते हैं। वे महन्त, स्थानविशेष की गद्दी के अधिकारी होते हैं परन्तु थापन नामक वर्ग के लोग नामकरण, विवाह एवं अन्तयेष्टि आदि संस्कारों को सम्पादित करवाते हैं। चेतावनी लिखने एवं समारोहों के अवसरों पर गाने बजाने आदि कार्यों के लिए गायन अलग होते हैं।

अभिवादन का तरीका 
इस सम्प्रदाय में परस्पर मिलने पर अभिवादन के लिए 'नवम प्रणाम', तथा प्रतिवचन में' विष्णु नै जांभौजी नै' कहा जाता है।

सम्प्रदाय की विशिष्ट वेशभूषा :
जाम्भोजी के समय तथा उनके निकटवर्ती काल में विश्नोई समाज की कोई विश्नोई विशिष्ट वेशभूषा नहीं थी, परन्तु धीरे - धीरे इनकी विशिष्ट वेशभूषा बन गई थी। रिपोर्ट मर्दुमशुमार राज. मारवाड़ से पता चलता है कि विश्नोई औरतें लाल और काली ऊन के कपड़े पहनती हैं। वे सिर्फ लाख का चूड़ा ही पहनती हैं। वे न तो बदन गुदाती हैं न तो दाँतों पर सोना चढ़ाती है। विश्नोई लोग नीले रंगके कपड़े पहनना पसंद नहीं करते हैं। वे ऊनी वस्र पहनना अच्छा मानते हैं, क्योंकी उसे पवित्र मानते हैं। साधु कान तक आने वाली तीखी जांभोजी टोपी एवं चपटे मनकों की आबनूस की काली माला पहनते हैं। महन्त प्राय: धोती, कमीज और सिर पर भगवा साफा बाँधते हैं।

मृतक संस्कार :
मोहसिन फानी ने लिखा है कि विश्नोईयों में शव को गाड़ने की प्रथा प्रचलित थी। विश्नोई सम्प्रदाय मूर्ति पूजा में विश्वास महीं करता है। अत: जाम्भोजी के मंदिर और साथरियों में किसी प्रकार की मूर्ति नहीं होती है। कुछ स्थानों पर इस सम्प्रदाय के सदस्य जाम्भोजी की वस्तुओं की पूजा करते हैं। जैसे कि पीपसार में जाम्भोजी की खड़ाऊ जोड़ी, मुकाम में टोपी, पिछोवड़ों जांगलू में भिक्षा पात्र तथा चोला एवं लोहावट में पैर के निशानों की पूजा की जाती है। वहाँ प्रतिदिन हवन - भजन होता है और विष्णु स्तुति एवं उपासना, संध्यादि कर्म तथा जम्भा जागरण भी सम्पन्न होता है।

विश्नोई सम्प्रदाय का समाज पर प्रभाव :
इस सम्प्रदाय के लोग जात - पात में विश्वास नहीं रखते। अत: हिन्दू -मुसलमान दोनों ही जाति के लोग इनको स्वीकार करते हैं। श्री जंभ सार लक्ष्य से इस बात की पुष्टि होती है कि सभी जातियों के लोग इस सम्प्रदाय में दीक्षीत हुए। उदाहरणस्वरुप, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, तेली, धोबी, खाती, नाई, डमरु, भाट, छीपा, मुसलमान, जाट, एवं साईं आदि जाति के लोगों ने मंत्रित जल (पाहल) लेकर इस सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की।
राजस्थान में जोधपुर तथा बीकानेर राज्य में बड़ी संख्या में इस सम्प्रदाय के मंदिर और साथरियां बनी हुई हैं। मुकाम (तालवा) नामक स्थान पर इस सम्प्रदाय का मुख्य मंदिर बना हुआ है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन की अमावश्या को एक बहुत बड़ा मेला लगता है जिसमें हजारों लोग भाग लेते हैं। इस सम्प्रदाय के अन्य तीर्थस्थानों में जांभोलाव, पीपासार, संभराथल, जांगलू,लोहावर, लालासार आदि तीर्थ विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। इनमें जांभोलाव विश्नोईयों का तीर्थराज तथा संभराथल मथुरा और द्वारिका के सदृश माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त रायसिंह नगर, पदमपुर, चक, पीलीबंगा, संगरिया, तन्दूरवाली, श्रीगंगानगर, रिडमलसर, लखासर, कोलायत (बीकानेर), लाम्बा, तिलवासणी, अलाय (नागौर)एवं पुष्कर आदि स्थानों पर भी इस सम्प्रदाय के छोटे -छोटे मंदिर बने हुए हैं। इस सम्प्रदाय का राजस्थान से बाहर भी प्रचार हुआ। पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में बने हुए मंदिर इस बात की पुष्टि करते हैं।
जाम्भोजी की शिक्षाओं का विश्नोईयों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। इसीलिए इस सम्प्रदाय के लोग न तो मांस खाते हैं और न ही शराब पीते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपनी ग्राम की सीमा में हिरण या अन्य किसी पशु का शिकार भी नहीं करने देते हैं।
इस सम्प्रदाय के सदस्य पशु हत्या किसी भी कीमत पर नहीं होने देते हैं। बीकानेर राज्य के एक परवाने से पता चलता है कि तालवा के महंत ने दीने नामक व्यक्ति से पशु हत्या की आशंका के कारण उसका मेढ़ा छीन लिया था।
व्यक्ति को नियम विरुद्ध कार्य करने से रोकने के लिए प्रत्येक विश्नोई गाँव में एक पंचायत होती थी। नियम विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को यह पंचायत धर्म या जाति से पदच्युत करने की घोषणा कर देती थी। उदाहरणस्वरुप संवत् २००१ में बाबू नामक व्यक्ति ने रुडकली गाँव में मुर्गे को मार दिया था, इस पर वहाँ पंचायत ने उसे जाति से बाहर कर दिया था।
ग्रामीण पंचायतों के अलावा बड़े पैमाने पर भी विश्नोईयों की एक पंचायत होती थी, जो जांभोलाव एवं मुकाम पर आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेले के अवसर पर बैठती थी। इसमें इस सम्प्रदाय के बने हुए नियमों के पालन करने पर जोर दिया जाता था। विभिन्न मेलों के अवसर पर लिये गये निर्णयों से पता चलता है कि इस पंचायत की निर्णित बातें और व्यवस्था का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य था और जो व्यक्ति इसका उल्लंघन करता था, उसे विश्नोई समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था।
विश्नोई गाँव में कोई भी व्यक्ति खेजड़े या शमी वृक्ष की हरी डाली नहीं काट सकता था। इस सम्प्रदाय के जिन स्री - पुरुषों ने खेजड़े और हरे वृक्षों को काटा था, उन्होंने स्वेच्छा से आत्मोत्सर्ग किया था। इस बात की पुष्टि जाम्भोजी सम्बन्धी साहित्य से होती है।
राजस्थान के शासकों ने भी इस सम्प्रदाय को मान्यता देते हुए हमेशा उसके धार्मिक विश्वासों का ध्यान रखा है। यही कारण है कि जोधपुर व बिकानेर राज्य की ओर से समय - समय पर अनेक आदेश गाँव के पट्टायतों को दिए गए हैं, जिनमें उन्हें विश्नोई गाँवों में खेजड़े न काटने और शिकार न करने का निर्देश दिया गया है।
बीकानेर ने संवत् १९०७ में कसाइयों को बकरे लेकर किसी भी विश्नोई गाँव में से होकर न गुजरने का आदेश दिया। बीकानेर राज्य के शासकों ने समय - समय पर विश्नोई मंदिरों को भूमिदान दिए गए हैं। ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि सुजानसिंह ने मुकाम मंदिर को ३००० बीघा एवं जांगलू मंदिर को १००० बीघा जमीन दी थी।
बीकानेर ने संवत् १८७७ व १८८७ में एक आदेश जारी किया था, जिसके अनुसार थापनों से बिना गुनाह के कुछ भी न लेने का निर्देश दिया था। इस प्रकार जोधपुर राज्य के शासक ने भी विश्नोईयों को जमीन एवं लगान के सम्बन्ध में अनेक रियायतें प्रदान की थीं। उदयपुर के महाराणा भीमसिंह जी और जवानसिंह जी ने भी जोधपुर के विश्नोईयों की पूर्व परम्परा अनुसार ही मान - मर्यादा रखने और कर लगाने के परवाने दिये थे।