Monday 18 August 2014

राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन के कारण

राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन के कारण 


Teju jani143


भक्ति आन्दोलन की प्रबलता
मध्यकालीन भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना भक्ति आन्दोलन का प्रबल होना था। कुछ विद्वानों का मानना है कि भक्ति आन्दोलन इस्लाम की देन था, किन्तु दकिंक्षण भारत में यह आन्दोलन छठी शताब्दी से नवीं शताब्दी के बीच प्रारम्भ हो गया था। भक्ति का प्रारम्भ ही दक्षिण भारत से माना जाता है, और यहाँ के आलावार सन्तों ने इस आन्दोलन को प्रारम्भ किया था। बाद में रामानुज ने इस आन्दोलन को दार्शनिक रुप प्रदान किया। अत: यह धारणा मि है कि भक्ति आन्दोलन इस्लान की देन है। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में उत्तर भारत में इस आन्दोलन को प्रबल बनाने का श्रेय रामानंद को जाता है। रामानंद के १२ शिष्य थे। वे अपने शिष्यों के साथ अपने मत का प्रचार करने के लिए उत्तरी भारत का भ्रमण करने लगे। उनके इस प्रचार का राजस्थान पर भी प्रभाव किया। उनके शिष्यों में कबीर प्रमुख थे। कबीर ने अपने विचारों से राजस्थान को भी प्रभावित किया। इसके फलस्वरुप राजस्थान में भी कई धर्म प्रचारकों का आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी भारत के अन्य सन्तों की भाँति परम्परागत धर्म में व्याप्त दोषों को दूर करने का हर संभव प्रयास किया। परिणामस्वरुप राजस्थान में भी धर्म सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।
राजस्थान में इस्लाम का प्रवेश
ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने राजस्थान पर निरन्तर आक्रमण किया। उन्होंने न केवल भारत का धन लूटा, बल्कि इस्लाम धर्म का प्रचार भी किया। उनका प्रमुख उद्देश्य भारत में अपनी सत्ता स्थापित करके यहाँ की सम्पत्ति को लूटना एवं इस्लाम धर्म का प्रचार करना था। इसलिए मुसलमानों ने सत्ता में आते ही हिन्दू मंदिरों को नष्ट करना एवं हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना प्रारम्भ कर दिया। मुसलमानों ने राजस्थान में अजमेर को अपना केन्द्र बनाया। यहाँ से ही उन्होंने जालौर, नागौर, चित्तौड़ एवं मांडल की ओर प्रस्थान किया था। वहाँ भी उन्होंने मंदिरों को गिराना एवं मूर्तियों को नष्ट करना जारी रखा। मुसलमानों के धार्मिक अत्याचारों ने हिन्दुओं को अपनी धार्मिक आस्था से डिगा दिया। जब ईश्वर ने उनकी रक्षा नहीं की, तो ऐसी स्थिती में वे निराशा के सागर में निमग्न हो गये। ऐसे वातावरण में धर्म सुधारकों ने धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर किया और निराश हिन्दुओं के दिल में अपने धर्म के प्रति आस्था का पुन: संचार किया।   

हिन्दुओं तथा मुसलमानों में समन्वयात्मक भावना का उदय
मुसलमानों ने प्रारम्भ में आक्रमणकारी के रुप में धर्म के नाम पर अत्यधिक अत्याचार किए। अत: हिन्दुओं में उनके प्रति रोष एवं आक्रोश की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक था, परन्तु जब मुसलमानों को यहाँ रहते हुए काफी समय व्यतीत हुआ, तो उनका धार्मिक जोश भी ठंडा पड़ गया था। दोनों सम्प्रदायों में विचारों का आदान- प्रदान होने लगा और दोनों ने एक दूसरे को समझने का प्रयत्न किया।
राजस्थान के शासकों ने भी मुस्लिम धर्माधिकारियों को सम्मानित करना प्रारम्भ कर दिया। महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने अजमेर की दरगाह को चार गाँव जागीर के रुप में प्रदान किये थे। मारवाड़ नरेश अजीतसिंह ने भी दरगाह के खर्चे के लिए कुछ अनुदान की राशि निश्चित कर दी थी। इस्लाम के सरल एवं सादगीपूर्ण विचारों ने हिन्दू धर्म को भी प्रभावित किया। इसके परिणामस्वरुप हिन्दू धर्म के कई समाज सुधारकों ने जाति - पांति, ऊँच - नीच एवं छुआछूत के भेदभावों का विरोध किया। इस प्रकार की विचारधारा से राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन की पृष्टभूमि तैयार हुई।   

सूफी मत के संतों का प्रभाव
सूफी मत सुन्नी मत से अधिक उदार तथा सरल है। सूफी सन्तों ने प्यार एवं मधुर वाणी के माध्यम से अपने विचार हिन्दुओं तक पहुँचाए। वे धार्मिक आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने अल्लाह तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिए संगीत (कव्वाली) का सहारा लिया। हिन्दू सन्त सूफी सन्तों के विचार से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने भी धर्म के बाहरी आडम्बरों की आलोचना करके कीर्तन पर अधिक जोर देना प्रारम्भ कर दिया। सूफी सन्तों तथा मुस्लिम दरवेशों ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सामंजस्य उत्पन्न करने का प्रयत्न किया

नवीन साहित्यिक ग्रन्थों का सृजन
सत्रहवीं शताब्दी में सृजित नवीन साहित्यिक ग्रन्थों ने धार्मिक आन्दोलन को बल प्रदान किया। हरि बोल चिन्तामणि व विप्रबोध मानक साहित्यकारों ने अपने साहित्यिक ग्रन्थों के माध्यम से हृदय की शुद्धि पर विशेष बल दिया। विप्रबोध का मानना था कि हरि सर्वोपरि है और उसे प्रार्थना के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। वह पंडितों एवं शेखों का विरोधी था। उसका मानना था कि ये लोग धर्म को मि आडम्बरों से ही ग्रसित करते हैं।"पश्चिमाद्रिस्तोत्र '' नामक ग्रन्थ में राम, रहीम, गोरख, पीर व अल्लाह को एक ही शक्ति के विभिन्न नाम बताये गये हैं। इन साहित्यिक ग्रन्थों की रचना का परिणाम यह हुआ कि राजस्थान के लोगों के धार्मिक विचार उदार हो गये। अब हिन्दुओं ने परम्परागत धार्मिक विचारों के दायरे से अपने को मुक्त कर दिया और नवीन उदार धार्मिक मान्यताओं को महत्व देना प्रारम्भ कर दिया।

राजस्थान के सिद्ध पुरुषों का धर्म आन्दोलन में सहयोग
राजस्थान के इस धार्मिक आन्दोलन की प्रवृत्ति हमें यहाँ के सिद्ध पुरुषों के चिंतन में भी स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होती है। ऐसे व्यक्ति जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन त्याग तथा बलिदान के साथ समाज सेवा एवं धर्म प्रचार में व्यतीत कर दिया था, उन्हें सिद्ध पुरुष कहा जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुषों को अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थीं, अत: जनता ने उन्हें देवत्व की भाँति पूजना शुरु कर दिया। ऐसे सिद्ध पुरुषों में गोगाजी, पाबूजी, तेजाजी एवं मल्लिनाथ आदि के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। गोगाजी ने यवनों के शिकंजे से गायों को छुड़वाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था। उनकी स्मृति में भाद्रपद की कृष्णा नवमी को गोगा नवमी का मेला भरता है।
 इसी प्रकार तेजाजी ने जाटों की गायों को मुक्त करवाने में अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे। वे खड़नवाल गाँव के निवासी थे। भादो शुक्ला दशमी को तेजाजी का पूजन होता है। तेजाजी का राजस्थान के जाटों में महत्वपूर्ण स्थान है। अन्य लोक देवों में पाबूजी, मल्लिनाथ एवं देवजी के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने अपने आत्म - बलिदान तथा सदाचारी जीवन से अमरत्व प्राप्त किया था। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों से जनसाधारण को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया और जनसेवा के कारण निष्ठा अर्जित की। उन्होंने जनसाधारण के हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति लुप्त विश्वास को पुन: जागृत किया। इस प्रकार लोकदेवों ने अपने सद्कार्यों एवं प्रवचनों से जन - साधारण में नवचेतना जागृत की, लोगों की जात - पांत में आस्था कम हो गई। अत: उनका इस्लाम के प्रति आकर्षण दिन - प्रतिदिन कम होता गया। इस प्रकार इन लोक देवताओं ने धर्म सुधार की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

धर्म तथा समाज में व्याप्त आडम्बर एवं कुप्रथायें
हिन्दू समाज तथा धर्म में कुरीतियों, आडम्बरों एवं पाखण्डों का बोलबाला था, जिसके कारण जनसाधारण अन्धविश्वास का शिकार बना हुआ था। इस समय हिन्दू समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभक्त हो चुका था एवं कई नयी जातियाँ भी बन चुकी थीं। इस समय निम्न जातियों की दशा बहुत शोचनीय थी। इनकी बस्तियाँ गाँव के बाहर होती थीं। स्वर्ण जाति के लोग इनके हाथ का छुआ पानी नहीं पीते थे। परिणामस्वरुप निम्न जातियों के लोग इस्लाम की ओर आकर्षित हुए। इस स्थिति से बचने के लिए एकमात्र उपाय यही था कि समाज में व्याप्त दोषों को दूर किया जाए। 
डॉ० पेमाराम ने लिखा है, "इन सन्तों के द्वारा इस नवजागरण में आत्मसम्मान तथा सर्वसाधारण सन्त साधना जैसे रहस्यमय एवं गूढ़ सिद्धांतों की व्याख्या बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण के लिए की जाने लगी। जो अभी तक ब्राह्मण एवं उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। अब उन गूढ़ एवं रहस्यमय सिद्धांतों को अनपढ़ व साधारँ ज्ञान वाले व्यक्ति समझने लगे, जिससे ये पंथ लोकप्रिय हुए।"
डॉ० गोपीनाथ शर्मा के अनुसार, "यह युग न केवल राजस्थान की संस्कृति का, बल्कि भारत की संस्कृति का एक उज्जवल युग है। हमारी स्मृति में धार्मिक जीवन का कोई ऐसा उज्जवल पक्ष इसके पूर्व इतना नैसर्गिक और फलद नहीं हो सका।"   

राजस्थान में धार्मिक जागृति के कारण : राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन का आशय

राजस्थान में धार्मिक जागृति के कारण : राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन का आशय 


Teju jani143




राजस्थान में मुसलमान आक्रमणों से पूर्व हिन्दू धर्म व जैन धर्म निर्विध्न रुप से पल्लवित हो रहे थे। मुसलमान आक्रमण के समय हिन्दू धर्म का विभाजन कई सम्प्रदायों में हो गया था। शैवमत के अनुयायी राजस्थान में पर्याप्त संख्या में थे। वे शिव की विभिन्न रुपों में पूजा करते थे। शैव धर्म के अन्य अंग थे -- लकुलीश एवं नाथ सम्प्रदाय। शिव पूजा के साथ - साथ यहाँ शक्ति की उपासना भी की जाती थी। राजपूत युद्ध प्रेमी थे। अत: उनके शासकों ने तो शक्ति (दैवी) को अपनी आराध्य या कुलदेवी के रुप में स्वीकार कर लिया था और उसकी आराधना राजस्थान में कई रुपों में की जाती थी। उदाहरणस्वरुप, बीकानेर में करणी माता, जोधपुर में नागणेची, मेवाड़ में बाण माता तथा जयपुर में अन्नपूर्णा आदि की कुल देवियों के रुप में पूजा की जाती है।

जैसलमेर के क्षेत्र में शक्ति की उपासना व्यापक रुप से होती है। वैष्णव धर्म भी राजस्थान में पर्याप्त रुप में प्रचलित था। यहाँ के नरेश भी वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने इस धर्म को जनसाधारण में लोकप्रिय बनाया राम की पूजा वैष्णव धर्म के अंग मात्र थी। आलोच्यकालीन मेवाड़ के राजपत्रों एवं ताम्रपत्रों पर 'श्री रामोजयति 'एवं 'रामापंण' शब्दों का उल्लेख मिलता है। बांसवाड़ा एवं जयपुर राज्य के राजपत्रों पर 'श्री रामजी 'तथा 'श्री सीता रामजी' शब्दों का प्रयोग किया गया है। जयपुर के महाराजा विजयसिंह ने अपने समय में वल्लभ सम्प्रदाय को अधिक प्रोत्साहन दिया। यद्यपि राजस्थान का कोई भी शासक जैन धर्म को अनुयायी नहीं था, तथापि यह धर्म भी यहाँ पल्लवित होता रहा। इसका कारण जैनियों का राजपूत शासकों के यहाँ पर उच्च पदों पर आसीन होना था। इसलिए जैसलमेर, नाडौल, आमेर, रणकपुर एवं आबू आदि स्थानों पर काफी संख्या में जैन मंदिरों की निर्माण हुआ।
इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म भी अनेक सम्प्रदायों में विभक्त था। वे अपने - अपने इष्ट देवताओं की पूजा करते थे। राजस्थान के विभिन्न स्थानों पर पंचायतन देवालय प्राप्त हुए हैं, इस बात की पुष्टि करते हैं।
इन विभिन्न सम्प्रदायों में धर्म के नाम पर कोई विवाद नहीं होता, परन्तु मुसलमानों के राजस्थान में प्रवेश करते ही यहाँ के धार्मिक वातावरण में हलचल मच गई। मुसलमानों ने अजमेर को अपना केन्द्र बनाया और उसके बाद राजस्थान के अन्य भागों में फैलना शुरु कर दिया। उन्होंने हिन्दू मंदिरों को गिरा दिया और हिन्दुओं को बलपूर्वक इस्लाम स्वीकार करवाया। मंदिरों में प्रतिष्ठित मूर्तियों को खण्डित कर हिन्दुओं की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाई। इस प्रकार के संक्रमण काल में राजस्थान में भी कई सन्तों का आविर्भाव हुआ। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों के माध्यम से हिन्दू और मुसलमानों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। रुढिवादी विचारों के स्थान पर उन्होंने हृदय की शुद्धि व ईश्वर की भक्ति पर अधिक बल दिया। उन्होंने सगुण तथा निर्गुण भक्ति में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। धार्मिक क्षेत्र में इस प्रकार के परिवर्तनों के समावेश को धार्मिक आन्दोलन की संज्ञा दी जाती है।
उत्तर भारत में इस आन्दोलन का श्रेय रामानंद को एवं दक्षिण भारत में रामानुज को दिया जाता है। कबीर, चैतन्य तथा नानक रामानंद के सहयोगी माने जाते हैं। राजस्थान में भी सन्तों ने ही इस आन्दोलन को प्रारम्भ करने का प्रयास किया। पाँच सन्तों - पाबू जी राठौड़, रामदेव जी तंवर, हड़बूजी सांखला, मेहाजी मांगलिया और गोगाजी चौहान ने इस आन्दोलन को प्रबल बनाने का प्रयास किया। इनके अतिरिक्त अन्य सन्तों में मीरा, दादू, चरणदास एवं रामचरण आदि के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। 

मंदना/मांडणा - राजस्थान की एक लोककला

मंदना/मांडणा - राजस्थान की एक लोककला 


Teju jani143




परिचय 
मंदना/मांडणा राजस्थान की ग्रामीण महिलाओं की एक परंपरिक कलात्मक क्षमता तथा मौलिक सोच का परिचायक है। इसके अध्ययन से इसके विभिन्न पहलू हैं जैसे लोगों के जीवन की कलात्मक पहलू, परंपरा, धार्मिक विश्वास तथा परंपरिक इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। मंदना मूलत: एक कला है जो औरते बनाती हैं। इसे फर्श या जमीन पर और दीवारों पर विभिन्न पर्वो, धार्मिक अनुष्ठानों, वर्त एवं अन्य उत्सवों में चित्रित किया जाता है। मंदना कला जो राजस्थान की धार्मिक लोककला के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है, देश के अन्य भागों में भी प्रचलित है। महाराष्ट्र तथा दक्षिण भारत में इसे रंगोली तथा कोलम एवं बिहार एवं बंगाल में इसे अल्पना या अरिपन के नाम से जाना जाता है।

मंदना की सज्जा ज्यादातर वैश्य गृहों में पाई जाती है। इसके बाद बाह्मणों में इसका प्रचलन है। अनेक वर्णों में भी इस कला को गृह सज्जा के लिए किया जाता है।
इसके आकृतियों (design) में क्षेत्रों के आधार पर विविधता है। परंतु इसके तत्व और आधार (theme : motifचुनने की स्वतंत्रता महिलाओं को है तथा वे इसका चित्रांकन रुचि से करती है। चित्रांकन में विविधता न केवल क्षेत्रों पर बल्कि ॠतुओं पर भी आधारित है। मंदना की आकृतियां समान्यत: धार्मिक एवं सामाजिक उत्सवों पर की जाती है।
मंदना की आकृतियों को मुख्यत: दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, एक जो पहाड़ी क्षेत्रों में बनाई जाती है तथा दुसरा जो समतल एवं ऊपजाऊ भूमि में की जाती है।
मंदना जो मंदन शब्द से लिया गया है का अर्थ सज्जा है। मंदना एक सज्जा है जो कच्छे फर्श पर चित्रित किया जाता है। राजस्थान में चित्रण के लिए सतह, कच्ची सतह को गोवर तथा मिट्टी से लेपा जाता है।
मंदना को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों तथा ॠतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसे आकृतियों के विभिन्न आकार के आधार पर भी बाँटा जा सकता है। उदाहरण-स्वरुप चौका, चतुर्भुज मंदना की आकृति है जिसका एक प्रमुख समृद्धि के(Propitious) उत्सवों में विशेष महत्व है जबकि त्रिभुज, वृत्त एवं स्वास्तिक लगभग सभी पर्वों या उत्सवों में बनाए जाते है। कुछ आकृतियों में आनेवाले पर्व का निरुपण एवं उस दौरान पड़ने वाले पर्वों को भी बनाया जाता है।
मंदना की पारंपरिक आकृतियों में ज्यामितिय एवं पुष्प आकृतियों को लिया गया है। इन आकृतियों में त्रिभुज, चतुर्भुज, वृत्त, स्वास्तिक, शतरंज पट का आधार, कई सीधी रेखाएँ, तरंग की आकृति आदि मुख्य है। इनमें से कुछ आकृतियां हड़प्पा की सभ्यता के काल में भी मिलती है। पुष्प आकृतियां ज्यादातर सामाजिक एवं धार्मिक विश्वास तथा जादू-टोना से जुड़ी हुई है जबकि ज्यामितिय आकृतियां ज्यादातर तंत्र-मंत्र एवं तांत्रिक रहस्य से जुड़ी है। ज्यामितिय आकृतियों मूलत: किसी मुख्य आकृति के चारों ओर बनाई जाती है। कुछ ज्यामितिय आकृतियां के रुप किसी देवी या देवता से जुड़े होते हैं जैसे कि षष्टकोण जो दो त्रिभुज के जोड़कर बनाया जाता है, देवी लक्ष्मी को चिन्हित करता है। मंदना की यह आकृति काफी प्रसिद्ध है तथा इसे विशेषत: दीपावली तथा सर्दियों में फसल कटाई के समय उत्सव में बनाया जाता है। इनके अलावा बहुत सारी आकृतियां किसी मुख्य आकृति के चारों ओर बनाई जाती है। ये आकृतियां सामाजिक एवं धार्मिक परंपरा पर आधारित होती है जिसमें वर्षों पुराने रीति-रिवाज तथा विभिन्न पर्वों में महिलाओं की दृष्टि को प्रदर्शित करती है। 
इन आकृतियों में से पागलया और भरण या भाखा महिलाओं के कलात्मक श्रेष्ठता का चित्रांकन करते है। पागलया मंदना का एक मुख्य एवं विस्तृत रुप हैं। पगलया की कई मुख्य आकृतियां या परिकल्पनाएं है जो सीधी एवं जटिल आकृतियां, पैर की संकेतात्मक मुद्रा का चित्रण आदि है। पगलया की ज्यादातर आकृतियां एवं रुप त्रिभुज, चतुर्भुज, आयत आदि के रुप में हैं। भरण अथवा भारवा को केन्द्रीय विचार या उद्देश्य मुख्य रेखाओं और आकृतियों के मध्य खाली जगह को भरना है। स्री कलाकारों के तीक्ष्ण कल्पना शक्ति एवं प्रयोगक्षमता के कारण ये मंदना की आकृतियां भव्य, सुंदर तथा उद्देश्य प्रतीत होती है।

मंदना/मांडणा बनाने की कला एवं तकनीक 
मंदना मुख्यत: खड़िया से निर्मित घोल से खीचीं जाती है। संपूर्ण आकृति इसी घोल से बनाई जाती है तथा इसमें कोई रंग या रंजक का प्रयोग नही होता है। सिर्फ केन्द्रीय भाग को उज्जवलतम अंकन के लिए लाल (haemaliteगेरु रंग प्रयुक्त होता है। राजस्थान में सफेद तथा लाल रंगों का प्रयोग गोवर के साथ होता है। धरातल का रंग तीन पर्वों के अनुसार बनाया जाता है। सर्दियों के लिए लाल, गीष्मकाल में भूरे रंग तथा वर्षा ॠतु में हरे सतह का निर्माण किया जाता है। इन निर्मित सतहों पर महिलाएँ खड़िया घोल की सहायता से मंदना की आकृति बनाती है। मंदना बनाने की परंपरा देश के अन्य हिस्सों में भी लगभग इसी तरह है। कुछ बदलाव के रुप में सूखे रंगों का प्रयोग पश्चिम बंगाल में होता है तथा कई तरह के रंजक महाराष्ट्र एवम गुजरात में इसे बनाने के लिए प्रयोग की जाती है।
खड़िया घोल का प्रयोग मंदना आकृतिओं के लिए राजस्थान में किया जाता है। बिहार तथा बंगाल में खड़िया के अलावा चावल के चूर्ण का भी प्रयोग होता है। कई उत्सवों में सूखे तथा गीले रंगों का प्रयोग इन आकृतियों के निरुपण में किया जाता है। प्राय: अल्पना की आकृतियां गीले रंगों से बनाई जाती है। ये रंग हरे पत्तों एवं फूलों से बनाए जाते है। परंतु कुछ अल्पनाओं को सूखे रंगों से भी बनाया जाता है। बंगाल की महिलाओं का विशेष गुण यह है कि वे अल्पना के रंगों को खुद बनाती है। महाराष्ट्र की रंगोली में, रंगोली ही रेखन का माध्यम है। ये रंगोली रंग सफेद रंजक है जो चकमक को आग में जलाने के बाद प्राप्त किए जाते है तथा इसे महीन बारीक बनाया जाता है।
आकृतियों को बनाने के समय महिलाएँ रंगों के चुनाव में विशेष ध्यान रखतीं है। जैसे पत्तियों की आकृतियों को हरे रंग से बनाया जाता है तथा हल्के रंगों से इसे संपूर्ण किया जाता है। इस कारण इसके सजीव चित्रण में सहायता मिलती है। गुजरात में महिलाएँ सफेद रंजक "कालोथी' का इस्तेमाल "साथिया' (रंगोली) बनाने में करती हैं।मंदना की आकृतियों को बनाने के लिए बहुत सारे वस्तुओं की आवश्यकता नही होती है। मंदना बनाने के लिए खड़िया के घोल, सूती कपड़ा तथा अंगुली के द्वारा बनाया जाता है। अच्छे सजीव चित्रांकन के लिए खजूर की लकड़ी की कूची इस्तेमाल की जाती है। राजस्थान की महिलाएँ इसे बनाने में बड़ी निपुण है तथा वे हाथों द्वारा ही ज्यामितिय तथा अन्य आकृतियां बना लेती है। अन्य राज्यों में भी मंदना की आकृतियां इसी तरह बनाई जाती है। मंदना के बनाने के लिए सर्वप्रथम मुख्य आकृति से इसकी शुरुआत कर की जाती है तथा चारों ओर का भाग बाद में बनाया जाता है।
गुजरात एवं महाराष्ट्र में इन आकृतियों को बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के रंगों, आकृतियों का ढाँचा, कूची, कम्पास, स्केल आदि का इस्तेमाल होता है। यहां मंदना की सतह को नाप कर उसपर रंगोली की जाती है तथा इसे बड़ा या छोटा बनाया जाता है।
    

बातें राजस्थान की

बातें राजस्थान की



Teju jani143



किसी कला की कमी नहीं, ना कमी है स्वाभिमान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।।वीरों के पौरूष में भी यहां ईश्वर का वरदान है ।दानव के आगे नही झुकते, मानव का सम्मान है ।।पन्ना धाय के त्याग को देखो, भूख नही धन धान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. अमरसिंह के अटल इरादे, महाराणा के तेवर हो ।जहां चेतक जैसी स्वामी भक्ति, घुंघट जैसा झेवर हो ।।जहां मीरां की पावनता से विष, बने औषधि प्राण की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. महल, हवेली, किले झरोखें कितनी कलायें लाया है ।इस भूमि का पत्थर लगकर, ताजमहल बन पाया है ।।याद रहेगी सबको ये, सौगाते राजस्थान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. एल. एन. मित्तल, प्रतिभा पाटिल, भैरोसिंह से  नाम हुए ।तारकीन और ख्वाजाजी, यहां सुफी के सम्मान हुए ।।यहां पे आदर रामायण का, इज्जत यहां कुरान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. कालबेलिया, माड गायकी, कठपुतली के खेल है ।सब का सबसे नाता है, यहां सबका सबसे  मेल है ।।चेहरे पर है भोलापन, और मूंछे बड़ी है मान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. यहां मौसम बड़े निराले है, यहां मेले बड़े सुहाते है ।पुष्कर में गर्मी में भी गौरे सैलानी आते है ।।आबू की ठंडक से देखें शामें राजस्थान की ।और जैसलमेर के द्योरो में हो रातें राजस्थान की ।।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. गणगोरों के मेले है, यहां हर महीने त्योंहार है ।है सम्मान बुजुर्गो का यहां सामूहिक परिवार है ।।और बुश, क्लिटंन, ओबामा से, मुलाकातें राजस्थान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. सब है एक समान, वो चाहे राजा है या फकीर है ।हिन्दु मुस्लिम दोनो पूजे, वो रामदेवसा पीर है ।।सोने जैसी मिट्टी है, सुहानी राजस्थान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. चुनरी वाली साड़ी में तो लगती दुल्हन जानकी ।यहां की नारी चुनरी को ही अपना जेवर मानती ।।और चुनरी वाले साफों में बारातें राजस्थान की ।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला …….. यह सब पिछले युग की बातें अब तो अपनी बारी है । इस भूमि की शान बढाना, अपनी जिम्मेदारी है ।।पिछले युग के शूरों ने तो, सदा ही बाजी मारी है ।मरूभूमि के वीर सपूतों, अब की क्या तैयारी है ।।मेरे  भाई बन्धु सुनलो, मुझ छोटे इन्सान की ।कभी ना आये वो दिन, हो बदनामी राजस्थान की ।।इसीलिये सब करते रहते बातें राजस्थान की ।। किसी कला ……..

स्वाधीनता संग्राम में राजस्थान का योगदान

स्वाधीनता संग्राम में राजस्थान का योगदान





Teju jani143





राजस्थान शौर्य, त्याग और संतों की भूमि है और यहां स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने की एक गौरवशाली परम्परा भी रही है। महाराणा प्रताप की वीरता, भक्तिमयी मीरा की कृष्ण भक्ति, रानी पद्मिनी का पतिव्रत धर्म की रक्षार्थ जौहर और पन्नाधाय का त्याग आज भी देशवासियों की जुबान पर है। वीर प्रसविनी माताएं पुत्र के जन्म से अधिक उसके देश की बलिवेदी पर न्यौछावर होने पर हर्षित होती रही हैं - सुत मरियो हित देस रे, हरख्यो बन्धु समाज । माँ नह हरखी जनम दे, जतरी हरखी आज।। सूर्यमल्ल मिश्रण ने तो देश भक्ति की भावना अपनी संतान में भरने के लिए माँ के उद्गार इस प्रकार व्यक्त किए हैं - 

इला न देणी आपणी, हालरिए दुलराय। 
पूत सिखावै पालणे, मरण बडाई माय।। 
राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए प्रख्यात अंग्रेज इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है - ''राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपली न हो और ऐसा कोई नगर नहीं, जिसने अपना लियोनिडास पैदा नहीं किया हो।'' 
भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम १८५७ की असफलता से देश में अंग्रेजी राज का वर्चस्व पूर्ण रूप से स्थापित हो गया, लेकिन शीघ्र ही १९०५ में 'बंग भंग' ने देश में क्रान्ति की ज्वाला को फिर से प्रज्वलित कर दिया। राजस्थान भी इस आन्दोलन में पीछे नहीं रहा। बारहठ केसरी सिंह, खरवा ठाकुर गोपाल सिंह, जयपुर के अर्जुन लाल सेठी और ब्यावर के सेठ दामोदरदास राठी ने 'अभिनव-भारत-समिति' नामक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना कर क्रान्ति के इस आन्दोलन में जान फूंक दी। सशस्त्र क्रान्ति के इस कार्य में सबसे बडा योगदान ठाकुर केसरी सिंह बारहठ और उनके परिवार का था। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता, डिंगल के उत्कृष्ट कवि और महान देशभक्त थे। उन्होंने राजस्थान के राजाओं और जमींदारों में राष्ट्रीय भावना भरने का प्रयत्न किया। सन् १९०३ में लार्ड कर्जन के दरबार में भाग लेने के लिए मेवाड के महाराणा फतहसिंह जब दिल्ली के लिए रवाना हुए तो बारहठ के 'चेतावनी के चूंगटिया' कृति से प्रभावित हो कर दरबार में भाग लिए बिना ही लौट आए। 
राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम के संघर्ष में 'प्रजा मण्डल आन्दोलन' और अन्य 'जन आन्दोलनों' की भूमिका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही। किसान आन्दोलन के रूप में बिजोलिया, बेगूं, बूंदी, अलवर आदि स्थानों के आन्दोलन प्रभावशाली रहे। साथ ही राज्य के विभिन्न स्थानों पर हुए भीलों के आन्दोलन , मीणों के आन्दोलन भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। किसान आन्दोलन के प्रमुख प्रणेता विजय सिंह पथिक अत्यन्त सजग और संवेदनशील रचनाकार थे। उन्होंने अधिकांश साहित्य सृजन जेल की काल कोठरियों में ही रह कर किया। उनके अन्तरतम की छटपटाहट और राष्ट्र की आजादी की बलिवेदी पर न्यौछावर हो जाने की चाह उनकी इन पक्तियों में लक्षित होती है - 
यश, वैभव, सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं, जीवन न रहे। 
यदि इच्छा है - यह है जग में, स्वैच्छाचार, दमन न रहे ।। 
भील आन्दोलन और प्रजा मण्डल आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में श्री मोतीलाल तेजावत, माणिक्यलाल वर्मा, बलवन्त सिंह मेहता, भूरेलाल बया आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। मारवाड अंचल में श्री जयनारायण व्यास, आनंदराज सुराणा, भंवरलाल सर्राफ, जयपुर में श्री अर्जुन लाल सेठी, हीरालाल शास्त्री, टीकाराम पालीवाल आदि, बीकानेर में श्री मघाराम वैद्य,लक्ष्मणदास स्वामी आदि, कोटा में पं० नयनूराम शर्मा, पं० अभिन्न हरि, सिरोही में श्री गोकुल भाई भट्ट, धर्मचंद सुराणा आदि लोक नायकों ने प्रजा परिषद की स्थापना कर अपने अपने क्षेत्र में देश की आजादी के आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की। इन जन नायकों, स्वाधीनता सेनानियों के त्याग और बलिदान के परिणाम स्वरूप हमें १५ अगस्त, १९४७ को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति प्राप्त हुई, जिसके लिए हम भारतवासी उनके कृतज्ञ हैं। 
राजस्थान के मूर्धन्य साहित्यकार और गीतकार, अकादमी के 'मीरा पुरस्कार' और 'विशिष्ट साहित्यकार सम्मान' से समादृत श्री हरीश भादानी जी गत कुछ समय से गंभीर कैंसर रोग से पीडत हैं। श्री भादानी ने एक सुमधुर गीतकार के रूप में हिन्दी जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। मैं राजस्थान के सभी साहित्यकारों और हिन्दी जगत के साहित्यकारों की ओर से श्री भादानी जी के शीघ्र स्वस्थ होने और दीर्घजीवी होने की कामना करता हूँ। मधुमती परिवार के सभी सदस्यों और हिन्दी जगत के साहित्यकारों और देशवासियों को स्वाधीनता दिवस की अनेकानेक शुभकामनाएँ । इति।

राजस्थान की साहित्यिक पत्रिकाएँ - नए अंक

राजस्थान की साहित्यिक पत्रिकाएँ - नए अंक 






Teju jani143






साहित्यिक लघु पत्र-पत्रिकाओं के सम्बन्ध में राजस्थान धनी रहा है। ’लहर‘, ’बिन्दु‘, ’क्यों‘, ’वातायन‘ और ’पुरोवाक‘ जैसी हिन्दी जगत् की ख्यातनाम पत्रिकाएँ यहीं से प्रकाशित हुईं और उन्होंने बडे पाठक वर्ग तक अपनी पहुँच बनाई। भूमण्डलीकरण के नये दौर में विसंस्कृतीकरण से प्रतिरोध का जैसा काम साहित्यिक पत्रिकाओं ने किया है वह श्लाघनीय है। प्रतिरोध की परम्परा को सुदृढ करते लघु पत्रिकाओं के नये अंक पिछले दिनों आए हैं, जिन्हें पढना किसी भी पाठक के लिए सुखद है। 
’संबोधन‘ पिछले ४४ वर्षों से नियमित प्रकाशित हो रही वह लघु पत्रिका है जिसने राजस्थान का नाम देश में ही नहीं अपितु दुनिया भर के हिन्दी प्रेमियों में किया है। संबोधन के अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषांक बीते वर्षों में आते रहे हैं। अप्रैल-जून २०१० का नया अंक सुपरिचित कवि-कथाकार विष्णु नागर के कृतित्व पर केन्दि्रत है। व्यक्ति केन्दि्रत विशेषांकों का चलन नया नहीं है, बल्कि अब क्षेत्रीयता के संकुचन से ऊपर व्यापक दृष्टि से ऐसे अंकों का आना हिन्दी साहित्य के लिए शुभ संकेत है। प्रस्तुत अंक में विष्णु नागर के अंतरंग मित्रों ने जहाँ उनके बहुआयामी लेखक व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है, वहीं लगभग डेढ दर्जन आलोचनात्मक आलेखों में उनके लेखन का सम्यक विवेचन-मूल्यांकन है। 
अंक में विष्णु नागर से दो साक्षात्कार भी प्रकाशित हैं, जिन्हें पढना रोचक है। अतुल चतुर्वेदी से बातचीत में उन्होंने कहा है कि ’’लिखित शब्द की विश्वसनीयता गहरी है।‘‘ आगे वे एक प्रश्न के उत्तर में कहते हैं, ’’राजस्थान का परिदृश्य काफी सम्भावनापूर्ण है। कुछ कारणों से सामान्यतः राष्ट्रीय परिदृश्य पर वह महत्त्व नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे। फिर भी राजस्थान में इन दिनों काफी अच्छा काम हो रहा है।‘‘ कमर मेवाडी के संपादन में प्रकाशित इस विशेषांक के अतिथि सम्पादक युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय ने सचमुच एक यादगार अंक दिया है। 
’कृति ओर‘ कवि विजेन्द्र द्वारा प्रकाशित संपादित चर्चित लघु पत्रिका रही है, इन दिनों डॉ. रमाकांत शर्मा इसका संपादन कर रहे हैं। पत्रिका का नया अंक अप्रैल-जून २०१० प्रकाशित कविताओं तथा विचारोत्तेजक पत्रों के कारण उल्लेखनीय बन पडा है। कवि-सम्पादक शंभु बादल से लताश्री की बातचीत हमारे समय और साहित्य को चिंता के दायरे में लाती है। एक प्रश्न के उत्तर में शंभू बादल ने कहा, ’’पहल बंद होने से अन्य लघु-पत्रिकाओं का दायित्व और बढ जाता है।‘‘ युवा कवि अमित, मनोज, आईदान सिंह भाटी, रामकुमार कृषक और राजकुमार कुम्भज की कविताएँ अंक की उपलब्धि हैं। विरासत-स्तम्भ में प्रकाश चन्द्र गुप्त का आलेख ’प्रगतिशील आलोचना के मान‘ और कवि विजेन्द्र का ’कवि की प्रतिबद्धता‘ साहित्य के सामाजिक सरोकारों की पुनर्स्थापना करते हैं। कहना न होगा कि कविता के संबंध में ’कृति ओर‘ का दाय सचमुच उल्लेखनीय है। 
’प्रतिश्रुति‘ मरुधर मृदुल द्वारा संपादित वह पत्रिका है जो विगत दस वर्षों से राजस्थान की रचनाशीलता को व्यापक परिदृश्य में स्थापित कर रही है। नये अंकअप्रैल-जून २०१० में पन्द्रह कवियों की कविताएँ, गजलें, दो कहानियाँ और अन्य विविध सामग्री मिलकर पत्रिका को बहुआयामी बनाते हैं। युवा कवि विवेक कुमार मिश्र की कविता ’रंग और प्रकृति‘ की पंक्तियाँ हैं - मनुष्य को भी / प्रकृति की तरह / अपने ही रंग से / खिलना चाहिए। अंक में ओम नागर, डॉ. भगवतीलाल व्यास, रजत कृष्ण, शहंशाह आलम और राज्यवर्द्धन की कविताएँ भी उल्लेखनीय हैं। हसन जमाल और हबीब कैफी की कहानियाँ पढना अपने दौर की विडम्बनाओं को सही-सही समझना है। 
’अक्सर‘ हेतु भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित हो रही वह पत्रिका है जो अपने खास तेवर के लिए जानी जाती है। नये अंक अप्रैल-जून २०१० में रामशरण जोशी का कविवर अज्ञेय पर लिखा संस्मरण सचमुच स्मृतियों में ले जाता है। मुक्तिबोध को याद करते हुए दो समकालीन कवियों चन्द्रकांत देवताले और हरिराम मीणा की कविताएँ पढना एक समृद्ध अनुभव है। ’ब्रह्मराक्षस‘ की रोशनी में कविताएँ हमारे संकटों के इर्द-गिर्द नये दृश्यों को पहचानने वाली हैं। नंद चतुर्वेदी और शशि प्रकाश चौधरी ने क्रमशः नेमीचन्द भावुक और प्रभाष जोशी पर संस्मरण लिखे हैं तो प्रीता भार्गव, रणजीत, रेणु दीक्षित की कविताएँ भी उल्लेखनीय हैं। विमर्श के अन्तर्गत ब्रजरतन जोशी, रमेशचन्द्र मीणा, राजाराम भादू और उर्वशी शर्मा के आलेख विचारोत्तेजक हैं। 
’बनास‘ का प्रकाशन अनियतकालीन है तथापि इसका दूसरा अंक एक नयी जीवंत बहस को स्थापित करने वाला है। ’गल्पेतर गल्प का ठाठ‘ शीर्षक से आया तीन सौ पृष्ठों का नया अंक चर्चित उपन्यास ’काशी का अस्सी‘ के बहाने हिन्दी उपन्यास के स्वरूप पर गंभीर बहस करता है। शीर्ष आलोचकों - नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, नंद किशोर नवल, मधुरेश, नवल किशोर और जीवन सिंह के साथ कथाकार-संपादक राजेन्द्र यादव ने भी इस बहस में भागीदारी की है। अंक कई खण्डों में विभाजित हैं - चिट्ठियाँ, साक्षात्कार, नजरिया, संस्मरण और मंचन में ’काशी का अस्सी‘ को जानना सचमुच आश्वस्तिप्रद है। यह जोखिम पत्रिका ने उठाया है कि समकालीन रचनाशीलता से ही एक कृति पर ग्रंथाकार अंक प्रकाशित कर दिया गया है। उपन्यासकार काशीनाथ सिंह से साक्षात्कार और उनके कुछ आलेख लेखक का पक्ष उपस्थित करते हैं। संपादक और युवा आलोचक पल्लव ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि काशी का अस्सी कहन, कथा और चलन में नयेपन का सूत्रपात करता है। 
कहना न होगा कि हिन्दी भाषी व्यापक समाज में लघु पत्रिकाओं की आवश्यकता बनी हुई है और आलोच्य पत्रिकाओं के साथ सैकडों छोटी-बडी पत्रिकाएँ यह दायित्व पूरा कर रही हैं

पूर्व मध्यकालीन राजस्थान

पूर्व मध्यकालीन राजस्थान



Teju jani143





इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान में राजपूत राज्यों की स्थापना है। गुप्तों के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार से अव्यवस्था का कारण बना। राजस्थान की गणतन्त्र जातियों ने उत्तर गुप्तों की कमजोरियों का लाभ उठाकर स्वयं को स्वतन्त्र कर लिया। यह वह समय था जब भारत पर हूण आक्रमण हो रहे थे। हूण नेता मिहिरकुल ने अपने भयंकर आक्रमण से राजस्थान को बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था को जर्जरित कर दिया। परन्तु मालवा के यशोवर्मन ने हूणों को लगभग 532 ई. में परास्त करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु इधर राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होने की चेष्टा कर रहे थे। किसी भी केन्द्रीय शक्ति का न होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया। लगभग इसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन का उदय हुआ। उसके तत्त्वावधान में राजस्थान में व्यवस्था एवं शांति की लहर आयी, परतु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी, वह सुधर नहीं सकी।
          इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में यहाँ के समाज में एक परिवर्तन दिखाई देता है। राजस्थान में दूसरी सदी ईसा पूर्व से छठी सदी तक विदेशी जातियाँ आती रहीं और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करते रहे। परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हुई, इनमें कई मारे गये और कई यहाँ बस गये। जो शक या हूण यहाँ बचे रहे उनका यहाँ की शस्त्रोपजीवी जातियों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा।

राजपूतों की उत्पत्ति

          राजपूताना के इतिहास के सन्दर्भ में राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन बड़ा महत्त्व का है। राजपूतों का विशुद्ध जाति से उत्पन्न होने के मत को बल देने के लिए उनको अग्निवंशीय बताया गया है। इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दरबदाई के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पृथ्वीराजरासो’ से होता है। उसके अनुसार राजपूतों के चार वंश प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चैहान ऋषि वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसों के संहार के लिए उत्पन्न किये गये। इस कथानक का प्रचार 16वीं से 18वीं सदी तक भाटों द्वारा खूब होता रहा। मुँहणोत नैणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस आधार को लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा। परन्तु वास्तव में ‘अग्निवंशीय सिद्धान्त’ पर विश्वास करना उचित नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई ऋषि वशिष्ठ द्वारा अग्नि से इन वंशों की उत्पत्ति से यह अभिव्यक्त करता हैं कि जब विदशी सत्ता से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशों के राजपूतों ने शत्रुओं से मुकाबला हेतु स्वंय को सजग कर लिया। गौरीशकंर हीराचन्द ओझा, सी.वी.वैद्य, दशरथ शर्मा, ईश्वरी प्रसाद इत्यादि इतिहासकारों ने इस मत को निराधार बताया है। 
          गौरीशंकर हीराचन्द ओझा राजपूतांे को सर्यू वंशीय  और चन्द्रवंशीय बताते हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने कई शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों के प्रमाण दिये हैं, जिनके आधार पर उनकी मान्यता है कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं। राजपूतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित यही मत सर्वाधिक लोकप्रिय है। 
       राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने राजपूतों को शक और सीथियन बताया है। इसके प्रमाण में उनके बहुत से प्रचलित रीति-रिवाजों का, जो शक जाति के रिवाजों से समानता रखते थे, उल्लेख किया है। ऐसे रिवाजों में सूर्य पूजा, सती प्रथा प्रचलन, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों और घोड़ों की पूजा इत्यादि हैं। टाॅड की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का समर्थन किया है परन्तु इस विदेशी वंशीय मत का गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने खण्डन किया है। ओझा का कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मों रिवाजों में जो समानता कनर्ल टाॅड ने बतायी है, वह समानता विदेशियों से राजपूतों ने प्राप्त नहीं की है, वरन् उनकी सात्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जा सकती है। अतएव उनका कहना है कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मों रिवाजों व परम्पराआें का उल्लेख समानता बताने के लिए जेम्स टाॅड ने किया है, वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थीं। उनका सम्बन्ध इन विदेशी जातियों से जोड़ना निराधार है। 
          डाॅ. डी. आर. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जर मानकर उनका संबंध श्वेत-हूणों के स्थापित करके विदेशी वंशीय उत्पत्ति को और बल देते हैं। इसकी पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है। इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चैहान भी गुर्जर थे, क्योंकि राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। इनके अतिरिक्त भण्डारकर ने बिजौलिया शिलालेख के आधार पर कुछ राजपूत वंशों को ब्राह्मणों से उत्पन्न माना है। वे चैहानों को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताते हैं और गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से मानते हैं। 
          डाॅ. ओझा एवं वैद्य ने भण्डराकर की मान्यता को अस्वीकृत करते हुए लिखा है कि प्रतिहारों को गुर्जर कहा जाना जाति की संज्ञा नहीं है वरन उनका प्रदेश विशेष गुजरात पर अधिकार होने के कारण है। जहाँ तक राजपूतों की ब्राह्मणों से उत्पत्ति का प्रश्न है, वह भी निराधार है क्योंकि इस मत के समर्थन में उनके साक्ष्य कतिपय शब्दों का प्रयोग राजपूतों के साथ होने मात्र से है। 
          इस प्रकार राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्युक्त मतों में मतैक्य नहीं है। फिर भी डाॅ. ओझा के मत को सामान्यतः मान्यता मिली हुई है। निःसन्देह राजपूतों को भारतीय मानना उचित है।  

पूर्व मध्यकाल में विभिन्न राजपूत राजवंशों का उदय 

          प्रारम्भिक राजपूत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने-अपने राज्य स्थापित किये थे उनमें मेवाड़ के गुहिल, मारवाड़ के गुर्जर प्रतिहार और राठौड़, सांभर के चैहान, तथा आबू के परमार, आम्बेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख थे। 
          1. मेवाड़ के गुहिल - इस वंश का आदिपुरुश गुहिल था। इस कारण इस वंश के राजपूत जहाँ-जहाँ जाकर बसे उन्होंने स्वयं को गुहिलवंशीय कहा। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा गुहिलों को विशुद्ध सूर्यवंशीय मानते हैं, जबकि डी. आर. भण्डारकर के अनुसार मेवाड़ के राजाब्राह्मण थे। गुहिल के बाद मान्य प्राप्त शासकों में बापा का  नाम उल्लेखनीय हैं, जो मेवाड़ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डाॅ. ओझा के अनुसार बापा इसका नाम न होकर कालभोज की उपाधि थी। बापा का एक सोने का सिक्का भी मिला है, जो 115 ग्रेन का था। अल्लट, जिसे ख्यातों में आलुरावल कहा गया है, 10वीं सदी के लगभग मेवाड़ का शासक बना। उसने हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था तथा उसके समय में आहड़ में वराह मन्दिर का निर्माण कराया गया था। आहड़ से पूर्व गुहिल वंश की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र नागदा था। गुहिलों ने तेरहवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथल-पुथल के बावजूद भी अपने कुल परम्परागत राज्य को बनाये रखा।
          2. मारवाड़ के गुर्जर-प्रतिहार - प्रतिहारों द्वारा अपने राज्य की स्थापना सर्वप्रथम राजस्थान में की गई थी, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। जोधपुर के शिलालेखों से प्रमाणित होता है कि प्रतिहारों का अधिवासन मारवाड़ में लगभग छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में हो चुका था। चूँकि उस समय राजस्थान का यह भाग गुर्जरत्रा कहलाता था, इसलिए चीनी यात्री युवानच्वांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो (भीनमाल) या बाड़मेर बताया है। 
          मुँहणोत नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनमें मण्डौर के प्रतिहार प्रमुख थे। इस शाखा के प्रतिहारों का हरिशचन्द्र बड़ा प्रतापी शासक था, जिसका समय छठी शताब्दी के आसपास माना जाता है। लगभग 600 वर्शों के अपने काल में मण्डौर के प्रतिहारों ने सांस्कृतिक परम्परा को निभाकर अपने उदात्त स्वातन्त्र्य प्रेम और शौर्य से उज्ज्वल कीर्ति को अर्जित किया। जालौर-उज्जैन-कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों की नामावली नागभट्ट से आरंभ होती है जो इस वंश का प्रवर्तक था। उसे ग्वालियर प्रशस्ति में ‘म्लेच्छों का नाशक’ कहा गया है। इस वंश में भोज और महेन्द्रपाल को प्रतापी शासकों में गिना जाता है। 

          3. आबू के परमार - ‘परमार’ शब्द का अर्थ शत्रु को मारने वाला होता है। प्रारंभ में परमार आबू के आसपास के प्रदेशों में रहते थे। परन्तु प्रतिहारों की शक्ति के हृास के साथ ही परमारों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे इन्होंने मारवाड़, सिन्ध, गुजरात, वागड़, मालवा आदि स्थानों में अपने राज्य स्थापित कर लिये। आबू के परमारों का कुल पुरुष धूमराज था परन्तु परमारों की वंशावली उत्पलराज से आरंभ होती है। परमार शासक धंधुक के समय गुजरात के भीमदेव ने आबू को जीतकर वहाँ विमलशाह को दण्डपति नियुक्त किया। विमलशाह ने आबू में 1031 में आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। धारावर्ष आबू के परमारों का सबसे प्रसिद्ध शासक था। धारावर्ष का काल विद्या की उन्नति और अन्य जनोपयोगी कार्यों के लिए प्रसिद्ध है। इसका छोटा भाई प ्र ह ्लादन देव वीर आ ैर विद्वान थ ा। उसने ‘पार्थ-पराक्रम-व्यायोग’ नामक नाटक लिखकर तथा अपने नाम स े पह्र लादनपरु (पालनपरु ) नामक नगर बसाकर परमारांे के साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाया। धारावर्ष के पुत्र सोमसिंह के समय में, जो गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय का सामन्त था, वस्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने आबू के देलवाड़ा गाँव में लूणवसही नामक नेमिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था। मालवा के भोज परमार ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मन्दिर बनवाकर अपनी कला के प्रति रुचि को व्यक्त किया। वागड़ के परमारों ने बाँसवाड़ा के पास अर्थूणा नगर बसा कर और अनेक मंदिरों का निर्माण करवाकर अपनी शिल्पकला के प्रति निष्ठा का परिचय किया।  

4.सांभर के चैहान - चैहानों के मूल स्थान के संबंध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एवं जांगल प्रदेश के आस पास रहते थे। उनकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी। सपादलक्ष के चौहानों का आदि पुरुष वासुदेव था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को सांभर झील का निर्मातामाना गया है। इस प्रशस्ति में चैहानों को वत्सगौत्रीय  ब्राह्मण बताया गया है। प्रारंभ में चैहान प्रतिहारों के सामन्त थे परन्तु गुवक प्रथम जिसने हर्षनाथ मन्दिर का निर्माण कराया, स्वतन्त्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह पुष्कर झील में प्रतिदिन एक हजार दीपक जलाकर महादेव की उपासना करती थी। 
          
          1113 ई. में अजयराज चैहान ने अजमेर नगर की स्थापना की। उसके  पुत्र अर्णोराज (आनाजी) ने अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाकर जनोपयोगी कार्यों में भूमिका अदा की। चैहान शासक विग्रहराज चतुर्थ का काल सपादलक्ष का स्वर्णयुग कहलाता है। उसे वीसलदेव और कवि बान्धव भी कहा जाता था। उसने ‘हरकेलि’ नाटक और उसके दरबारी विद्वान सोमदेव ने ‘ललित विग्रहराज’ नामक नाटक की रचना करके साहित्य स्तर को ऊँचा उठाया। विग्रहराज ने अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया। यहीं आगे फिर कुतुबुद्दीन  ऐबक ने ‘ढाई दिन का झोंपड़ा’ बनवाया। विग्रहराज चतुर्थ एक विजेता था। उसने तोमरों को पराजित कर ढिल्लिका(दिल्ली) को जीता। इसी वंशक्रम में पृथ्वीराज चैहानतृतीय  ने राजस्थान और उत्तरी भारत की राजनीति मेंअपनी विजयों से एक विशिष्ट स्थान बना लिया था। 1191 ई. में उसने तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गौरी को परास्त कर वीरता का समुचित परिचय दिया। परन्तु 1192 ई. में तराइन के दूसरे युद्ध में जब उसकी गौरी से हार हो गई, तो उसने आत्म-सम्मान को ध्यान में रखते हुए आश्रित शासक बनने की अपेक्षा मृत्यु को प्राथमिकता दी। पृथ्वीराज विजय के लेखक जयानक के अनुसार पृथ्वीराज चैहान ने जीवनपर्यन्त युद्धों के वातावरण में रहते हुए भी  चैहान राज्य की प्तिभा को साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में पुष्ट किया। तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युद्ध के बाद चैहानों की शक्ति समाप्त हो गई। लगभग आगामी एक शताब्दी तक चैहानों की शाखाएँ रणथम्भौर, जालौर, हाड़ौती, नाड़ौल तथा चन्द्रावती और आबू में शासन करती रहीं। और राजपूत शक्ति की धुरीबनी रहीं। इन्हांने  दिल्ली सुल्तानों की सत्ता का समय-समय पर मुकाबला कर शौर्य और अदम्य साहस का परिचय दिया।
          पूर्व मध्यकाल में पराभवों के बावजूद राजस्थान बौद्धिक उन्नति में नहीं पिछड़ा। चैहान व गुहिल शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। चित्तौड़, बाड़ौली, आबू के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं।

मध्यकालीन राजस्थान के कतिपय उज्ज्वल एवं गौरवशाली पक्ष 

          मध्यकाल में राजपूत शासकों और सामन्तों ने मुस्लिम शक्ति को रोकने की समय-समय पर भरपूर कोशिश की। राजपूतों द्वारा अनवरत तीव्र प्रतिरोध का सिलसिला मध्यकाल में चलता रहा। सत्ता संघर्ष में राजपूत निर्णायक लड़ाई नहीं जीत सके। इसका मुख्य कारण राजपूतों में साधारणतः आपसी सहयोग का अभाव, युद्ध लड़ने की कमजोर रणनीति तथा सामन्तवाद था। यह सोचना उचित नहीं है कि राजपूतों के प्रतिरोध का कोई अर्थ नहीं निकला। राणा कुम्भा एवं राणा सांगा के नेतृत्व में सर्वोच्चता की स्थापना राजपूताने में ही सम्भव हो सकती थी। यह स्मरण रहे कि आगे चलकर राणा प्रताप, चन्द्रसेन और राजसिंह ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। यद्यपि अकबर की राजपूत नीति के कारण राजपूताना के अधिकांश शासक उसके हितों की रक्षा करने वाले बन गये।
          मध्यकालीन राजस्थान को बौद्धिक अधिसृष्टि से पिछड़ा मानना इतिहास के तथ्यों एवं अनुभवों के विपरीत होगा। जिस वीर प्रसूता वसुन्धरा पर माघ, हरिभद्रसूरी, चन्दबरदाई, सूर्यमल्ल मिश्रण, कवि करणीदास, दुरसा आढ़ा, नैणसी जैसे विद्वान लेखक तथा महाराणा कुम्भा, राजा रायसिंह, राजा सवाई जयसिंह जैसे प्रबुद्ध शासक अवतरित हुए हों, वह ज्ञान के आलोक से कभी वंचित रही हो,स्वीकार्य नहीं। जिस प्रदेश के रणबाँकुरों में राणा प्रताप,  राव चन्द्रसेन, दुर्गादास जैसे व्यक्तित्व रहे हों, वह धरती यश से वंचित रहे; सोचा भी नहीं जा सकता।
         ‘धरती धोरां री’ का इतिहास अपने-आप में राजस्थान का ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास का उज्ज्वल एवं गौरवशाली पहलू है। मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास में गुहिल-सिसोदिया (मेवाड़), कछवाहा (आमेर-जयपुर), चैहान (अजमेर, दिल्ली, जालौर, सिरोही, हाड़ौती इत्यादि के चैहान), राठौड़ (जोधपुर और बीकानेर के राठौड़) इत्यादि राजवंश नक्षत्र भांति चमकते हुये दिखाई देते हैं। 

गुहिल-सिसोदिया वंश -

          I. मेवाड़ के इतिहास में तेरहवीं शताब्दी के आरंभ से एक नया मोड़ आता है, जिसमें चैहानों की केन्द्रीय शक्ति का हृास होना और गुहिल जैत्रसिंह जैसे व्यक्ति का शासक होना बडे़ महत्त्व की घटनाएँ है। मेवाड़ के गुहिल शासक रत्नसिंह (1302-03) के समय चित्तौड़ पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया था। अलाउद्दीन के इस आक्रमण के राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक कारणों के साथ रत्नसिंह की सुन्दर पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करने लालसा भी बताया जाता है। पद्मिनी की कथा का उल्लेख मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ नामक ग्रंथ में मिलता है। अलाउद्दीन के आक्रमण के दौरान रत्नसिंह और गोरा-बादल वीर गति प्राप्त हुये तथा पद्मिनी ने 1600 स्त्रियों के साथ जौहर कर आत्मोत्सर्ग किया। इसी समय अलाउद्दीन ने 30,000 हिन्दुओं का चित्तौड़गढ़ में कत्ल करवा दिया था। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीतकर उसका नाम खिज्राबाद कर दिया था। राजपूतों का यह बलिदान चित्तौड़ के प्रथम साके के नाम से प्रसिद्ध हैं जिसमें गोरा-बादल की वीरता एक अमर कहानी बन गयी। आज भी चित्तौड़ के खण्डहरों में गोरा-बादल के महल उनके साहस और सूझ-बूझ की कहानी सुना रहे हंै। पद्मिनी का त्याग और जौहर व्रत महिलाओं को एक नयी प्रेरणा देता है। गोरा-बादल का बलिदान हमें यह सिखाता है कि जब देश पर आपत्ति आये तो प्रत्येक व्यक्ति को अपना सर्वस्व न्योछावर कर देश-रक्षा में लग जाना चाहिए।
          रत्नसिंह के पश्चात् सिसोदिया के सरदार हम्मीर ने मेवाड़ को दयनीय स्थिति से उभारा। वह राणा शाखा का राजपूत था। राणा लाखा (1382-1421) के समय उदयपुर की पिछोला झील का बांध बनवाया गया था। लाखा के निर्माण कार्य मेवाड़ की आर्थिक स्थिति तथा सम्पन्नता को बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध हुए। लाखा के पुत्र मोकल ने मेवाड़ को बौद्धिक तथा कलात्मक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया। उसने चित्तौड़ के समिधेश्वर (त्रिभुवननारायण मंदिर) मंदिर के जीर्णोद्धार द्वारा पूर्व मध्यकालीन तक्षण कला के नमूने को जीवित रखा। उसने एकलिंगजी के मंदिर के चारों ओर परकोटा बनवाकर, उस मंदिर की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था की।
          II. मोकल के पुत्र राणा कुंभा (1433 -1468) का काल मेवाड़ में राजनीतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक उन्नति के लिए जाना जाता है। कुंभा को अभिनवभरताचार्य, हिन्दू सुरताण, चापगुरु, दानगुरु आदि विरुदों से संबोधित किया जाता था। राणा कंुभा ने 1437 में सारंगपुर के युद्ध में मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी को पराजित किया था। इस विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने अपने आराध्यदेव विष्णु के निमित्त चित्तौड़गढ़ में कीर्तिस्तंभ (विजयस्तंभ) का निर्माण करवाया। कुंभा ने मेवाड़ की सुरक्षा के उद्देश्य से 32 किलों का निर्माण करवाया था, जिनमें बसन्ती दुर्ग, मचान दुर्ग, अचलगढ़, कुंभलगढ़ दुर्ग प्रमुख हैं। कुंभलगढ़ दुर्ग का सबसे ऊँचा भाग कटारगढ़ कहलाता है। कुंभाकालीन स्थापत्य में मंदिरों का बड़ा महत्त्व है। ऐसे मन्दिरों में कुंभस्वामी तथा शृंगारचैरी का मंदिर (चित्तौड़), मीरां मंदिर (एकलिंगजी), रणकपुर का मंि दर अनठू े ह।ंै कभ्ंु ाा वीर, यद्धु कुषल, कलापमे्र ी क े साथ-साथ विद्वान एवं विद्यानुरागी भी था। एकलिंगमहात्म्य से ज्ञात होता है कि कंुभा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, साहित्य, राजनीति में बड़ा निपुण था। संगीतराज, संगीत मीमांसा एवं सूड़ प्रबन्ध कुंभा द्वारा रचित संगीत गं्रथ थे। कभ्ंु ाा न े चण्डीशतक की व्याख्या, गीतगाेि वन्द की रसिकपिय्र ा टीका और संगीत रत्नाकर की टीका लिखी थी। कुंभा का दरबार विद्वानों की शरणस्थली था। उसके दरबार में मण्डन (प्रख्यात शिल्पी), कवि अत्रि और महेश, कान्ह व्यास इत्यादि थे। अत्रि और महेश ने कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति की रचना की तथा कान्ह व्यास ने एकलिंगमहात्य नामक गं्रथ की रचना की। इस प्रकार कंुभा के काल में मेवाड़ सर्वतोन्मुखी उन्नति पर पहुँच गया था।
          III. मेवाड़ के वीरों में राणा सांगा (1509-1528) का अद्वितीय स्थान है। सांगा ने गागरोन के युद्ध में मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय और खातौली के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को पराजित कर अपनी सैनिक योग्यता का परिचय दिया। सांगा भारतीय इतिहास में हिन्दूपत के नाम से विख्यात है। राणा सांगा खानवा के मैदान में राजपूतों का एक संघ बनाकर बाबर के विरुद्ध लड़ने आया था परन्तु पराजित हुआ। बाबर के श्रेष्ठ नेतृत्व एवं तोपखानें के कारण सांगा की पराजय हुई। खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527) परिणामों की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथों से निकलकर, मुगलों के हाथों में आ गई। यहीं से उत्तरी भारत का राजनीतिक संबंध मध्य एशियाई देशों से पुनः स्थापित हो गया। राणा सांगा अन्तिम हिन्दू राजा था जिसके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियाँ विदेशियों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। सांगा ने अपने देश के गौरव रक्षा में एक आँख, एक हाथ और टांग गँवा दी थी। इसके अतिरिक्त उसके शरीर क े भिन्न-भिन्न भागांे पर 80 तलवार के घाव लगे हुये थे। सांगा ने अपने चरित्र और आत्म बल से उस जमाने में इस बात की पुष्टि कर दी थी कि उच्च पद और चतुराई की अपेक्षा स्वदेश रक्षा और मानव धर्म का पालन करने की क्षमता का अधिक महत्त्व है।
          सांगा के पुत्र विक्रमादित्य (1531 -1536) के राजत्व काल में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर दो आक्रमण किये, जिसमें मेवाड़ को जन और धन की हानि उठानी पड़ी। इस आक्रमण के दौरान विक्रमादित्य की माँ और सांगा की पत्नी हाड़ी कर्मावती ने हुमायूँ के पास राखी भेजकर सहायता मांगी परन्तु समय पर सहायता न मिलने पर कर्मावती (कर्णावती) ने जौहर व्रत का पालन किया। कुँवर पृथ्वीराज के अनौरस पुत्र वणवीर ने अवसर पाकर विक्रमादित्य की हत्या कर दी। वह विक्रमादित्य के दूसरे भाई उदयसिहं का े भी मारकर निश्चिन्त हाके र राज्य भोगना चाहता था परन्तु पन्नाधाय ने अपने पुत्र चन्दन को मृत्यु शैया पर लिटाकर उदयसिंह को बचा लिया और चित्तौड़गढ़ से निकालकर कंुभलगढ ़ पहँुचा दिया। इस प्रकार पन्नाधाय ने देश प्रेम हेतु त्याग का अनुठा उदाहरण प्रस्तुत किया जिसका गान भारतीय इतिहास में सदियों तक होता रहेगा।
          IV. महाराणा उदयसिंह (1537 -1572) ने 1559 में उदयपुर की स्थापना की थी। उसके समय 1567-68 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था परन्तु कहा जाता है कि अपने मन्त्रियों की सलाह पर उदयसिंह चित्तौड़ की रक्षा का भार जयमल मेड़तिया और फत्ता सिसोदिया को सौंपकर गिरवा की पहाड़ियाँ में चला गया था। इतिहास लेखकों ने इसे उदयसिंह की कायरता बताया है। कर्नल टाॅड ने तो यहाँ तक लिखा है कि यदि सांगा और प्रताप के बीच में उदयसिंह न होता तो मेवाड़ के इतिहास के पन्ने अधिक उज्ज्वल होते। परन्तु डाॅगोपीनाथ शर्मा की राय में उदयसिंह को कायर या देशद्रोही कभी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसने बणवीर, मालदेव, हाजी खाँ पठान आदि के विरुद्ध युद्ध लड़कर अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। अकबर से लड़ते हुये जयमल और फत्ता वीर गति को प्राप्त हुये। अकबर ने चित्तौड़ में तीन दिनों के कठिन संघर्ष के बाद 25 फरवरी, 1568 को किला फतह कर लिया। अकबर द्वारा यहाँ कराये गये नरसंहार से आज भी उसका नाम कलंकित है। अकबर जयमल और फत्ता की वीरता से इतना मुग्ध हुआ कि उसने आगरा किले के द्वार पर उन दोनों वीरों की पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर लगवा दी।
          V. उदयसिंह के पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कटारगढ़ (कुंभलगढ़) में हुआ था। प्रताप ने मेवाड़ के सिंहासन पर केवल पच्चीस वर्षो तक शासन किया लेकिन इतने समय में ही उन्होंने ऐसी कीर्ति अर्जित की जो देश-काल की सीमा को पार कर अमर हो गई। वह आरै उनका मवे ाड ़ राज्य वीरता, बलिदान आरै दश्े ााभिमान के पर्याय बन गए। प्रताप को पहाड़ी भाग में ‘कीका’ कहा जाता था, जो स्थानीय भाषा में छोटे बच्चे का सूचक है। अकबर ने प्रताप को अधीनता में लाने के अनेक प्रयास किये परन्तु निष्फल रहे। जहाँ भारत के तथा राजस्थान के अधिकांश नरेशों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, प्रताप ने वैभव के प्रलोभन को ठुकरा कर राजनीतिक मंच पर अपनी कत्र्तव्य परायणता के उत्तरदायित्व को बडे़ साहस से निभाया। उसने अपनी निष्ठा और दृढ़ता से अपने सैनिकों को कत्र्तव्यबोध, प्रजा को आशावादी और शत्रु को भयभीत रखा।
          अकबर मेवाड़ की स्वतन्त्रता समाप्त करने पर तुला हुआ था और प्रताप उसकी रक्षा के लिए। दोनों की मनोवृत्ति और भावनाओं का मेल न होना ही हल्दीघाटी के युद्ध (18 जून, 1576) का कारण बन गया। अकबर के प्रतिनिधि मानसिंह और महाराणा प्रताप के मध्य ऐतिहासिक हल्दीघाटी (जिला राजसमंद) का युद्ध लड़ा गया। परन्तु इसमें मानसिंह प्रताप को मारने अथवा बन्दी बनाने में असफल रहा, वहीं प्रताप ने अपनी प्रिय घोडे़ चेतक की पीठ पर बैठकर मुगलों को ऐसा छकाया कि वे अपना पिण्ड छुड़ाकर मेवाड़ से भाग निकले। यदि हम इस युद्ध के परिणामों को गहराई से देखते हैं तो पाते हैं कि पार्थिव विजय तो मुगलों को मिली, परन्तु वह विजय पराजय से कोई कम नहीं थी। महाराणा प्रताप को विपत्ति काल में उसके मन्त्री भामाशाह ने सुरक्षित सम्पत्ति लाकर समर्पित कर दी थी। इस कारण भामाशाह को दानवीर तथा मेवाड़ का उद्धारक कहकर पुकारा जाता है।
          राणा प्रताप ने 1582 में दिवेर के युद्ध में अकबर के प्रतिनिधि सुल्तान खाँ को मारकर वीरता का प्रदर्शन किया। प्रताप ने अपने जीवनकाल में चित्ताडै ़ आरै माडं लगढ़ के अतिरिक्त मेवाड़ के अधिकांश हिस्सों पर पुनः अधिकार कर लिया था। प्रताप ने विभिन्न समय में कुंभलगढ़ और चावण्ड को अपनी राजधानियाँ बनायी थीं। प्रताप के सम्बन्ध में कर्नल जेम्स टाॅड का कथन है कि ‘‘अकबर की उच्च महत्त्वाकांक्षा, शासन निपुणता और असीम साधन ये सब बातें दृढ़-चित्त महाराणा प्रताप की अदम्य वीरता, कीर्ति को उज्ज्वल रखने वाले दृढ़ साहस और कर्मठता को दबाने में पर्याप्त न थी। अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी न किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपल्ली और दिवेर मेवाड़ का मरे ाथन है।’’ अतएव स्वतन्त्रता का महान ् स्तभ्ं ा, सदक् ार्यांे का समर्थक और नैतिक आचरण का पुजारी होने के कारण आज भी प्रताप का नाम असंख्य भारतीयों के लिए आशा
का बादल है और ज्योति का स्तंभ है।
होगा, परन्तु राणा को दरबार में जाकर उपस्थित होना आवश्यक न होगा।
          VI. महाराणा राजसिंह (1652-1680) ने मेवाड़ की जनता को दुश्काल से सहायता पहुँचाने के लिए तथा कलात्मक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए राजसमंद झील का निर्माण करवाया। राजसिंह ने युद्ध नीति और राज्य हित के लिए संस्कृति के तत्त्वों के पोषण की नीति को प्राथमिकता दी। वह रणकुशल, साहसी, वीर तथा निर्भीक शासक था। उसमें कला के प्रति रुचि और साहित्य के प्रति निष्ठा थी। मेवाड़ के इतिहास में निर्माण कार्य एवं साहित्य को इसके समय में जितना प्रश्रय मिला, कुंभा को छोड़कर किसी अन्य शासक के समय में न मिला। औरगंजेब जैसे शक्तिशाली मुगल शासक से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखना तथा आवश्यकता पड़ने पर शत्रुता बढ़ा लेना राजसिंह की समयोचित नीति का परिणाम था।
          प्रताप की मृत्यु (19 जनवरी, 1597) के पश्चात् उसके पुत्र अमर सिंह ने मेवाड़ की बिगड़ी हुई व्यवस्था को सुधारने के लिए मुगलों से संधि करना श्रेयस्कर माना। अमरसिंह ने 1615 को जहाँगीर के प्रतिनिधि पुत्र खुर्रम के पास संधि का प्रस्ताव भेजा, जिसे जहाँगीर ने स्वीकार कर लिए। अमरसिंह मुगलों से संधि करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था। संधि में कहा गया था कि राणा अमरसिंह को अन्य राजाओं की भांति मुगल दरबार की सेवा श्रेणी में प्रवेश करना 

कछवाहा वंश

          I. कछवाहा वंश राजस्थान के इतिहास मंच पर  बारहवीं सदी से दिखाई देता है। उनको प्रारम्भ में मीणों और बड़गुजरों का सामना करना पड़ा था। इस वंश के प्रारम्भिक शासकों ने दुल्हैराय व पृथ्वीराज बडे़ प्रभावशाली थे जिन्होंने दौसा, रामगढ़, खोह, झोटवाड़ा, गेटोर तथा आमेर को अपने राज्य में सम्मिलित किया था। पृथ्वीराज, राणा सांगा का सामन्त होने के नाते खानवा के युद्ध (1527) में बाबर के विरुद्ध लड़ा था। पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद कछवाहों की स्थिति संतोषजनक नहीं थी। गृह कलह तथा अयोग्य शासकों से राज्य निर्बल हो रहा था। 1547 में भारमल ने आमेर की बागडोर हाथ में ली। भारमल ने उदयीमान अकबर की शक्ति का महत्त्व समझा और 1562 में उसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर अपनी ज्येश्ठ पुत्री हरकूबाई का विवाह अकबर के साथ कर दिया। अकबर की यह बेगम मरियम-उज्जमानी के नाम से विख्यात हुई। भारमल पहला राजपूत था जिसने मुसलमानों (मुगल)  राजस्थान अध्ययन भाग-1 12 से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे।
         II. भारमल के पश्चात् कछवाहा शासक मानसिंह अकबर के दरबार का योग्य सेनानायक था। रणथम्भौर के 1569 के आक्रमण के समय मानसिंह और उसके पिता भगवन्तदास अकबर के साथ थे। मानसिंह को अकबर ने काबुल, बिहार और बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। वह अकबर के नवरत्नों में शामिल था तथा उसे अकबर ने 7000 मनसब प्रदान किया था। मानसिंह ने आमेर में शिलादेवी मन्दिर, जगतशिरोमणि मन्दिर इत्यादि का निर्माण करवाया। इसके समय में दादूदयाल ने ‘वाणी’ की रचना की थी।
          मानसिंह के पश्चात् के शासकों में मिर्जा राजा जयसिंह (1621-1667) महत्त्वपूर्ण था, जिसने 46 वर्षों तक शासन किया। इस दौरान उसे जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब की सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। उसे शाहजहाँ ने ‘मिर्जा राजा’ का खिताब प्रदान किया। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह को मराठों के विरुद्ध दक्षिण भारत में नियुक्त किया था। जयसिंह ने पुरन्दर में शिवाजी को पराजित कर मुगलों से संधि के लिए बाध्य किया। 11 जून, 1665 को शिवाजी और जयसिंह के मध्य पुरन्दर की संधि हुई थी, जिसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर शिवाजी ने मुगलों की सेवा में उपस्थित होने का वचन दिया। इस प्रकार पुरन्दर की संधि जयसिंह की राजनीतिक दूरदर्शिता का एक सफल परिणाम थी। जयसिंह के बनवाये आमेर के महल तथा जयगढ़ और औरंगाबाद में जयसिंहपुरा उसकी वास्तुकला के प्रति रुचि को प्रदर्शित करते हैं। इसके दरबार में हिन्दी का प्रसिद्ध कवि बिहारीमल था।
          III. कछवाहा शासकांे मंे सवाई जयसिंह द्वितीय (1700-1743) का अद्वितीय स्थान है। वह राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, खगोलविद्, विद्वान एवं साहित्यकार तथा कला का पारखी था। वह मालवा का मुगल सूबेदार रहा था। जयसिंह ने मुगल प्रतिनिधि के रूप में बदनसिंह के सहयोग से जाटों का दमन किया। सवाई जयसिंह ने राजपूताना में अपनी स्थिति मजबूत करने तथा मराठों का मुकाबला करने के उद्देश्य से 17 जुलाई, 1734 को हुरड़ा (भीलवाड़ा) में राजपतू राजाआंे का सम्मेलन आयाेि जत किया। इसमें जयपरु , जोधपुर, उदयपुर, कोटा, किशनगढ़, नागौर, बीकानेर आदि के शासकों ने भाग लिया था परन्तु इस सम्मेलन का जो परिणाम होना चाहिए था, वह नहीं हुआ, क्योंकि राजस्थान के शासकों के स्वार्थ भिन्न-भिन्न थे। सवाई जयसिंह अपना प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से बूँदी के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप कर स्वयं वहाँ का सर्वेसर्वा बन बैठा, परन्तु बूँदी के बुद्धसिंह की पत्नी अमर कुँवरि ने, जो जयसिंह की बहिन थी, मराठा मल्हारराव होल्कर को अपना राखीबन्द भाई बनाकर और धन का लालच देकर बूँदी आमंत्रित किया जिससे होल्कर और सिन्धिया ने बूँदी पर आक्रमण कर दिया।
          सवाई जयसिंह संस्कृत और फारसी का विद्वान होने के साथ गणित और खगोलशास्त्र का असाधारण पण्डित था। उसने 1725 में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनाई और उसका तत्कालीन सम्राट के नाम पर ‘जीजमुहम्मदशाही’नाम रखा। उसने ‘जयसिंह कारिका’ नामक ज्योतिष गं्रथ की रचना की। सवाई  जयसिंह की महान् देन जयपुर है, जिसकी उसने 1727 में स्थापना की थी। जयपुर का वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य था। नगर निर्माण के विचार से यह नगर भारत तथा यूरोप में अपने ढंग का अनूठा है जिसकी समकालीन और वर्तमानकालीन विदेशी यात्रियों ने मक्ु तकंठ स े पश््र ांसा की ह।ै जयपुर मंे जयसिहं न े सुदर्शनगढ़ (नाहरगढ़) किले का निर्माण करवाया तथा जयगढ़ किले में जयबाण नामक तापे बनवाई। उसने दिल्ली, जयपरु , उज्जनै , मथुरा और बनारस में पाँच वेधशालाओं (जन्तर-मन्तर) का निर्माण करवाया, जो ग्रह-नक्षत्रादि की गति को सही तौर से जानने के लिए बनवाई गई थी। जयपुर के जन्तर-मन्तर में सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित ‘सूर्य घड़ी’ है जिसे ‘सम्राट यंत्र’ के नाम से जाना जाता है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी सूर्य घड़ी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। धर्मरक्षक होने क े नाते उसने वाजपये , राजसूय आदि यज्ञांे का आयोजन किया। वह अन्तिम हिन्दू नरेश था, जिसने भारतीय परम्परा क े अनुकलू अश्वमेध यज्ञ किया। इस प्रकार सवाई जयसिंह अपने शौर्य, बल, कूटनीति और विद्वता के कारण अपने समय का ख्याति प्राप्त व्यक्ति बन गया था, परन्तु वह युग के प्रचलित दोषों से ऊपर न उठ सका।

राठौड़ वंश

          I. राजस्थान के उत्तरी और पश्चिमी भागों में राठौड़ राज्य स्थापित थे। इनमें जोधपुर और बीकानेर के राठौड़ राजपूत प्रसिद्ध रहे हैं। जोधपुर राज्य का मूल पुरुष राव सीहा था, जिसने मारवाड़ के एक छोटे भाग पर शासन किया। परन्तु लम्बे समय तक गुहिलों, परमारों, चैहानों आदि राजपूत राजवंशों की तुलना में राठौड़ों की शक्ति प्रभावशाली न हो पाई थी।
          II. राठौड़ शासक राव जोधा ने 1459 मे जोधपुर बसाकर वहाँ मेहरानगढ़ का निर्माण करवाया था। राव गांगा (1515-1532) ने खानवा के युद्ध में 4000 सैनिक भेजकर सांगा की मदद की थी। इस प्रकार सांगा जैसे शक्ति सम्पन्न शासक के साथ रहकर राव गांगा ने अपने राज्य का राजनीतिक स्तर ऊपर उठा दिया। राव मालदेव गांगा का ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने समय का एक वीर, प्रतापी, शक्ति सम्पन्न शासक था। उसके समय में मारवाड़ की सीमा हिण्डौन, बयाना, फतेहपुर-सीकरी और मेवाड़ की सीमा तक प्रसारित हो चुकी थी। मालदेव की पत्नी उमादे (जैसलमेर की राजकुमारी) इतिहास में ‘रूठी रानी’ के नाम से विख्यात है। मालदेव ने साहेबा के मैदान में बीकानेर के राव जैतसी को मारकर अपने साम्राज्य विस्तार की इच्छा को पूरी किया परन्तु मालदेव ने अपनी विजयांे स े जसै लमेर, मेवाड़ आरै बीकानरे स े शत्रुता बढा़ कर अपने सहयोगियांे की सख्ं या कम कर दी। शेरशाह से हारने के बाद हुमायूँ मालदेव से सहायता प्राप्त करना चाहता था परन्तु वह मालदेव पर सन्देह करके अमरकोट की ओर प्रस्थान कर गया। मालदेव की सेना को 1544 में गिरि-सुमेल के युद्ध में शेरशाह सूरी का सामना करना पड़ा। कहा जाता है कि इस युद्ध में पूर्व शेरशाह ने चालाकी का सहारा लेते हुये मालदेव के दो सेनापति जेता और कूंपा को जाली पत्र लिखकर अपनी ओर मिलाने का ढोंग रचा था। इस युद्ध में स्वामिभक्त जेता और कूंपा मारे गये तथा शेरशाह की विजय हुई। युद्ध समाप्ति के पश्चात् शेरशाह ने कहा था ‘‘एक मुट्ठी भर बाजरा के लिए वह हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।’’
          III. मालदवे क े पत्रु चन्द्रसेन न े जा े एक स्वतन्त्र प्रकृति का वीर था, अपना अधिकांश जीवन पहाड़ों में बिताया परन्तु अकबर की आजीवन अधीनता स्वीकार नहीं की। वंश गौरव और स्वाभिमान, जो राजस्थान की संस्कृति के मूल तत्व हैं, हम चन्द्रसेन के व्यक्तित्व में पाते हैं। महाराणा प्रताप ने जैसे अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए मुगल अधीनता स्वीकार नहीं की, उसी प्रकार चन्द्रसेन भी आजन्म अकबर से टक्कर लेता रहा। चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद अकबर ने चन्द्रसेन के बडे़ भाई मोटा राजा उदयसिंह को 1583 में मारवाड़ का राज्य सौंप दिया। इस प्रकार उदयसिंह मारवाड़ का प्रथम शासक था जिसने मुगलों की कृपा प्राप्त की थी। उदयसिंह ने 1587 में अपनी पुत्री मानीबाई (जोधपुर की राजकुमारी होने के कारण यह जोधाबाई भी कहलाती है) का विवाह जहाँगीर के साथ कर दिया। यह इतिहास में ‘जगतगुसाई’ के नाम से प्रसिद्ध थी। इसी वश्ं ा क े गजसिंह का पत्रु अमरसिंह राठाडै ़ राजकमु ारांे में अपने साहस और वीरता के लिए प्रसिद्ध है। आज भी इसके नाम के ‘ख्याल’ राजस्थान के गाँवों में गाये जाते हैं।
          IV. जसवन्त सिंह ने धर्मत के युद्ध (1658) में औरंगजेब के विरुद्ध शाही सेना की ओर से भाग लिया था परन्तु शाही सेना की पराजय ने जसवन्तसिंह को युद्ध मैदान से भागने पर मजबूर कर दिया। जसवन्त सिंह खजुआ के युद्ध (1659) मंे शुजा के विरुद्ध औरंगजेब की ओर से लड़ने गया था परन्तु वह मैदान में शुजा से गुप्त संवाद कर, शुजा की ओर शामिल हो गया, जो उसके लिए अशोभनीय था। हालांकि वह जैसा वीर, साहसी और कूटनीतिज्ञ था वैसा ही वह विद्या तथा कला प्रेमी भी था। उसने ‘भाषा-भूषण’ नामक गं्रथ लिखा। मँुहणोत नैणसी उसका मंत्री था। नैणसी द्वारा लिखी गई ‘नैणसी की ख्यात’ तथा ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ राजस्थान की ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति के अध्ययन के अनुपम ग्रंथ हैं। जसवन्त सिंह मारवाड़ का शासक था जिसने अपने बल और प्रभाव से अपने राज्य का सम्मान बनाये रखा। मुगल दरबार का सदस्य होते हुए भी उसने अपनी स्वतन्त्र प्रकृति का परिचय देकर राठौड़ वंश के गौरव और पद की प्रतिष्ठा बनाये रखी। राठौड़ दुर्गादास ने औरंगजेब का विरोध कर जसवन्तसिंह के पुत्र अजीतसिंह को मारवाड़ का शासक बनाया। परन्तु अजीतसिंह ने अपने सच्चे सहायक और मारवाड़ के रक्षक, अदम्य साहसी वीर दुर्गादास को, जिसने उसके जन्म से ही उसका साथ दिया था, बुरे लोगों को बहकाने में आकर बिना किसी अपराध के मारवाड़ से निर्वासित कर दिया। उसकी यह कृतघ्नता उसके चरित्र पर कलंक की कालिमा के रूप में सदैव अंकित रहेगी।
          दुर्गादास ने अपनी कूटनीति से औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर को अपनी ओर मिला लिया था। उसने शहजादा अकबर के पुत्र बुलन्द अख्तर तथा पुत्री सफीयतुनिस्सा को शरण देकर तथा उनके लिए कुरान की शिक्षा व्यवस्था करके साम्प्रदायिक एकता का परिचय दिया। वीर दुर्गादास राठौड़ों का एक चमकता हुआ सितारा है, जिससे इतिहासकार जेम्स टाॅड भी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका। जेम्स टाॅड ने उसे ‘राठौड़ों का यूलीसैस’ कहा है।
          V. जोधपुर के जोधा के पुत्र राव बीका ने 1488 में बीकानेर बसाकर उसे राठौड़ सत्ता का दूसरा केन्द्र बनाया। बीका के पुत्र राव लूणकर्ण को इतिहास में ‘कलयुग का कर्ण’ कहा गया है। बीकानेर के जैतसी का बाबर के पुत्र कामरान से संघर्ष हुआ जिसमें कामरान की पराजय हुई। 1570 में अकबर द्वारा आयोजित नागौर दरबार में राव

कल्याणमल ने अपने पुत्र रायसिंह के साथ भाग लिया। तभी से मुगल सम्राट और बीकानेर राज्य का मैत्री संबंध
स्थापित हो गया। बीकानेर के नरेशों में कल्याणमल प्रथम व्यक्ति था जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
          VI. महाराजा रायसिंह न े मगु लांे की लिए गुजरात, काबुल और कंधार अभियान किये। वह अपने वीरोचित तथा स्वामिभक्ति के गुणों के कारण अकबर तथा जहाँगीर का विश्वास पात्र बना रहा। रायसिंह ने बीकानेर के किले का निर्माण करवाया, जिस पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है। रायसिंह स्वभाव से उदार तथा दानवीर शासक था। इसी आधार पर मंुशी देवीप्रसाद ने उसे ‘राजपूताने का कर्ण’ कहा है। बीकानेर महाराजा दलपतसिंह का आचरण जहाँगीर के अनुकूल न होने के कारण जहाँगीर ने उसे कैद कर मृत्यु दण्ड दिया था। महाराजा कर्णसिंह को ‘जगं लधर बादशाह’ कहा जाता था। इस उपाधि का उपयागे बीकानेर के सभी शासक करते हैं।
          VII. महाराजा अनूपसिंह वीर, कूटनीतिज्ञ और विद्यानुरागी शासक था। उसने अनूपविवेक, कामप्रबोध, श्राद्धप्रयोग चिन्तामणि और गीतगोविन्द पर ‘अनूपोदय’ टीका लिखी थी। उसे संगीत से प्रेम था। उसने दक्षिण में रहते हुए अनेक ग्रंथों को नष्ट होने से बचाया और उन्हें खरीदकर अपने पुस्तकालय के लिए ले आया। कंुभा के संगीत गं्रथों का पूरा संग्रह भी उसने एकत्र करवाया था। आज अनूप पस्ु तकालय (बीकानरे ) हमार े लिए अलभ्य पस्ु तकांे का भण्डार है, जिसका श्रेय अनूपसिंह के विद्यानुराग को है। दक्षिण में रहते हुये उसने अनेक मूर्तियों का संग्रह किया और उन्हंे नष्ट हाने े से बचाया। यह मूर्तियांे का संग्रह बीकानेर के ‘‘तैतीस करोड़ देवताओं के मंदिर’’ में सुरक्षित है।
          VIII. किशनगढ़ में भी राठौड़ सत्ता का पृथक् केन्द्र था। यहाँ का प्रसिद्ध शासक सावन्त सिंह था, जो कृष्ण भक्त होने के कारण ‘नागरीदास’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसके समय किशनगढ़ में चित्रकला का अद्भुत विकास हुआ। किशनगढ़ चित्रशैली का प्रसिद्ध चित्रकार ‘निहालचन्द था, जिसने प्रसिद्ध ‘बनी-ठणी’ चित्र चित्रित किया।

चैहान वंश

          I. हम चैहानों के अधिवासन और प्रारम्भिक विस्तार में बारे में विगत पृष्ठों में अध्ययन कर चुके हैं। बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में शाकम्भरी के चैहान शासक पृथ्वीराज चैहान तृतीय न े अपनी विजयांे स े उत्तरी भारत की राजनीति में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया था। उसने चन्देल शासक परमार्दीदेव के देशभक्त सेनानी आल्हा और ऊदल को मारकर 1182 को महोबा को जीत लिया। कन्नौज के गाहड़वाल शासक जयचन्द का दिल्ली को लेकर चैहानों से वैमनस्य था। हालांकि पृथ्वीराज चैहान तृतीय भी अपनी दिग्विजय में कन्नौज को शामिल करना चाहता था। इस प्रकार पृथ्वीराज चैहान तृतीय और जयचन्द की महत्त्वाकांक्षा दोनों के वैमनस्य का कारण बन गयी। पृथ्वीराजरासो दोनों के मध्य शत्रुता का कारण जयचन्द की पुत्री संयोगिता को बताता है। पृथ्वीराज तृतीय ने 1191 में तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गौरी का े पराजित कर भारत मंे तर्कु  आक्रमण का े धक्का पहँुचाया। तुर्कों के विरुद्ध लड़े गये युद्धों में तराइन का प्रथम युद्ध हिन्दू विजय का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। परन्तु पृथ्वीराज चैहान द्वारा पराजित तुर्की सेना का पीछा न किया जाना इस युद्ध में की गयी भूल के रूप में भारतीय भ्रम का एक कलंकित पृष्ठ है। इस भूल के परिणामस्वरूप 1192 में महु म्मद गौरी न े तराइन के दूसरे यद्धु मंे पृथ्वीराज चाहै ान तृतीय को पराजित कर दिया। इस हार का कारण राजपूतों का परम्परागत सैन्य संगठन माना जाता है। पृथ्वीराज चैहान अपने राज्यकाल के आरंभ से लेकर अन्त तक युद्ध लड़ता रहा, जो उसके एक अच्छे सैनिक और सेनाध्यक्ष होने को प्रमाणित करता है। सिवाय तराइन के द्वितीय युद्ध के, वह सभी युद्धों में विजेता रहा। वह स्वयं अच्छा गुणी होने के साथ-साथ गुणीजनों का सम्मान करने वाला था। जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन तथा विश्वरूप उसके दरबारी लेखक और कवि थे, जिनकी कृतियाँ उसके समय को अमर बनाये हुए हैं। जयानक ने पृथ्वीराज विजय की रचना की थी। पृथ्वीराजरासो का लेखक चन्दबरदाई भी पृथ्वीराज चैहान का आश्रित कवि था।
          II. रणथम्भारै क े चाहै ान वंश की स्थापना पृथ्वीराज चैहान के पुत्र गोविन्द राज ने की थी। यहाँ के प्रतिभा सम्पन्न शासकों में हम्मीर का नाम सर्वोपरि है। दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने हम्मीर के समय रणथम्भौर पर असफल आक्रमण किया था। अलाउद्दीन खिलजी ने 1301 में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। इसका मुख्य कारण हम्मीर द्वारा अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध मंगोल शरणार्थियों को आश्रय देना था। किला न जीत पाने के कारण अलाउद्दीन ने हम्मीर के सेनानायक रणमल और रतिपाल को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। हम्मीर ने आगे बढ़कर शत्रु सेना का सामना किया पर वह वीरोचित गति को प्राप्त हुआ। हम्मीर की रानी रंगादेवी और पुत्री ने जौहर व्रत द्वारा अपने धर्म की रक्षा की। यह राजस्थान का प्रथम जौहर माना जाता है। हम्मीर के साथ ही रणथम्भौर के चैहानों का राज्य समाप्त हो गया। हम्मीर के बारे में प्रसिद्ध है ‘‘तिरिया-तेल, हम्मीर हठ चढे़ न दूजी बार।’’
          III. जालौर की चैहान शाखा का संस्थापक कीर्तिपाल था। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालिपुर और किले का सुवर्णगिरि मिलता है, जिसको अपभ्रंष में सोनगढ़ कहते हैं। इसी पर्वत के नाम से चैहानों की यह शाखा ‘सोनगरा’ कहलायी। इस शाखा का प्रसिद्ध शासक कान्हड़दे चैहान था। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर को जीतने से पूर्व 1308 में सिवाना पर आक्रमण किया। उस समय चैहानांे क े एक सरदार जिसका नाम सातलदेव था, दुर्ग का रक्षक था। उसने अनेक स्थानों पर तुर्कों को छकाया था। इसलिए उसके शौर्य की धाक राजस्थान में जम चुकी थी। परन्तु एक राजद्रोही भावले नामक सैनिक द्वारा विश्वासघात करने के कारण सिवाना का पतन हो गया और अलाउद्दीन ने सिवाना जीतकर उसका नाम खैराबाद रख दिया। इस विजय के पश्चात् 1311 मंे जालौर का भी पतन हो गया और वहाँ का शासक कान्हड़देव वीर गति को प्राप्त हुआ। वह शूरवीर योद्धा, देशाभिमानी तथा चरित्रवान व्यक्ति था। उसने अपने अदम्य साहस तथा सूझबूझ से किले निवासियों, सामन्तों तथा राजपूत जाति का नेतृत्व कर एक अपूर्व ख्याति अर्जित की थी।
          IV. वर्तमान हाड़ौती क्षेत्र पर चैहान वंशीय हाड़ा राजपूतों का अधिकार था। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र पर मीणाओं का अधिकार था। ऐसा माना जाता है कि बून्दा मीणा के नाम पर ही बूँदी का नामकरण हुआ। कुंभाकालीन राणपुर के लेख में बूँदी का नाम ‘वृन्दावती’ मिलता है। राव देवा ने मीणाओं को पराजित कर 1241 में बूँदी राज्य की स्थापना की थी। बूँदी के प्रसिद्ध किले तारागढ़ का निर्माण बरसिंह हाड़ा ने करवाया था। तारागढ़ ऐतिहासिक काल में भित्तिचित्रों के लिए विख्यात रहा है। बूँदी के सुर्जनसिंह ने 1569 में अकबर की अधीनता स्वीकार की थी। बूँदी की प्रसिद्ध चैरासी खंभों की छतरी शत्रुसाल हाड़ा का स्मारक है, जो 1658 में शामूगढ़ के युद्ध में औरंगजेब के विरुद्ध शाही सेना की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था। बुद्धसिंह के शासनकाल में मराठों ने बूँदी रियासत पर आक्रमण किया था। प्रारम्भ में कोटा बूँदी राज्य का ही भाग था, जिस े शाहजहा ँ न े बँदू ी स े अलग कर माधोसिंह को सौंपकर 1631 ई. में नये राज्य के रूप में मान्यता दी थी। कोटा राज्य का दीवान झाला जालिमसिंह इतिहास चर्चित व्यक्ति रहा है। कोटा रियासत पर उसका पूर्ण नियन्त्रण था। कोटा में ऐतिहासिक काल से आज तक कृष्ण भक्ति का प्रभाव रहा है। इसलिए कोटा का नाम ‘नन्दग्राम’ भी मिलता हैं। बूँदी-कोटा में सांस्कृतिक उपागम के रूप में यहाँ की चित्रशैलियाँ विख्यात रही हैं। बूँदी में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ अकं न हुआ है, वहीं काटे ा शलै ी शिकार के चित्रांे के लिए विख्यात रही है।

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ



Teju ajni143





राजस्थान और प्रस्तर युग

          राजस्थान में आदिमानव का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ अथवा उसके क्या क्रिया-कलाप थे, इससे संबंधित समसामयिक लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्राचीन प्रस्तर-युग के अवशेष अजमेर, अलवर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, जयपुर, जालौर, पाली, टोंक आदि क्षेत्रों की नदियों अथवा उनकी सहायक नदियों के किनारों से प्राप्त हुये हैं। चित्तौड़ और इसके पूर्व की ओर तो औजारों की उपलब्धि इतनी अधिक है कि ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह क्षेत्र इस काल के उपकरणों को बनाने का प्रमुख केन्द्र रहा हो। लूनी नदी के तटों में भी प्रारम्भिक कालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं। राजस्थान में मानव विकास की दूसरी सीढ़ी मध्य पाशाण एवं नवीन पाषाण युग है। आज से हजारों वर्षों से पूर्व लगातार इस यगु की संस्कृति विकसित होती रही। इस काल क े उपकरणांे की उपलब्धि पश्चिमी राजस्थान में लूनी तथा उसकी सहायक नदियाँ की घाटियों व दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में चित्तौड़ जिले में बेड़च और उसकी सहायक नदियाँ की घाटियों में प्रचुर मात्रा में हुई है। बागौर और तिलवाड़ा के उत्खनन से नवीन पाषाणकालीन तकनीकी उन्नति पर अच्छा प्रकाश पड़ा है। इनके अतिरिक्त अजमेर, नागौर, सीकर, झुंझुनूं, कोटा, टोंक आदि स्थानों से भी नवीन पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं। 
          नवीन पाषाण युग में कई हजार वर्ष गुजारने के पश्चात् मनुष्य को धीरे-धीरे धातुओं का ज्ञान हुआ। आज से लगभग 6000 वर्ष पहले धातुओं के युग को स्थापित किया जाता है, परन्तु समयान्तर में जब ताँबा और पीतल, लोहा आदि का उसे ज्ञान हुआ तो उनका उपयोग औजार बनाने के लिए किया गया। इस प्रकार धातु युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि कृषि और शिल्प आदि कार्यों का सम्पादन मानव के लिए अब अधिक सुगम हो गया और धातु से बने उपकरणों से वह अपना कार्य अच्छी तरह से करने लगा।

कालीबंगा

          यह सभ्यता स्थल वर्तमान हनुमानगढ़ जिले में सरस्वती-दृशद्वती नदियों के तट पर बसा हुआ था, जो 2400-2250 ई. पू. की संस्कृति की उपस्थिति का प्रमाण है। कालीबंगा में मुख्य रूप से नगर योजना के दो टीले प्राप्त हुये हैं। इनमें पूर्वी टीला नगर टीला है, जहाँ से साधारण बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। पश्चिमी टीला दुर्ग टीले के रूप में है, जिसके चारों ओर सुरक्षा प्राचीर है। दोनों टीलों के चारों ओर भी सरु क्षा प्राचीर बनी हुई  थी। कालीबंगा से पूर्व-हड़प्पाकालीन, हड़प्पाकालीन और उत्तर हड़प्पाकालीन साक्ष्य मिले है। इस पूर्व-हड़प्पाकालीन स्थल से जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले हैं, जो संसार में प्राचीनतम हैं। पत्थर के अभाव के कारण दीवारें कच्ची ईंटों से बनती थी और इन्हें मिट्टी से जोड़ा जाता था। व्यक्तिगत और सार्वजनिक नालियाँ तथा कूड़ा डालने के मिट्टी के बर्तन नगर की सफाई की असाधारण व्यवस्था के अंग थे। वर्तमान में यहाँ घग्घर नदी बहती है जो प्राचीन काल में सरस्वती के नाम से जानी जाती थी। यहाँ से धार्मिक प्रमाण के रूप में अग्निवेदियों के साक्ष्य मिले है। यहाँ संभवतः धूप में पकाई राजस्थान अध्ययन भाग-1 4 गई ईंटों का प्रयोग किया जाता था। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों और मुहरों पर जो लिपि अंकित पाई गई है, वह सैन्धव लिपि से मिलती-जुलती है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। कालीबंगा से पानी के निकास के लिए लकड़ी व ईंटों की नालियाँ बनी हुई मिली हैं। ताम्र से बने कृषि के कई औजार भी यहाँ की आर्थिक उन्नति के परिचायक हैं। कालीबंगा की नगर योजना सिन्धु घाटी की नगर योजना के अनुरूप दिखाई देती है। कालीबंगा के निवासियों की मृतक के प्रति श्रद्धा तथा धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने वाली तीन समाधियाँ मिली हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी समृद्ध सभ्यता का ह्नास हो गया, जिसका कारण संभवतः सूखा, नदी मार्ग में परिवर्तन इत्यादि माने जाते हैं।

आहड़

          वर्तमान उदयपुर जिले में स्थित आहड़ दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान का सभ्यता का केन्द्र था। यह सभ्यता बनास नदी सभ्यता का प्रमुख भाग थी। ताम्र सभ्यता के रूप में प्रसिद्ध यह सभ्यता आयड़ नदी के किनारे मौजूद थी। यह ताम्रवती नगरी अथवा धूलकोट के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह सभ्यता आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व बसी थी। विभिन्न उत्खनन के स्तरों से पता चलता है कि बसने से लेकर 18वीं सदी तक यहाँ कई बार बस्ती बसी और उजड़ी। ऐसा लगता है कि आहड़ के आस-पास ताँबे की अनेक खानों के होने से सतत रूप से इस स्थान के निवासी इस धातु के उपकरणों को बनाते रहें और उसे एक ताम्रयुगीय कौशल केन्द्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 500 मीटर लम्बे धूलकोट के टीले से ताँबे की कुल्हाड़ियाँ, लोहे के औजार, बांस के टुकडे़, हड्डियाँ आदि सामग्री प्राप्त हुई हैं।
          अनुमानित है कि मकानों की योजना में आंगन या गली या खुला स्थान रखने की व्यवस्था थी। एक मकान में 4 से 6 बडे़ चूल्हों का होना आहड़ में वृहत् परिवार या सामूहिक भोजन बनाने की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं। आहड़ से खुदाई से प्राप्त बर्तनों तथा उनके खंडित टुकड़ों से हमें उस युग में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का अच्छा परिचय मिलता है। यहाँ तृतीय ईसा पूर्व से प्रथम ईसा पूर्व की यूनानी मुद्राएँ मिली हैं। इनसे इतना तो स्पष्ट है कि उस युग में राजस्थान का व्यापार विदेशी बाजारों से था। इस बनास सभ्यता की व्यापकता एवं विस्तार गिलूंड, बागौर तथा अन्य आसपास के स्थानों से प्रमाणित है। इसका संपर्क नवदाटोली, हड़प्पा, नागदा, एरन, कायथा आदि भागों की प्राचीन सभ्यता से भी था, जो यहाँ से प्राप्त काले व लाल मिट्टी के बर्तनों के आकार, उत्पादन व कौशल की समानता से निर्दिष्ट होता है।

बैराठ

          वर्तमान जयपुर जिले में स्थित बैराठ का महाभारत कालीन मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर से समीकरण किया जाता है। यहाँ की पुरातात्त्विक पहाड़ियों के रूप में बीजक डूँगरी, भीम डूँगरी, मोती डूँगरी इत्यादि विख्यात है। यहाँ की बीजक डूँगरी से कैप्टन बर्ट ने अशोक का ‘भाब्रू शिलालेख’ खोजा था। इनके अतिरिक्त यहाँ से बौद्ध स्तूप, बौद्ध मंदिर (गोल मंदिर) और अशोक स्तंभ के साक्ष्य मिले हैं। ये सभी अवशेष मौर्ययुगीन हैं। ऐसा माना जाता है कि हूण आक्रान्ता मिहिरकुल ने बैराठ का विध्वंस कर दिया था। चीनी यात्री युवानच्वांग ने भी अपने यात्रा वृत्तान्त में बैराठ का उल्लेख किया है।

सभ्यता के अन्य प्रमुख केन्द्र

          पाषाणकालीन सभ्यता के केन्द्र बागौर से भारत में पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं। ताम्रयुगीन सभ्यता के दो वृहद् समूह सरस्वती तथा बनास नदी के कांठे में पनपे थे जिनका वर्णन ऊपर के पृष्ठों में किया गया है। इसी प्रकार राजस्थान में अन्य कई महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं जो इस युग के वैभव की दुहाई दे रहे हैं। गणेश्वर, खेतड़ी, दरीबा, ओझियाना, कुराड़ा आदि से प्राप्त ताम्र और ताम्र उपकरणों का उपयोग अधिकांश राजस्थान के अतिरिक्त हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, रोपड़ आदि में भी होता था। सुनारी, ईसवाल, जोधपुरा, रेढ़ इत्यादि स्थलों से लोहयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले है। 
          अतः सरस्वती-दृशद्वती, बनास, बेड़च, आहड़, लूनी इत्यादि नदियों की उपत्यकाओं में दबी पड़ी कालीबंगा, आहड़, बागोर, गिलूंड, गणेश्वर आदि बस्तियों से मिली प्राचीन वस्तुओं से एक विकसित और व्यापक संस्कृति का पता लगा है। ये सभ्यताएँ न केवल स्थानीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व करती थी, अपितु चित्रकला, भाण्ड-शिल्प तथा धातु संबंधी तकनीकी कौशल में पश्चिमी एशिया, ईराक, अफ्रीका आदि देशों की प्राचीन सभ्यताओं से सम्पर्क में थी।