Monday 18 August 2014

राजस्थान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

राजस्थान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि



Teju jani143



राजस्थान का इतिहास हमारी गौरवमयी धरोहर है, जिसमें विविधता के साथ निरन्तरता है। परम्पराओं और बहुरंगी सांस्कृतिक विषेशताओं से ओत-प्रोत राजस्थान एक ऐसा प्रदेश है, जहाँ की मिट्टी का कण-कण यहाँ के रणबांकुरों की विजयगाथा बयान करता है। यहाँ के शासकों ने मातृभूमि की रक्षा हेतु सहर्श अपने प्राणों की आहूति दी। कहते हैं राजस्थान के पत्थर भी अपना इतिहास बोलते हैं। यहाँ पुरा सम्पदा का अटूट खजाना है। कहीं पर प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की छटा है तो कहीं प्राचीन संस्कृतियों के प्रमाण हैं। कहीं प्रस्तर प्रतिमाओं का शैल्पिक प्रतिमान तो कहीं शिलालेखों के रूप में पाषाणों पर उत्कीर्ण गौरवशाली इतिहास। कहीं समय का एतिहासिक बखान करते प्राचीन सिक्के तो कहीं वास्तुकला के उत्कृष्ठ प्रतीक। उपासना स्थल, भव्य प्रासाद, अभेद्य दुर्ग एवं जीवंत स्मारकों का संगम आदि राजस्थान के कस्बों, शहरों एवं उजड़ी बस्तियों में देखने को मिलता है। राजस्थान के बारे में यह सोचना गलत होगा कि यहाँ की धरती केवल रणक्षेत्र रही है। सच तो यह है कि यहाँ तलवारों की झंकार के साथ भक्ति और आध्यात्मिकता का मधुर संगीत सुनने को मिलता है। लोकपरक सांस्कृतिक चेतना अत्यन्त गहरी है। मेले एवं त्योहार यहाँ के लोगों के मन में रचे -बसे हैं। लोकनृत्य एवं लोक गीत राजस्थानी संस्कृति के संवाहक हैं। राजस्थानी चित्रशैलियों में शृंगार सौन्दर्य के साथ लौकिक जीवन की भी सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
          राजस्थान की यह मरुभूमि प्राचीन सभ्यताओं की जन्म स्थली रही है। यहाँ कालीबंगा, आहड़, बैराठ, बागौर, गणेश्वर जैसी अनेक पाषाणकालीन, सिन्धुकालीन और ताम्रकालीन सभ्यताओं का विकास हुआ, जो राजस्थान के इतिहास की प्राचीनता सिद्ध करती है। इन सभ्यता-स्थलों में विकसित मानव बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं। यहाँ बागौर जैसे स्थल मध्यपाषाणकालीन और नवपाषाणकालीन इतिहास की उपस्थिति प्रस्तुत करते हैं। कालीबंगा जैसे विकसित सिन्धुकालीन स्थल का विकास यहीं पर हुआ वहीं आहड़, गणेश्वर जैसी प्राचीनतम ताम्रकालीन सभ्यताएँ भी पनपीं।

आर्य और राजस्थान

          मरुधरा की सरस्वती और दृशद्वती जैसी नदियाँ आर्यों की प्राचीन बस्तियों की शरणस्थली रही है। ऐसा माना जाता है कि यहीं से आर्य बस्तियाँ कालान्तर में दोआब आदि स्थानों की ओर बढ़ी। इन्द्र और सोम की अर्चना में मन्त्रों की रचना, यज्ञ की महत्ता की स्वीकृति और जीवन-मुक्ति का ज्ञान आर्यों को सम्भवतः इन्हीं नदी घाटियों में निवास करते हुए हुआ था। महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रतीत होता है, कि जांगल (बीकानेर), मरुकान्तार (मारवाड़) आदि भागों से बलराम और कृष्ण गुजरे थे, जो आर्यों की यादव शाखा से सम्बन्धित थे।

जनपदों का युग

          आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का उदय होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएँ अधिक प्रमाणों पर आधारित की जा सकती हैं। सिकन्दर के अभियानों से आहत तथा अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने को उत्सुक दक्षिण पंजाब की मालव, शिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं। इनमें भरतपुर का राजन्य जनपद और मत्स्य जनपद, नगरी का शिवि जनपद, अलवर का शाल्व जनपद प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त 300 ई. पू. से 300 ई. के मध्य तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में मिलता है। मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट था, कालान्तर में यह अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये। भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन अपनी विजयों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इसी प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधेय भी एक शक्तिशाली गणतन्त्रीय कबीला था। यौधेय संभवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुये थे जो रुद्रदामन के लेख से स्पष्ट है। लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी ईस्वी के काल में राजस्थान के केन्द्रीय भागों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार था, परन्तु यौधेय तथा मालवों के यहाँ आने से ब्राह्मण धर्म को प्रोत्साहन मिलने लगा और बौद्ध धर्म के हृास के चिह्न दिखाई देने लगे। गुप्त राजाओं ने इन जनपदीय गणतन्त्रों को समाप्त नहीं किया, परन्तु इन्हें अर्द्ध आश्रित रूप में बनाए रखा। ये गणतन्त्र हूण आक्रमण के धक्के को सहन नहीं पाये और अन्ततः छठी शताब्दी आते-आते यहाँ से सदियों से पनपी गणतन्त्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गई।

मौर्य और राजस्थान

          राजस्थान के कुछ भाग मौर्यों के अधीन या प्रभाव क्षेत्र में थे। अशोक का बैराठ का शिलालेख तथा उसके उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र सम्प्रति द्वारा बनवाये गये मन्दिर मौर्यों के प्रभाव की पुश्टि करते हैं। कुमारपाल प्रबन्ध तथा अन्य जैन ग्रंथों से अनुमानित है कि चित्तौड़ का किला व चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग का बनवाया हुआ है। चित्तौड़ से कुछ दूर मानसरोवर नामक तालाब पर राज मान का, जो मौर्यवंशी माना जाता है, वि. सं. 770 का शिलालेख कर्नल टाॅड को मिला, जिसमें माहेश्वर, भीम, भोज और मान ये चार नाम क्रमशः दिये हैं। कोटा के निकट कणसवा (कसुंआ) के शिवालय से 795 वि. सं. का शिलालेख मिला है, जिसमंे मौर्यवंशी राजा धवल का नाम है। इन प्रमाणों से मौर्यों का राजस्थान में अधिकार और प्रभाव स्पष्ट होता है।  हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की राजनीतिक एकता पुनः विघटित होने लगी। इस युग में भारत में अनेक नये राजवंशों का अभ्युदय हुआ। राजस्थान में भी अनेक राजपूत वंशों ने अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये थे, इसमें मारवाड़ के प्रतिहार और राठौड़, मेवाड़ के गुहिल, सांभर के चैहान, आमेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी इत्यादि प्रमुख हंै।
          शिलालेखों के आधार पर हम कह सकते हैं कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस पास प्रतिहारों का राज्य था और फिर वही राज्य आगे चलकर राठौड़ों को प्राप्त हुआ। लगभग इसी समय सांभर में चैहान राज्य की स्थापना हुई और धीरे-धीरे वह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया। पांचवीं या छठी शताब्दी में मेवाड़ और आसपास के भू-भाग में गुहिलों का शासन स्थापित हो गया। दसवीं शताब्दी में अर्थूंणा तथा आबू में परमार शक्तिशाली बन गये। बारहवी ं तथा तरे हवी ं शताब्दी क े आसपास तक जालारै , रणथम्भौर और हाड़ौती में चैहानों ने पुनः अपनी शक्ति का संगठन किया परन्तु उसका कहीं-कहीं विघटन भी होता रहा।

नामकरण

          वर्तमान राजस्थान के लिए पहले किसी एक नाम का प्रयोग नहीं मिलता है। इसके भिन्न-भिन्न क्षेत्र अलग-अलग नामों से जाने जाते थे। वर्तमान बीकानेर और जोधपुर का क्षेत्र महाभारत काल में ‘जांगल देश’ कहलाता था। इसी कारण बीकानेर के राजा स्वयं को ‘जंगलधर बादशाह’ कहते थे। जांगल देश का निकटवर्ती भाग सपादलक्ष (वर्तमान अजमेर और नागौर का मध्य भाग) कहलाता था, जिस पर चैहानों का अधिकार था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरु देश, दक्षिणी और पश्चिमी मत्स्य देश और पूर्वी भाग शूरसेन देश के अन्तर्गत था। भरतपुर और धौलपुर राज्य तथा करौली राज्य का अधिकांश भाग शूरसेन देश के अन्तर्गत थे। शूरसेन राज्य की राजधानी मथुरा, मत्स्य राज्य की विराटनगर और कुरु राज्य की इन्द्रप्रस्थ थी। उदयपुर राज्य का प्राचीन नाम ‘शिव’ था, जिसकी राजधानी ‘मध्यमिका’ थी। आजकल ‘मध्यमिका’ (मज्झमिका) को नगरी कहते हैं। यहाँ पर मेव जाति का अधिकार रहा, जिस कारण इसे मेदपाट अथवा प्राग्वाट भी कहा जाने लगा। डूँगरपुर, बाँसवाड़ा के प्रदेष को बागड़ कहते थे। जोधपुर के राज्य को मरु अथवा मारवाड़ कहा जाता था। जोधपुर के दक्षिणी भाग को गुर्जरत्रा कहते थे और सिरोही के हिस्से को अर्बुद (आबू) देश कहा जाता था। जैसलमेर को माड तथा कोटा और बूँदी को हाड़ौती पुकारा जाता था। झालावाड़ का दक्षिणी भाग मालव देश के अन्तर्गत गिना जाता था।          इस पक्र ार स्पष्ट ह ै कि जिस भू-भाग का े आजकल हम राजस्थान कहते है, वह किसी विशेष नाम से कभी प्रसिद्ध नहीं रहा। ऐसी मान्यता है कि 1800 ई. में सर्वप्रथम जाॅर्ज थाॅमस ने इस प्रान्त के लिए ‘राजपूताना’ नाम का प्रयोग किया था। प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टाॅड ने 1829 ई. में अपनी पुस्तक ‘एनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज आॅफ राजस्थान’ में इस राज्य का नाम ‘रायथान’ अथवा ‘राजस्थान’ रखा। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो इस राज्य का नाम ‘राजस्थान’ स्वीकार कर लिया गया।
 

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